आदित्य जाति या वर्ण संज्ञा छंद है।सभी छंद 12 मात्रिक है। छंदो के दो परस्पर चरण समतुकांत या चारों सम तुकांत होंगे।
इस जाति के 233 भेद हो सकते है।
इसके चरणांत में गुरु लघु (२१) अनिवार्य है । कथित अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए रचनाकार मापनी सुविधानुसार
१२ मात्रिक छंद, अंत में गुरु लघु (२१) अनिवार्य,
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बरखा तेरी फुहार, तन-मन करती प्रहार।
प्रियतम मद में अधीन, रैना होवे विलीन।।
लागे जीवन विरक्त, जब तन होते विभक्त।
भावों में हो उछाल, मन में छाए मलाल।।
बंधे कैसे सुभाग, नातों में जब सुराग।
श्यामल नभ सी दबंग, बिजली कौंधे मलंग।।
ज्वाला भड़के अकाल, प्यासा मन है निहाल।
कोमल मन है अबोध, मत कर बरखा विरोध।।
सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
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12 मात्र पदांत गुरु लघु 21
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आओ यहाँ पे आज, देखो बजे हैं साज।
मन में नही हो द्वेष, मिट जाय सारे क्लेश।।
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विधना दिया उपहार, करती धरा श्रृंगार।
दिखते सभी हैं रंग, रहते सभी मिल संग।।
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फौजी बढ़ाये मान, निज देश का सम्मान।
हमसे सदा है प्यार, करते बड़ा उपकार।।
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जो ले सकें आशीष, आओ झुकायें शीश।
माँ भारती को आज, बिगड़े बने सब काज।।
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मन में यही है आस, हमको यही विश्वास।
छू ले शिखर ये देश, है शांति का सन्देश।।
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✍अरविन्द चास्टा
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मात्रिक छंद
तोमर छंद
पदांत गुरु लघु २१
विषय - प्रेम रस
मतवाली हो किताब , सुंदर सा हो गुलाब ,
होती चुपचाप बात , आँखों में काट रात ।
चंचल मन करत शोर , यौवन कब चलत जोर ,
आती कब रात नींद , सपनों में प्यार दीद ।
मन में रहता सवाल , अंदर कुछ है बवाल ,
कोई देता न साथ , कोई पकड़े न हाथ ।
सब लगते है पराय , कोई भी ना सुहाय,
मन में जब प्रेम आय , सुध बुध सब व्यर्थ जाय ।
रजिन्दर कोर (रेशू)
अमृतसर
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तोमर छन्द
इसके चरणान्त में गुरु लघु (21) अनिवार्य है।
दो या चारों चरण परस्पर समतुकांत।
12 मात्रिक
लूट लूट खाय देश, बैंक भर रहा विदेश।
देशद्रोह के समान, तंगहाल नौजवान।
मर रहा किसान देख, भाग्य का कुरूप लेख।
साधु बन गए प्रकांड, नित करें नवीन कांड।
जन्म दे किया अनाथ, पाल सुता प्रेम साथ।
पाप कर्म छोड़ जाग, मत लगा कलंक भाग।
राजनीति का कलेश, किस दिशा चलाय देश।
हो रहे सभी निराश, याद आ रहे सुभाष।
देश को किया अभेद, मर रहे जवान खेद।
जल रही अखंड ज्योति, देश प्रेम ओतप्रोत।
जितेंदर पाल सिंह
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आदित्य जाति का छंद
*तोमर*
12 मात्रिक छंद
अंत 21 अनिवार्य
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तोमर छंद
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रूप का बनाव लाज, प्रीत का मिलान आज।
छेड़ के बसंत राग, गा रही पवन सु-राग।
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कर रहे गगन विहार, खग सभी धरा निहार।
ले रहीं किरण विस्तार, रोकती तिमिर प्रसार।
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कर रहे मधुर सु-पान, दे रहे कुसुम सु-मान।
खिल गई नई सुप्रीति, मिट गई सभी अनीति।
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हो रहा नया प्रभात, भेद कर सुरा निशात।
बन गए सभी सनाथ, रात भर रहे अनाथ।
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खग उड़े पसार पंख, बज उठे सुनाद शंख।
झूमते चले मतंग, छुप गए सभी पतंग।
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राज्यश्री सिंह
शब्दार्थ------बसंत राग --राग का प्रकार
सु - राग ---सुरीला राग
मतंग -हाथी
पतंग -दीपक पर रहने वाले कीड़े।
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तोमर छंद
12 मात्रिक पदांत गुरु लघु 21
विषय- "माता-पिता"
माँ-बाप के उपकार, देते हमें उपहार।
सेवा करें हम आज, जीवन मिले तब ताज।
माँ से बने परिवार, विष्णु पिता अवतार।
माँ शब्द है अहसास, तो बाप शब्द है खास।
नूतन रचे इतिहास, सपना दिखे जब खास।
मिलता जगत सम्मान, शुभ फल मिले परिणाम।
माँ का मिले आशीष, पग पे झुका दो शीश।
माता-पिता का हाथ, रखना सदा तू साथ।
बूढ़े हुए माँ -बाप, समझो वचन ये आप।
पा जिन्दगी में प्यार, रह माँ जिगर में यार।
रंजना सिंह "अंगवाणी बीहट"
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तोमर छ्न्द
चार चरण ,दो दो या चारो चरण समतुकांत
12 मात्रा अंत 21
खूब किया यहां साज , नगर यह प्रयागराज ।
लगता यहां जब कुुम्भ, आते अनेक कुटुम्ब।
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नित गंगा का बखान, है मुक्ति का रस पान।
कहे ये वेद पुराण , होता यहां कल्याण।
सिम्पल काव्यधारा ,प्रयागराज
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तोमर छन्द
12 मात्रिक छन्द
चरणान्त गुरु लघु (21) अनिवार्य
दो दो या चारो चरण समतुकांत
गूँज उठी जय जयकार, टूट गया धनु शुभकार।
पूर्ण हुआ जनक काज, बाज उठा सुखद साज।
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शुभ बरसे गगन फूल, लाल गुलाल की धूल।
बाजत सुमधुर मृदंग, राह भरे नवल रंग।
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प्रीत सुप्रीत सिय राम, पावन भू- जनक धाम।
नैन भरे जलज नीर, जनक मिटी सकल पीर।।
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रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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तोमर छंद
(१२ मात्रिक, अंत २ १ )
जुड़ी भावों की डोर । बसे तुम थे हृद कोर ।।
पले क्यों ये अंगार । बने हम है लाचार ।।
जगत में दे दृष्टांत। किया वाणी से क्लांत।।
रहे तुम होकर मौन। प्रिया समझे!हो कौन।।
सखा तुम हो आधार। न तजना मम मझधार ।।
नही बढ़ती डग चार । बिना तेरे लाचार ।।
बिना बोले है प्रीत । रही उनमें भी जीत।।
परे जग का व्यवहार मनाती हूँ मैं प्यार।
मृदुल रख अंतस भाव । सजा सपने भर चाव।।
सुनेगा हां प्रभु मान। सफल होगा तू जान ।।
ललिता
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तोमर छंद
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१२ मात्रिक छंद
अंत २१ (गाल गुरु- लघु)
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काश वो आती पास, दर्द बन छलते आस।
शूल बन जलते खास, स्याह होती तब रास।।
नींद से जागी जात, सोइ थी आधीरात।
पाश बांधी थी डाल, फांद आई थी जाल।।
काल था आया द्वार, मांगती नित जो हार।
पूछती छवि हिय आप, खोजती नित तन पाप।।
वो निशानी थी मेह, जो निभाई थी नेह।
रूप बदले छाई न, जो किसी से पाई न ।।
शाद हो अपना नाम, याद हो सबका काम।
रागिनी अलसायी राह, बंदगी भरमाई थाह।।
विनीता सिंह "विनी"
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