••••••••••नित छंद••••••••••••••
आदित्य जाति या वर्ण संज्ञा छंद है।
छंद 12 मात्रिक है। छंद के दो परस्पर चरण समतुकांत या चारों सम तुकांत होंगे।
इस जाति के 233 भेद हो सकते है।
इसके चरणांत में नगण (111) अथवा लघु गुरु (12) अनिवार्य रखकर रचना लिख सकते है ।
कथित अनुवार्यता को ध्यान में रखते हुए रचनाकार अपनी सुविधानुसार मापनी ले सकते है।
नित छंद
12 मात्रिक पदांत लघु गुरु
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आज तुझको दूँ भुला, फल मुझे जो है मिला।
विवशता की है घड़ी, आँसुओ की है लड़ी।।
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अब कहाँ पर प्रीत है, बिक चुके वो गीत है।
क्या यही बस रीत है, ये तुमारी जीत है।।
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देख कर मैं सोचता, केश अपने नोंचता।
क्या कमी बाकी रही, व्यर्थ ही विपदा सही।।
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याद है सौगन्ध वो, प्यार की मद गन्ध जो।
दे गई धोखा मुझे, याद हो शायद तुझे।।
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तीव्र वो बरखा जहाँ, रात कब ठहरी वहाँ।
खो गई वो बात भी, वो अँधेरी रात भी।।
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पृष्ट जो फाडे कभी, दी जला सब याद भी।
आह मन है भर रहा, हूँ खड़ा अब भी वहाँ।।
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तुम वही हो प्रियतमा, है मुझे अब भी गुमाँ।
अन बुझी सी प्यास हो, हाँ हृदय के पास हो।।
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✍अरविन्द चास्टा
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नित छंद
12 मात्रिक,अंत लगा=1 2 अनिवार्य ।
प्रेम पाश बांध चले, बीत राग सांझ ढ़ले।
रंग राज छोड़ दिया, ईश नेह मोह लिया।
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लोभ,क्रोध,मोह तले, बस जगत विहार पले।
प्रीति गीत आज सजे, रोग,शोक, काम तजे।
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जग गया विवेक जहां पल गया विमोह वहां।
पाप कर चला जितना, पुण्य तू कमा उतना।
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जन्म ले न ले अगला, तू चुका रहा पिछला।
कौन है यहां अपना, देखता निरा सपना।
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रोज सांझ बीत रही, रात की कुजीत खरी।
तेल संग दीप जले, अंध को सहेज तले।
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राज्यश्री सिंह
गुरुग्राम
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नित छंद.......
१२ मात्रिक छंद ,अंत (१२) या (१११) से अनिवार्य।
भ्रूण हत्या मत करो, भाग इसका मत हरो।
जान सस्ती क्यू लगे ? सोच न्यारी कब जगे?।
बात को समझो जरा, चीख जाएगी धरा।
वक्त मुट्ठी में नहीं, हार जाए तू कही।।
होती है बेटी परी, आन होती ये खरी।
ध्यान से जो सोचते, शान से तब बोलते।।
फूल आँगन में सजे, गीत पावन है बजे।
मोल बेटी का खरा, होय ये जीवन हरा।।
सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
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नित छ्न्द
12 मात्रा ,चार चरण , दो दो या चारो चरण समतुकांत , अंत 12 या 111 अनिवार्य
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राम जयति घोष हुआ , जय जय उदघोष हुआ ।
मस्तक अभिषेक हुआ , राज्य सकल एक हुआ ।
....
एक वर्ष मात कहां, प्रश्न किया घात वहां।
शब्द जहर बोल गया, बात हिये खोल गया।
.......
राज्य अवध कांप गया, सीता परित्याग किया।
राम प्रिये रोय रहीं , मात विकल होय रहीं।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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नित छन्द
चरणान्त: लघु गुरु(12)
दो चरण परस्पर समतुकांत या चारों समतुकांत
12 मात्रिक
नैनन नीर तब बहे, बोल कटु मुझे कहे।
चौखट पर खड़े खड़े, माँग दहेज पर अड़े।
बाँह छुड़ा चले पिया, ब्याह दहेज से किया।
लालच मन बड़ा चला, प्रेम नहीं मुझे छला।
स्वार्थ भरे चलें सभी, लोभ रचे बसे तभी।
मेल ह्रदय बना नहीं, लूट मचे मिले कहीं।
पारब्रह्म करे भला, सत्य मुझे पता चला।
त्याग दहेज या मुझे, बात सुनो कहूँ तुझे।
वस्तु नहीं बनूं कभी, प्रेम निस्वार्थ हो तभी।
हाथ पकड़ चलूँ अभी, लाज सहेज लो सभी।
जितेंदर पाल सिंह
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नित छंद
12 मात्रिक पदांत लघु गुरु
विषय : बेटी की व्यथा
माँ तुम क्या सोचती , मन को व्यर्थ कौसती ,
अब सोचो न तुम यही , बेटी अब रहे सही ।
अत्याचार क्यो करे , मन में रोष क्यो धरे ,
अपनी सोच हो खरी , बेटी है सदा परी।
माँ यूँ आज साथ दो , जीवन राह हाथ दो ,
मन कोई न खोजता , जग में कौन सोचता ।
माँ तुम ही सखी रहो , दुख अब क्यों यहाँ सहो ,
बेटी अब सदा सुखी , घर में हो सदा खुशी
रजिन्दर कोर (रेशू)
अमृतसर
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नित छंद
12 मात्रिक पदांत लघु गुरु
विषय : बेटी की व्यथा
माँ तुम क्या सोचती , मन को व्यर्थ कौसती ,
अब सोचो न तुम यही , बेटी अब रहे सही ।
अत्याचार क्यो करे , मन में रोष क्यो धरे ,
अपनी सोच हो खरी , बेटी है सदा परी।
माँ यूँ आज साथ दो , जीवन राह हाथ दो ,
मन कोई न खोजता , जग में कौन सोचता ।
माँ तुम ही सखी रहो , दुख अब क्यों यहाँ सहो ,
बेटी अब सदा सुखी , घर में हो सदा खुशी
रजिन्दर कोर (रेशू)
अमृतसर
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नित छन्द
चरणान्त: नगण(111)
दो चरण परस्पर समतुकांत या चारों समतुकांत
12 मात्रिक
कर लूँ बंद मैं पलक, अश्रु जाएं नहीं छलक।
मन में पीड़ है बहुत, दुख में मैं रहूँ प्रयुत।
अब ताने कसे जगत, प्रिय तूँ जो नहीं मिलत।
विरहा अग्नि में जलत, मन मेरा नहीं लगत।
जब से हम हुए पृथक, तब से मन रहा भटक।
मुझपर थी तनी भृकुटि, बिन किसी भतारत्रुटि।
कुछ हमसे हुआ उलट, फिर कैसे रहें निकट।
घर की जब बढ़ी कलह, बिखरे सबमिटानिलय।
कुछ तुम भी करो जतन,अपना हो पुनः मिलन।
मिट जाएं सभी भरम, मिलकर हों सुखी परम्।
जितेंदर पाल सिंह
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