बहरे मुतक़ारिब:मुसम्मन सालिम
अरकान: फऊलुन,फऊलुन,फऊलुन,फऊलुन
वज़न:-122 122 122 122
यह बहर बहुत लोकप्रिय बहर है इस बहर पर क़रीब हर गायक और गीतकार ने गीत या गज़लें लिख़कर या गाकर अपनी किसमत सँवारी और मशहूर हो गये क्यूँकि ये बहर है ही इतनी सहल और आसान जितने भी गीत फिल्मी दुनिया में इस पर लिखे जा चुके हैं उन्हें आज भी लोग एैसे ही गुनगुनाते हैं जैसे कल गुनगुनाते थे!
इस बहर की लै या ताल आसानी से पकडने के लिए यहाँ कुछ फिल्मी गीत दिये जा रहे हैं
१*तेरे प्यार का आसरा चाहता हूं ।
२*वो जब याद आये बहुत याद आये।
३*उठेगी तुम्हारी नज़र धीरे-धीरे ।
४*इशारों-इशारों में दिल लेने वाले ।
५*तुम्हें प्यार करते हैं करते रहेंगे ।
६*अकेले अकेले कहाँ जा रहे हो ।
७*न तुम बे-वफ़ा हो न हम बे-वफ़ा है ।
८*हमीं से मुहब्बत हमीं से लड़ाई
९ *मुझे दुनिया वालों, शराबी न समझो
१०*सितारों के आगे जहां और भी हैं ।
११*ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनियां
१२*मुझे प्यार की ज़िंदगी देने वाले ।
१३*मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोए ।
१४*संभाला है मैंने बहुत अपने दिल को ।
१५*ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी के लो
१६*जो तुम आ गए हो तो नूर आ गया है
१७*ये माना मेरी जाँ मुहब्बत जवाँ है ।
१८*जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा ।
२९*मुबारक हो तुमको समां ये सुहाना ।
२०*बने चाहे दुश्मन जमाना हमारा ।
क़ाफिये और रदीफ अपनी मर्ज़ी से ले सकते हैं ग़ज़ल पाँच अशआर से कम न हों!
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बहरे मुतक़ारिब:मुसम्मन सालिम
अरकान: फऊलुन,फऊलुन,फऊलुन,फऊलुन
वज़न:-122 122 122 122
जो हारी हुई है तबीयत हमारी,
मुहब्बत ने की है ये हालत हमारी ।
करें फिर से रोशन तेरी यादें आकर,
बुझी जा रही शम्मे ख़लवत हमारी ।
तसव्वुर किया था कभी हमने जिनका,
उन्हीं वहशतों में है वहशत हमारी ।
कहाँ जाके चेहरा छुपाऐं सरे राह,
उतारी गई यार इज्ज़त हमारी ।
अमीरों की महफिल में तर्ज़े अदा से,
अयाँ हो गई शाम ए ग़ुरबत हमारी ।
पिया जब से जाम ए मुहब्बत तभी से,
शबो रोज़ घटती है क़ीमत हमारी ।
तुझे रास क्यूँकर नहीं आई जानाँ,
ख़िलाफे वज़ा थी क्या उलफत हमारी ।
जाबिर अयाज़ सहारनपुरी भारत
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बहरे मुत़कारिब
मसम्मन सालिम
अरकान: फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न: 122 122 122 122
ग़ज़ल
बतानी पड़ेगी तुम्हें बात आख़िर,
किधर जा रहे हैं, ये हालात आख़िर।
तुम्हारा नहीं मुल्क़, है ये सभी का,
जुड़े मुल्क़ से सब के जज़्बात आख़िर।
नज़र है तुम्हारे, निवाले पे लोगों,
सियासत हुई आज, बदज़ात आख़िर।
गयी नौकरी लोग, बेकार बैठे,
बुरा दौर, दिन में हुई रात आख़िर।
हुक़ूमत न हमको, डराना कभी तुम,
दबाना नहीं अब, सवालात आख़िर।
लिखेगा सुख़नवर, हक़ीक़त जहाँ की,
समझलो कहें क्या ये नग़मात आख़िर।
मिटाना है मुश्किल, ये तहरीर मेरी,
सभी के दिलों की, कही बात आख़िर।
गुमाँ है बहारों पे देखो चमन को,
दिखाये खिज़ा इसको औक़ात आख़िर।
हमीं से है क़ायम तुम्हारा ये रुतबा,
दिलाने लगे 'दीप' को मात आख़िर।
जितेंदर पाल सिंह 'दीप'
मसम्मन सालिम
अरकान: फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न: 122 122 122 122
ग़ज़ल
बतानी पड़ेगी तुम्हें बात आख़िर,
किधर जा रहे हैं, ये हालात आख़िर।
तुम्हारा नहीं मुल्क़, है ये सभी का,
जुड़े मुल्क़ से सब के जज़्बात आख़िर।
नज़र है तुम्हारे, निवाले पे लोगों,
सियासत हुई आज, बदज़ात आख़िर।
गयी नौकरी लोग, बेकार बैठे,
बुरा दौर, दिन में हुई रात आख़िर।
हुक़ूमत न हमको, डराना कभी तुम,
दबाना नहीं अब, सवालात आख़िर।
लिखेगा सुख़नवर, हक़ीक़त जहाँ की,
समझलो कहें क्या ये नग़मात आख़िर।
मिटाना है मुश्किल, ये तहरीर मेरी,
सभी के दिलों की, कही बात आख़िर।
गुमाँ है बहारों पे देखो चमन को,
दिखाये खिज़ा इसको औक़ात आख़िर।
हमीं से है क़ायम तुम्हारा ये रुतबा,
दिलाने लगे 'दीप' को मात आख़िर।
जितेंदर पाल सिंह 'दीप'
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बह्र- बह्रे-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
अरकान - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न -122 122 122 122
**** **** **** ****
लगे भूख तो याद आती है रोटी।
ग़रीबी में सबको रूलाती है रोटी।।
कभी कोई देखे तो परदेश जाके।
दिलों से दिलों को मिलाती है रोटी।।
मुक़द्दर की बातें मुक़द्दर ही जाने।
हक़ीक़त से लड़ना सिखाती है रोटी।।
अगर हो न रोटी तो मुश्किल है जीना।
हमें क्या से क्या दिन दिखाती है रोटी।।
किसी के कहाँ काम आयी है दौलत।
अगन पेट की तो बुझाती है रोटी।।
क़दम जो बढ़ाते हैं ईमान खोकर।
उन्हें कब सकूँ से सुलाती है रोटी।।
कभी पास आकर बहुत मुस्कुराये।
कभी अश्क"आंखों में लाती है रोटी।।
अशोक कुमार "अश्क चिरैयाकोटी"
चिरैयाकोट, जनपद- मऊ (उ0 प्र0) ,भारत
अरकान - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न -122 122 122 122
**** **** **** ****
लगे भूख तो याद आती है रोटी।
ग़रीबी में सबको रूलाती है रोटी।।
कभी कोई देखे तो परदेश जाके।
दिलों से दिलों को मिलाती है रोटी।।
मुक़द्दर की बातें मुक़द्दर ही जाने।
हक़ीक़त से लड़ना सिखाती है रोटी।।
अगर हो न रोटी तो मुश्किल है जीना।
हमें क्या से क्या दिन दिखाती है रोटी।।
किसी के कहाँ काम आयी है दौलत।
अगन पेट की तो बुझाती है रोटी।।
क़दम जो बढ़ाते हैं ईमान खोकर।
उन्हें कब सकूँ से सुलाती है रोटी।।
कभी पास आकर बहुत मुस्कुराये।
कभी अश्क"आंखों में लाती है रोटी।।
अशोक कुमार "अश्क चिरैयाकोटी"
चिरैयाकोट, जनपद- मऊ (उ0 प्र0) ,भारत
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🌹ग़ज़ल🌹
बहरे मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन्
वज्न - 122 122 122 122
🌺
कहाँ चल दिए कुछ बतायें ज़रा तो,
कभी चन्द लम्हें बितायें जरा तो।
🌺
तुम्हें कौन रोके बडे दिलनशीं हो ,
कभी अक्स अपना दिखायें ज़रा तो।
🌺
शिकायत यही थी हिमाकत समझ लो,
यही इश्क हमको सिखायें ज़रा तो।
🌺
जताया यही प्यार तुमने कभी ना,
कभी गीत ये गुनगुनाएँ ज़रा तो।
🌺
तुम्हे भूल जाये न दिल को गवाँरा,
किसी रोज तशरीफ़ लायें ज़रा तो।
🌺
न खोलो यहाँ राज अविराज दिल के,
कभी ख्वाब में ही बुलायें ज़रा तो।
🌺
✍ अरविन्द चास्टा अविराज
बहरे मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन्
वज्न - 122 122 122 122
🌺
कहाँ चल दिए कुछ बतायें ज़रा तो,
कभी चन्द लम्हें बितायें जरा तो।
🌺
तुम्हें कौन रोके बडे दिलनशीं हो ,
कभी अक्स अपना दिखायें ज़रा तो।
🌺
शिकायत यही थी हिमाकत समझ लो,
यही इश्क हमको सिखायें ज़रा तो।
🌺
जताया यही प्यार तुमने कभी ना,
कभी गीत ये गुनगुनाएँ ज़रा तो।
🌺
तुम्हे भूल जाये न दिल को गवाँरा,
किसी रोज तशरीफ़ लायें ज़रा तो।
🌺
न खोलो यहाँ राज अविराज दिल के,
कभी ख्वाब में ही बुलायें ज़रा तो।
🌺
✍ अरविन्द चास्टा अविराज
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बहरे मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन्
वज्न - 122 122 122 122
फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन्
वज्न - 122 122 122 122
कभी इश्क़ में हम द़गा कर न पाये
उसे दिल से अपने जु़दा कर न पाये
खुशी है कि बस इक दफ़ा की मुहब्बत़
ये हिम्मत़ कभी फिर खुदा कर न पाये
रहेगी कसक एक दिल में सदा ही
दिलों का ये कम फ़ासला कर न पाये
वफ़ा का सिला है मिली बेवफ़ाई
सिला वो वफ़ा का अदा कर न पाये
उड़ी एक अफ़वाह को सच ही जाना
हकीकत़ का हम सामना कर न पाये
पशेमाँ हुए अपनी ही सोच पर हम
बड़ा दिल का ये दायरा कर न पाये
सफ़र जीस्त़ का ख़त्म होने को "कश्यप"
मरें या जियें फैसला कर न पाये
आयुष कश्यप
उसे दिल से अपने जु़दा कर न पाये
खुशी है कि बस इक दफ़ा की मुहब्बत़
ये हिम्मत़ कभी फिर खुदा कर न पाये
रहेगी कसक एक दिल में सदा ही
दिलों का ये कम फ़ासला कर न पाये
वफ़ा का सिला है मिली बेवफ़ाई
सिला वो वफ़ा का अदा कर न पाये
उड़ी एक अफ़वाह को सच ही जाना
हकीकत़ का हम सामना कर न पाये
पशेमाँ हुए अपनी ही सोच पर हम
बड़ा दिल का ये दायरा कर न पाये
सफ़र जीस्त़ का ख़त्म होने को "कश्यप"
मरें या जियें फैसला कर न पाये
आयुष कश्यप
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ग़ज़ल
बहरे मुतक़ारिब--मुसम्मन सालिम
अरकान--फऊलुन फऊलुन फउलुन फऊलुन
वज़न ----122-122-122-122
ग़ज़ल
क़ाफ़िया -ए -------रद़ीफ़ -पहले
********************************
निहारूं तुझे जान जाने से पहले,
लगा तू गले इस विदाई से पहले।
बहुत रो लिए हम मिलन को हमारे,
मिले इक झलक इस जुदाई से पहले।
चले हम डगर हर तुम्हारी हि सजना,
चलो तुम डगर मेरी अर्थी से पहले।
बनूं याद मीठी तुम्हारी नज़र की,
सजूं आंख में अश्क बनने से पहले।
गिरूं ना कभी आंख से बूंद बन कर,
चलूं जिंदगी के बदलने से पहले।
राज्यश्री सिंह
गुरुग्राम
बहरे मुतक़ारिब--मुसम्मन सालिम
अरकान--फऊलुन फऊलुन फउलुन फऊलुन
वज़न ----122-122-122-122
ग़ज़ल
क़ाफ़िया -ए -------रद़ीफ़ -पहले
********************************
निहारूं तुझे जान जाने से पहले,
लगा तू गले इस विदाई से पहले।
बहुत रो लिए हम मिलन को हमारे,
मिले इक झलक इस जुदाई से पहले।
चले हम डगर हर तुम्हारी हि सजना,
चलो तुम डगर मेरी अर्थी से पहले।
बनूं याद मीठी तुम्हारी नज़र की,
सजूं आंख में अश्क बनने से पहले।
गिरूं ना कभी आंख से बूंद बन कर,
चलूं जिंदगी के बदलने से पहले।
राज्यश्री सिंह
गुरुग्राम
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बहरे मुतक़ारिब--मुसम्मन सालिम
अरकान--फऊलुन फऊलुन फउलुन फऊलुन
वज़न ----122-122-122-122
अरकान--फऊलुन फऊलुन फउलुन फऊलुन
वज़न ----122-122-122-122
न सोचा जिन्हें वो कसरवार निकले,
जिन्हें मूर्ख समझा समझदार निकले।
कैसे हम करे अब भरोसा किसी पर,
था विश्वास जिस पर वो गद्दार निकले।
यहाँ कौन काबिल न काबिल खबर क्या
जिन्हें था नकारा हो खुद्दार निकले।
यहाँ दिख रहे थे जो बाहर से पाकी,
जो गहरे में उतरे गुनहगार निकले।
किया ही नहीं वक्त पर काम सारा,
था सौंपा जिन्हें काम मक्कार निकले।
मदद करने वाले गए छोड़कर सब,
न सोचा जिन्हें वो मददगार निकले।
कहा मित्र जिनको दगा दे गए वो,
जो दुश्मन थे वो ही वफादार निकले।
लिखे जो कभी मैंने ग़ुरबत के दिन में,
जो अल्फ़ाज़ थे मेरे अशआर निकले।
नहीं एक हम ही है दिलदार तेरे,
हजारों ही तेरे तलबगार निकले।
जमाने में जब तक जियो मीत मेरे,
दिलों से हमेशा ही बस प्यार निकले।
लिखो' राम 'कम तुम भले से यहाँ पर,
लिखो शेर ऐसे असरदार निकले।
स्वरचित
रामप्रसाद लिल्हारे'मीना'
चिखला बालाघाट(म.प्र.)
जिन्हें मूर्ख समझा समझदार निकले।
कैसे हम करे अब भरोसा किसी पर,
था विश्वास जिस पर वो गद्दार निकले।
यहाँ कौन काबिल न काबिल खबर क्या
जिन्हें था नकारा हो खुद्दार निकले।
यहाँ दिख रहे थे जो बाहर से पाकी,
जो गहरे में उतरे गुनहगार निकले।
किया ही नहीं वक्त पर काम सारा,
था सौंपा जिन्हें काम मक्कार निकले।
मदद करने वाले गए छोड़कर सब,
न सोचा जिन्हें वो मददगार निकले।
कहा मित्र जिनको दगा दे गए वो,
जो दुश्मन थे वो ही वफादार निकले।
लिखे जो कभी मैंने ग़ुरबत के दिन में,
जो अल्फ़ाज़ थे मेरे अशआर निकले।
नहीं एक हम ही है दिलदार तेरे,
हजारों ही तेरे तलबगार निकले।
जमाने में जब तक जियो मीत मेरे,
दिलों से हमेशा ही बस प्यार निकले।
लिखो' राम 'कम तुम भले से यहाँ पर,
लिखो शेर ऐसे असरदार निकले।
स्वरचित
रामप्रसाद लिल्हारे'मीना'
चिखला बालाघाट(म.प्र.)
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ग़ज़ल
बह्र-बह्रे -मुतकारिब मुसम्मन सालिम
अरकान - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज्न - 122 122 122 122
बहुत याद आए मगर तुम न आए,
किसे हम बतायें कि हैं चोट खाए।
चली जब शहर में हवाएं वफ़ा की,
हमें सोचकर तुम नज़र थे झुकाए।
नहीं भूल पाये कभी वो इशारे,
मिला कर नज़र से नज़र फिर चुराए।
तुम्हारे सिवा और था कौन मेेरा,
तुम्हारे लिए हम हुए क्यूं पराए।
कभी सोचना तुम वफाएं हमारी,
कभी पूछना खुद कि क्या तुम निभाए।
शराफत हमारी इबादत हमारी,
न जाने यही वो समझ क्यूं न पाए।
कभी इश्क को गर भुलाना पड़े तो,
भुला दो नज़र से नज़र थे मिलाए।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
बह्र-बह्रे -मुतकारिब मुसम्मन सालिम
अरकान - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज्न - 122 122 122 122
बहुत याद आए मगर तुम न आए,
किसे हम बतायें कि हैं चोट खाए।
चली जब शहर में हवाएं वफ़ा की,
हमें सोचकर तुम नज़र थे झुकाए।
नहीं भूल पाये कभी वो इशारे,
मिला कर नज़र से नज़र फिर चुराए।
तुम्हारे सिवा और था कौन मेेरा,
तुम्हारे लिए हम हुए क्यूं पराए।
कभी सोचना तुम वफाएं हमारी,
कभी पूछना खुद कि क्या तुम निभाए।
शराफत हमारी इबादत हमारी,
न जाने यही वो समझ क्यूं न पाए।
कभी इश्क को गर भुलाना पड़े तो,
भुला दो नज़र से नज़र थे मिलाए।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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ग़ज़ल
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बह्र-बहरे मुतक़ारिब -मुसम्मन सालिम
अरकान- फ़ऊलुन, फ़ऊलुन,फ़ऊ लुन ,फ़ऊलुन
वज़्न- 122-122-122-122
क़ाफ़िया -मुहब्बत(अत की बंदिश)
रदीफ़- हमारी
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मज़ाजी नहीं ये मुहब्बत हमारी,
यक़ीनन हक़ीक़ी है रक़बत हमारी॥
रहो सामने तुम हमेशा नज़र के,
फ़क़त है यही यार हसरत हमारी॥
कभी तुम हमारे न दिल को दुखाना,
इसी को समझना नसीहत हमारी।।
नज़र से पिलाई है कैसी ये तुम ने,
बहकने लगी है तबीयत हमारी॥
ख़याले- जुदाई विनी दिल मे आये,
तो मर जाये जीने की हसरत हमारी॥
विनीता सिंह विनी
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बह्र- बह्रे-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
अरकान - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न -122 122 122 122
काफिया ..ई
रदीफ़ ... है
विधा..ग़ज़ल
तुम्हारे बिना,ज़िंदगी ना फली है,
ज़लालत भरी और दिल से छली है।
सजें थे कभी जो ,तसव्वुर हमारे,
हवा में वही ,राख बनके मिली है।
जवानी मुसीबत ,बनी है हमारी,
करी जो वफ़ा,बेवफ़ाई पली है।
भरी है अजीयत ,ज़हर सी मुग़ालत,
हुकूमत तुम्हारी,सदा ही खली है।
“सुवी” देख कैसा ,क़हर है मचाया,
सरेआम मुहब्बत देखो जली है ।
मुग़ालत..धोका
अजीयत...यातना
ज़लालत..अपमान
सुवर्णा परतानी, हैदराबाद
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बह्र- बह्रे-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
अरकान - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न -122 122 122 122
काफिया -आ स्वर
रदीफ़ - हो गए है
गज़ल
यहाँ यूँ जुदा बेवफा हो गए है ।
नजा़कत भरे अब रिहा हो गए है ।१।
दिए फूल अब राह में ही पड़े है ।
सभी ख्वाब हम से खफा हो गए है ।२।
मुझे ठोकरों में गिराते करीबी ।
यहाँ बेखबर से खुदा हो गए है ।३।
रहा उम्र भर एक ये ही गुमा यूँ ।
किसीके लिए वो फना हो गए है ।४।
कभी लौटते है गए दिन बिचारे ।
यही बात पे दायरा हो गए है। ५।
रजिन्दर कोर (रेशू) , अमृतसर
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ग़ज़ल
बह्र-बह्रे -मुतकारिब मुसम्मन सालिम
अरकान - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज्न - 122 122 122 122
नज़ाकत नफ़ासत बसी आप में है।
गुरुर हुस्न पर भी तभी आप में है।
सवालों में घिरता यहाँ जा रहा हूँ,
जवाबों की शम्मा जली आप में है।
सियासत लगाती रही रोज़ क़ीमत,
ये कितनी शराफ़त अभी आप में है।
दिया जख्म मुझको मगर दिलरुबा सुन,
दवा दर्द की भी छुपी आप में है।
किसी मोड़ पर ना मिलेगी पराजय,
ये ताकत भी कृष्णा मिली आप में है।
कृष्णा श्रीवास्तव , हाटा,कुशीनगर
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ग़ज़ल
बह्र-बह्रे -मुतकारिब मुसम्मन सालिम
अरकान - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
🌹
महक कर मुझे अब बताना पड़ेगा।
बनी शिष्य वादा निभाना पड़ेगा।
🌹
सजे है मिरे नाम पर जो सितारे।
वहाँ अक्स तेरा दिखाना पड़ेगा।
🌹
बनी है यहाँ आज पहचान मेरी।
यहाँ परिचय तुम्हारा कराना पड़ेगा।
🌹
मुझे फर्श से अर्श तक ले गई तुम।
तुझे हर्फ़ में यूँ सजाना पड़ेगा।
🌹
कभी तुम सहेली कभी तुम गुरु थी।
मगर ये जहाँ को जताना पड़ेगा।
🌹
रानी सोनी"परी
----------------------------------
बहरे मुत़कारिब
मसम्मन सालिम
अरकान: फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न: 122 122 122 122
ग़ज़ल
यकीं टूट जाने से, आफ़ात होंगी,
मुकम्मल यहीं क्या, मुलाकात होंगी।
ख़ुलूसे ज़िगर से, मिलो साथ लोगों,
मिलें दिल से दिल तो इनायात होंगी।
नहीं छीन सकते, मुक़द्दर किसी का,
बना दें मुक़द्दर, करामात होंगी।
तलब करके पूछो, सबब बेरुखी का,
गुमाँ को मिटा दो, मसावात होंगी।
ये बरहमगिरी से नहीं कुछ है हासिल,
लगो ग़र गले, तो मुदारात होंगी।
हुआ आम, यूँही किसी को गिराना,
उठा लो गिरे को, बजा बात होंगी।
ज़हन से निकालो, मबाहात बातें,
नहीं 'दीप' फ़िर से, खुराफ़ात होंगी।
जितेंदर पाल सिंह 'दीप'
शब्दार्थ
मसावात-- समानता
मुदारात--विनम्रता
बरहमगिरी-- ग़ुस्सैलपना
मबाहात-- घमंड, अभिमान, डींग
ख़ुलूसे ज़िगर-- निष्कपट,निश्छल ज़िगर
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ग़ज़ल
बहरे मुतक़ारिब--मुसम्मन सालिम
अरकान--फऊलुन फऊलुन फउलुन फऊलुन
वज़न ----122 122 122 122
काफिया -आया
रदीफ - गैर मुरद्दफ (बिना रदीफ की गज़ल)
हमें प्यार तुमपे सनम आज आया।
मुहब्बत हुई और दिल मुस्कुराया।
ये हम भूल बैठे,थे तुम हो फरिश्ते।
सदा हमने समझा था तुमको पराया।
ख़ता की है हमने तुम्हें ही न जाना।
तुम्हारे जिया को हमेशा जलाया।
न हम अहमियत जान पाते तुम्हारी
सनम डूब जाती,तुम्हीं ने बचाया।
अगर तुम न आते मेरी ज़िन्दगी में
तो हो जाता ये दिल सभी से पराया।
किया भी कहाँ था कभी कोइ शिकवा।
भला तुमने क्यूँ मन है अपना दुखाया?
तेरी निय्यतों की बदौलत मिला है
वही प्यार मैने जो तुझ पे लुटाया।
रागिनी गर्ग
रामपुर (उ. प्र.)
---------------------------------
ग़ज़ल
बहरे मुतक़ारिब--मुसम्मन सालिम
अरकान--फऊलुन फऊलुन फउलुन फऊलुन
वज़न ----122 122 122 122
काफिया -आ
रदीफ - नहीं मैं
तुम्हारे बिना जी सकूँगा नहीं मैं ।
ज़हर मौत का पी मरूँगा नहीं मैं ।।
तुम्हारे सहारे बसी जिंदगी है ।
समझ लो इशारा कहूँगा नहीं मैं ।।
सभी ग़म जुदा हो गए तुमसे मिलकर
कभी दूर तुम से रहूंगा नहीं मैं
नज़ारे बहुत ही नज़र आ रहे हैं
विरह आग में अब दहूँगा नहीं मैं
दिलों से दिलों को मिलाया बमुश्किल
ख़तम ये कहानी करूँगा नहीं मैं
अभय नाम मेरा डरो मत किसी से
उठे आग फिर भी डरूंगा नहीं मै
अभय कुमार आनंद
लखनऊ उत्तर प्रदेश
---------------------------------------
ग़ज़ल
बहरे मुतक़ारिब मसम्मन सालिम
अरकान- फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न-122 122 122 122
-------------------------------------------------------------
काफ़िया :- आ स्वर
रदीफ़ :- हुआ है
सनम प्यार का जो इशारा हुआ है
मुहब्बत में ये दिल तुम्हारा हुआ है।
नजर से हमें जो उन्होंने छुआ फिर
नही देखना कुछ गवारा हुआ है
करीबी सनम की हुई आज हासिल
अजी खूब दिलकश नजारा हुआ है।
मुहब्बत अगर जुर्म है तो सुनो तुम
हमे कब सजा से किनारा हुआ है
जरूरत महल औ मकां की नहीं अब
के दिल मे ठिकाना हमारा हुआ है
ललिता गहलोत
---------------------------------------
बहरे मुतक़ारिब
मसम्मन सालिम
अरकान- फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न-122 122 122 122
*** **** ***** ****
काफ़िया-आया
रदीफ़-नहीं है
कोई राज़ दिल का छुपाया नहीं है
अभी दिल किसी का चुराया नहीं है।
खुले आसमां में चमकते सितारे
मगर चाँद को क्यूँ जगाया नहीं है।
मुहब्बत नहीं है ये कहते हैं मुझसे
मगर हाथ अपना छुड़ाया नहीं है।
नहीं इल्म उनको मेरी चाहतों का
वो लगता मुझे क्यूँ पराया नहीं है।
इबादत शरारत नफ़ासत मुहब्बत
जताते हैं कैसे बताया नहीं है।
सलामत कहाँ हूँ अभी दोस्तों ने
दुआ में नज़र को झुकाया नहीं है।
ख़ुशी का फसाना लिखा था कभी 'मन'
किसी को अभी तक सुनाया नहीं है।
मसम्मन सालिम
अरकान- फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न-122 122 122 122
*** **** ***** ****
काफ़िया-आया
रदीफ़-नहीं है
कोई राज़ दिल का छुपाया नहीं है
अभी दिल किसी का चुराया नहीं है।
खुले आसमां में चमकते सितारे
मगर चाँद को क्यूँ जगाया नहीं है।
मुहब्बत नहीं है ये कहते हैं मुझसे
मगर हाथ अपना छुड़ाया नहीं है।
नहीं इल्म उनको मेरी चाहतों का
वो लगता मुझे क्यूँ पराया नहीं है।
इबादत शरारत नफ़ासत मुहब्बत
जताते हैं कैसे बताया नहीं है।
सलामत कहाँ हूँ अभी दोस्तों ने
दुआ में नज़र को झुकाया नहीं है।
ख़ुशी का फसाना लिखा था कभी 'मन'
किसी को अभी तक सुनाया नहीं है।
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बह्र-बहरे मुतक़ारिब -मुसम्मन सालिम
अरकान- फ़ऊलुन, फ़ऊलुन,फ़ऊ लुन ,फ़ऊलुन
वज़्न- 122-122-122-122
क़ाफ़िया -मुहब्बत(अत की बंदिश)
रदीफ़- हमारी
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मज़ाजी नहीं ये मुहब्बत हमारी,
यक़ीनन हक़ीक़ी है रक़बत हमारी॥
रहो सामने तुम हमेशा नज़र के,
फ़क़त है यही यार हसरत हमारी॥
कभी तुम हमारे न दिल को दुखाना,
इसी को समझना नसीहत हमारी।।
नज़र से पिलाई है कैसी ये तुम ने,
बहकने लगी है तबीयत हमारी॥
ख़याले- जुदाई विनी दिल मे आये,
तो मर जाये जीने की हसरत हमारी॥
विनीता सिंह विनी
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बह्र- बह्रे-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
अरकान - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न -122 122 122 122
काफिया ..ई
रदीफ़ ... है
विधा..ग़ज़ल
तुम्हारे बिना,ज़िंदगी ना फली है,
ज़लालत भरी और दिल से छली है।
सजें थे कभी जो ,तसव्वुर हमारे,
हवा में वही ,राख बनके मिली है।
जवानी मुसीबत ,बनी है हमारी,
करी जो वफ़ा,बेवफ़ाई पली है।
भरी है अजीयत ,ज़हर सी मुग़ालत,
हुकूमत तुम्हारी,सदा ही खली है।
“सुवी” देख कैसा ,क़हर है मचाया,
सरेआम मुहब्बत देखो जली है ।
मुग़ालत..धोका
अजीयत...यातना
ज़लालत..अपमान
सुवर्णा परतानी, हैदराबाद
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बह्र- बह्रे-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
अरकान - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न -122 122 122 122
काफिया -आ स्वर
रदीफ़ - हो गए है
गज़ल
यहाँ यूँ जुदा बेवफा हो गए है ।
नजा़कत भरे अब रिहा हो गए है ।१।
दिए फूल अब राह में ही पड़े है ।
सभी ख्वाब हम से खफा हो गए है ।२।
मुझे ठोकरों में गिराते करीबी ।
यहाँ बेखबर से खुदा हो गए है ।३।
रहा उम्र भर एक ये ही गुमा यूँ ।
किसीके लिए वो फना हो गए है ।४।
कभी लौटते है गए दिन बिचारे ।
यही बात पे दायरा हो गए है। ५।
रजिन्दर कोर (रेशू) , अमृतसर
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ग़ज़ल
बह्र-बह्रे -मुतकारिब मुसम्मन सालिम
अरकान - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज्न - 122 122 122 122
नज़ाकत नफ़ासत बसी आप में है।
गुरुर हुस्न पर भी तभी आप में है।
सवालों में घिरता यहाँ जा रहा हूँ,
जवाबों की शम्मा जली आप में है।
सियासत लगाती रही रोज़ क़ीमत,
ये कितनी शराफ़त अभी आप में है।
दिया जख्म मुझको मगर दिलरुबा सुन,
दवा दर्द की भी छुपी आप में है।
किसी मोड़ पर ना मिलेगी पराजय,
ये ताकत भी कृष्णा मिली आप में है।
कृष्णा श्रीवास्तव , हाटा,कुशीनगर
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ग़ज़ल
बह्र-बह्रे -मुतकारिब मुसम्मन सालिम
अरकान - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
🌹
महक कर मुझे अब बताना पड़ेगा।
बनी शिष्य वादा निभाना पड़ेगा।
🌹
सजे है मिरे नाम पर जो सितारे।
वहाँ अक्स तेरा दिखाना पड़ेगा।
🌹
बनी है यहाँ आज पहचान मेरी।
यहाँ परिचय तुम्हारा कराना पड़ेगा।
🌹
मुझे फर्श से अर्श तक ले गई तुम।
तुझे हर्फ़ में यूँ सजाना पड़ेगा।
🌹
कभी तुम सहेली कभी तुम गुरु थी।
मगर ये जहाँ को जताना पड़ेगा।
🌹
रानी सोनी"परी
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बहरे मुत़कारिब
मसम्मन सालिम
अरकान: फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न: 122 122 122 122
ग़ज़ल
यकीं टूट जाने से, आफ़ात होंगी,
मुकम्मल यहीं क्या, मुलाकात होंगी।
ख़ुलूसे ज़िगर से, मिलो साथ लोगों,
मिलें दिल से दिल तो इनायात होंगी।
नहीं छीन सकते, मुक़द्दर किसी का,
बना दें मुक़द्दर, करामात होंगी।
तलब करके पूछो, सबब बेरुखी का,
गुमाँ को मिटा दो, मसावात होंगी।
ये बरहमगिरी से नहीं कुछ है हासिल,
लगो ग़र गले, तो मुदारात होंगी।
हुआ आम, यूँही किसी को गिराना,
उठा लो गिरे को, बजा बात होंगी।
ज़हन से निकालो, मबाहात बातें,
नहीं 'दीप' फ़िर से, खुराफ़ात होंगी।
जितेंदर पाल सिंह 'दीप'
शब्दार्थ
मसावात-- समानता
मुदारात--विनम्रता
बरहमगिरी-- ग़ुस्सैलपना
मबाहात-- घमंड, अभिमान, डींग
ख़ुलूसे ज़िगर-- निष्कपट,निश्छल ज़िगर
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ग़ज़ल
बहरे मुतक़ारिब--मुसम्मन सालिम
अरकान--फऊलुन फऊलुन फउलुन फऊलुन
वज़न ----122 122 122 122
काफिया -आया
रदीफ - गैर मुरद्दफ (बिना रदीफ की गज़ल)
हमें प्यार तुमपे सनम आज आया।
मुहब्बत हुई और दिल मुस्कुराया।
ये हम भूल बैठे,थे तुम हो फरिश्ते।
सदा हमने समझा था तुमको पराया।
ख़ता की है हमने तुम्हें ही न जाना।
तुम्हारे जिया को हमेशा जलाया।
न हम अहमियत जान पाते तुम्हारी
सनम डूब जाती,तुम्हीं ने बचाया।
अगर तुम न आते मेरी ज़िन्दगी में
तो हो जाता ये दिल सभी से पराया।
किया भी कहाँ था कभी कोइ शिकवा।
भला तुमने क्यूँ मन है अपना दुखाया?
तेरी निय्यतों की बदौलत मिला है
वही प्यार मैने जो तुझ पे लुटाया।
रागिनी गर्ग
रामपुर (उ. प्र.)
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ग़ज़ल
बहरे मुतक़ारिब--मुसम्मन सालिम
अरकान--फऊलुन फऊलुन फउलुन फऊलुन
वज़न ----122 122 122 122
काफिया -आ
रदीफ - नहीं मैं
तुम्हारे बिना जी सकूँगा नहीं मैं ।
ज़हर मौत का पी मरूँगा नहीं मैं ।।
तुम्हारे सहारे बसी जिंदगी है ।
समझ लो इशारा कहूँगा नहीं मैं ।।
सभी ग़म जुदा हो गए तुमसे मिलकर
कभी दूर तुम से रहूंगा नहीं मैं
नज़ारे बहुत ही नज़र आ रहे हैं
विरह आग में अब दहूँगा नहीं मैं
दिलों से दिलों को मिलाया बमुश्किल
ख़तम ये कहानी करूँगा नहीं मैं
अभय नाम मेरा डरो मत किसी से
उठे आग फिर भी डरूंगा नहीं मै
अभय कुमार आनंद
लखनऊ उत्तर प्रदेश
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ग़ज़ल
बहरे मुतक़ारिब मसम्मन सालिम
अरकान- फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
वज़्न-122 122 122 122
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काफ़िया :- आ स्वर
रदीफ़ :- हुआ है
सनम प्यार का जो इशारा हुआ है
मुहब्बत में ये दिल तुम्हारा हुआ है।
नजर से हमें जो उन्होंने छुआ फिर
नही देखना कुछ गवारा हुआ है
करीबी सनम की हुई आज हासिल
अजी खूब दिलकश नजारा हुआ है।
मुहब्बत अगर जुर्म है तो सुनो तुम
हमे कब सजा से किनारा हुआ है
जरूरत महल औ मकां की नहीं अब
के दिल मे ठिकाना हमारा हुआ है
ललिता गहलोत
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गुमां दिल तिरे का मिटाना पड़ेगा।
तुझे हाल दिल का बताना पड़ेगा।।
चली जा रही हैं मिरी साँस रफ्ता,
तुझे रुख नुरानी दिखाना पड़ेगा।
तिरी आशिकी ने मुझे है रुलाया,
नक़ाबे वफ़ा को हटाना पड़ेगा।।
कहीं इश्क़ दिल से निकल ही न जाये,
तुझे ख़ास तरतीब लाना पड़ेगा ।।
तुम्हारे सिवा और चाहत नहीं है
तुझे भी दिल सुन लगाना पड़ेगा।।
नीलम शर्मा ✍️