Wednesday, October 30, 2019

सखी छंद HINDI POETRY


सखी छंद  
मानव जाति के १४ मात्रिक छंद जो कि कुल ९ हैं 
जिसमें से आज से आने वाले अगले पोस्ट तक हमलोग  सखी  छंद का अभ्यास कर रचना करेंगे जो निम्नलिखित हैं :-
क) कुल मात्रा १४ ,चरणान्त २२२(मगण) (गुरु गुरु गुरु) या १२२(यगण) (लघु गुरु गुरु) अनिवार्य
ख) दो-दो चरण परस्पर समतुकांत।
ग) १४ वीं मात्रा पर यति
घ) सहूलियत के लिये आप निम्न मापनी ले सकते हैं:-
१२२२ १२२२
२१२२ २१२२
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सखी छंद
चरणान्त १२२
देश जब भी जागता है , देख दुश्मन भागता है ।
आँख आगे जो उठाता , मृत्यु अपनी ही बुलाता ।।

हर तरफ जय गान देखो , देश का सम्मान देखो ।
होश भी है जोश भी है , जंग का उदघोष भी है ।।

नीर संचय कर रहे हैं , भू सुधा से भर रहे हैं ।
पेड़ पौधे मुस्कुराए , हैं कृषक भी गुनगुनाये ।।

अब फसल हैं लहलहाती , खेत हरियाली सुहाती ।
हैं सड़क भी चमचमाती ,स्वच्छता शोभा बढ़ाती ।।

अभय कुमार आनंद
विष्णुपुर बांका बिहार व
लखनऊ उत्तरप्रदेश
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सखी छंद 14 मात्रिक
पदांत 222 मगण वाचिक भार , सम चरण तुकांत।
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कहाँ जाऊँ बता दो ये जहाँ कोई मिले अपना ।
मुझे विश्वास इतना ही कभी पूरा सजे सपना।।
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खिले थे फूल बगिया में, वहीं थे शूल उस पथ में।
गया हूँ भूल पुष्पों को, मगर है वो चुभन हिय में।।
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सुनी है आज भी मैने, खनक पायल जहाँ टूटी।
खड़ा हूँ आज भी वैसे, जहाँ पर प्रीत थी छूटी।।
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जमी है धूल दर्पण पे, छवि धूँधली नजर आती।
रहो थामें मुझे प्रियतम, तुम्हारी याद तड़पाती।।
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मिलो खुल कर कभी हमसे, यही अविराज कहता है।
तुम्हारे साथ रहने से , हमेशा प्यार बढ़ता है।।
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अरविन्द चास्टा
कपासन, चित्तौड़गढ़ ,राज.

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सखी छन्द(14मात्रिक)
चरणान्त: यगण(122) फिर यति
परस्पर दो या चारों चरण समतुकांत


सुनो बात सखी कहूँ जो, गयी रात नहीं सकी सो।
सखा सोच समझ बनाना, नहीं प्रीत कहीं लगाना।

कि परदेश पिया हमारे, गए छोड़ बिना सहारे।
विरह अग्नि जलूँ मरूँ रे! सुनो पीड़ तुम्हें कहूँ रे।

मुझे युक्ति सखी बताओ, पिया संग मुझे मिलाओ।
प्रणय बंधन है पिया से,डरे है पगला जिया ये।

अरे भेज भतार पाती, लिखो जो मनवा सुहाती।
बड़ी दूर किया ठिकाना, नहीं और हृदय दुखाना।

करूँ निसदिन मैं प्रतीक्षा, मिलो आन अपार इच्छा।
सुनो साजन लौट आओ, नहीं और मुझे सताओ।

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सखी छन्द(14मात्रिक)
चरणान्त: मगण(222) फिर यति
परस्पर दो या चारों चरण समतुकांत


प्रेम मिलकर निभाएंगे, घर पिया का बसायेंगे।
सुरमई सांझ आयी है, प्रीत संदेश लायी है।

दुख बीते भुलायेंगे,साथ जीवन बिताएंगे।
रात दिन संग तेरा हो,हाथ में हाथ मेरा हो।

स्वप्न सुंदर सजायेंगे,हम नहीं अब सतायेंगे।
साथ मेरा नहीं छूटे,डोर प्रीतम नहीं टूटे।

राम जी हैं बने साक्षी,हम हुए प्रीत आकांक्षी।
मेहँदी हम रचाएंगे,नववधू रूप धारेंगे।

माँ पिता मिल विदा देंगे,धर्म अपना निभा देंगे।
हर सखी छूट जायेगी,याद सबकी रुलायेगी।

जितेंदर पाल सिंह

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सखी छ्न्द
14 मात्रा , चार चरण , दो दो या चारो चरण समतुकांत , अंत 222 या 122
यहां 122 लिया गया है

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लहराओ चलो तिरंगा ,चल लेकर ध्वज तुरंगा ।
पहले ये धर्म निभाओ,शहीद का मान बढ़ाओ ।
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चलो सजी लेकर थाली,दीपक जले स्नेह वाली।
तिलक सजे मस्तक रोली ,चली बहन की फिर टोली।
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आज भाई दूज आया,मन में फिर उमंग छाया।
भाभी भी खुशी मनाए ,सखी जैसी ननद पाए ।
......
करूं स्नेह वन्दन भैया,माथ लगा चन्दन भैया।
दूज पर्व पावन प्यारा,इसे मनाए जग सारा।
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सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज

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सखी छन्द 1222 1222 या 2122 1222 कहाँ जाऊँ बता मैया,कहाँ मेरा ठिकाना है। पराया धन मुझे कहते,विदा कर भूल जाना है। कहूँ कैसे तुझे माँ मैं,सताते हैं जलाते हैं। मिले लोभी मिले पापी,मुझे सारे रुलाते हैं। कभी कहते वहाँ जाओ,जहाँ से तू चली आई। भला कैसे चली जाऊँ,वहाँ फिर जिस गली आई। बनी है बोझ बेटी क्यों,जहाँ बेटा खजाना है। बना दस्तूर दुनिया का, हमें ये भी निभाना है।


रानी सोनी 'परी

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सखी छंद (14 मात्रा)
मापनी-1222 1222

कहाँ माँ को भुला पाते,हृदय से हम अभी साथी।
निवाला हाथ से खाते,अमिय पल थे कभी साथी।

सदा ही गीत हैं गाते, सुने थे जो सभी साथी।
सुखद अनमोल वे नाते,कि जीवित है तभी साथी।


बड़ी अनमोल थी लोरी,सुनाती थी हमेशा माँ।
मृदुल सम्बन्ध की डोरी,बनाती थी हमेशा माँ।
करे वो पीर की चोरी,हँसाती थी हमेशा माँ।
दिखा कर वह कभी छोरी,चिढ़ाती थी हमेशा माँ।

हृदय जो तोड़ते जाते,सदा दुख ही यहाँ पाते।
दुखी कर छोड़ते जाते,बददुआ ही यहाँ पाते।
सभी मुँह मोड़ते जाते,सजा प्रतिपल यहाँ पाते।
हृदय जो जोड़ते जाते,सफलता ही यहाँ पाते।

कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर
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सखी छंद- (14 मात्रिक छन्द)
चरणान्त- यगण ( लघु गुरू गुरू) 122

मत किसी का मन दुखाओ, प्रेम के बस गीत गाओ,

अब मिलन की छवि सजाओ, मीत बनकर पास आओ।।
तुम बुलाओ मैं रिझाऊँ, रूठ जाओ जब मनाऊँ,
बोलना मत दूर जाऊँ, पास जब तुमको बुलाऊँ।।

आग जीवन हो कि पानी, मृत्यु ने कब हार मानी,
बात क्यों करनी पुरानी, चल नई गढ़ दें कहानी।।

पुष्प हर्षित का खिलायें, द्वेष को हिय से मिटायें,
दीप चल ऐसा जलायें, इस धरा से तम भगायें।।

हम नदी के दो किनारे, एक दूजे के सहारे,
तुम रहो हर क्षण हमारे, हम रहें प्रतिपल तुम्हारे।।

@अशोक कुमार "अश्क चिरैयाकोटी"
चिरैयाकोट, जनपद - मऊ(उ0प्र0)भारत
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 सखी छन्द
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14 मात्रिक छन्द

अंत 222 (गुरु गुरु गुरु)
या 122( लघु गुरु गुरु) अनिवार्य
कुल चार चरण
दो दो या चारो चरण समतुकांत
शीर्षक- सुदामा कृष्ण

द्वारिका महल आये सुदामा, पूछत मधुसूदन धामा,
नाम सुनत मोहन धाए,देखत मित्र गले लगाए।

आसन सिंहासन बिठायो, देख हरिहर शीश झुकायो,
नैनन अश्रु सों चरण धोए,हाल मित्र देख प्रभु रोये।

पैर निज वस्त्र से सुखाए,दोस्त पद नैन से लगाये,
पोछत कान्हा पग छाले,पैर से कंटक निकाले।

पोटली छुपाय सुदामा,देखत कृष्ण मित्र अभिरामा,
पोटली प्रभु खींच लीन्ही,भावज मधुर भेंट दीन्ही।

दो मुठ्ठी भर मोहन खाये,तीसरी मुठिका उठाये,
रोक रुक्मणि कर मुस्काई, भावज सबको भिजवाई।

रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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