Wednesday, October 9, 2019

भव छंद ११ मात्रिक छंद Hindi poetry


🌼जय माँ शारदे🙏🏻🌼


छंदों की कार्यशाला में सबका स्वागत है ।

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आज जिन छंदों का अध्ययन हम करेंगे, वे रौद्र वर्ण संज्ञा या जाति के छंद हैं। और इनके १४४ भेद हो सकते हैं। ये सभी ११ मात्रिक छंद हैं।


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इस छंद के चरणान्त में गुरु(२) अथवा यगण(१२२) को अनिवार्य करके छंद रचना कर सकते हैं:--

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भव छंद
पदांत गुरु अनिवार्य

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इस प्रणय की छाया, सुख जगत में पाया।
मुग्ध हो कर आया, पान मधुरस भाया।।
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भूल फिर से कर ली, फूल पाँखी चुन ली।
तप्त तन मन सोया, तेज को है खोया।।
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कौमुदी बन बरसी, स्वेत स्निग्धा तरसी।
कूक कोयल बानी आर्त कोमल जानी।।
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है छटा की रातें, नव रसी सौगाते।
गान है जीवन का, मान है प्रीतम का।।
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भव लिखूं तो करनी, सत्य सागर तरणी।
श्याम की ही राधा, दूर हो भव बाधा।।
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 अरविन्द चास्टा

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भव छ्न्द
इसमें 11 मात्रा ,चार चरण दो दो या चारो समतुकान्त , अंत गुरु 2 अनिवार्य
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आज मन हरषाया , राम गुण जब गाया।

काल डर कर भागे, राम धुन जब लागे।

छोड़ कर ‌सब माया , तोड़ कर सब आया ।

प्रेम हिय बरसाओ , क्रोध तम बिसराओ।

लोभ तन अब छोड़ो , धाम हरि मुख मोड़ो ।

राम हिय जब भाया, ज्ञान तब मन पाया ।

सोच कर कुछ बोलो , प्रेम रस हिय घोलो ।

राम रट जब लागी, आज बन अनुरागी ।

सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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भव छंद
11 मात्रिक छंद
अंत में गुरु या यगण अर्थात122 अनिवार्य हैं।

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रात-दिन और मनु******
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रात आज सजाई, चांद ज्योति बिछाई।

नींद में तरुणाई, ऑख में अरूणाई।
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फूल बन खिलते थे, शूल बन चुभते थे।

कुछ सपन अविवेकी, वंचना अभिषेकी।
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देखता नभ सारा, देख कर जब हारा।

लग रहा भव सूना, दुख भरा अब दूना।
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4*बीतती रजनी थी, धूप भी वजनी थी।

छट गया तम सारा, डूबता हर तारा।
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भोर भी तप लाई, बन तपिश अब आई।

जल रहा तन सारा, मनु मगर कब हारा।
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छांव तक जब बैठा, हार कर उठ बैठा।

बन पथिक चलता था, राह खुद चुनता था।
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राज्यश्री सिंह,गुरुग्राम
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भव छंद
इस छंद के चरणान्त में गुरु(2)
11 मात्रिक


सांझ ढली हे! पिया, आंगन जलता दिया।
सोच सताती मुझे, पास बुलाती तुझे।

बिरहन बन के रहूँ, प्रेम तुझी से करूँ।
तुझ बिन कैसे रहूँ, पीड़ किसे जा कहूँ।

इक चिठिया भेज दे, कौन बसा देश रे!
भगवन पी से मिला, या सुन मुझको उठा।

नित घबराए जिया, भूल गए हैं पिया।
रात बहुत मैं जगी, आँख नहीं थी लगी।

आहट हुई है लगा, द्वार बजी कुंडिका।
देख पिया उर लगी, शांति जिया तब मिली।

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भव छंद
इस छंद के चरणान्त में यगण(122)
=11 मात्रिक


करे खेल निराला, विधाता रखवाला।
कहीं लोग हँसाये, कभी देत रुलाये।

सभी जन प्रतिपालो, मुझे दास बना लो।
हमें तुम अपनालो, कटें पाप निकालो।

बने सुखमय आत्मा, तुम्हीं से परमात्मा।
रखो लाज हमारी, हमें प्यास तुम्हारी।

तुम्हीं से सुख सारे, तुम्हीं नाथ हमारे।
हुआ जीवन निराशा, तुम्हीं से सब आशा।

गुरू संग मिलाये, कहे जो अपनाये।
मिला नाम तुम्हारा, हुआ अब छुटकारा।

जितेंदर पाल सिंह

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