Explained By Smt Simpal kavyadhara ji Prayagraj (U.P.)
विजाति छ्न्द
नमन साहित्य अनुरागियों ....
बहुत ही हर्ष हो रहा है कि साहित्य अनुरागी ने हमें इस योग्य समझा कि, मैं सिम्पल काव्यधारा प्रयागराज से , आप लोगों के समक्ष अभ्यास व रचना हेतु छ्न्द प्रस्तुत करूँ।
हम मानव वर्ण संज्ञा अथवा जाति के छंदों पर अभ्यासरत होंगे। इस जाति के अंतर्गत 9 छन्द आते हैं, ये सभी छन्द 14 मात्रिक छन्द हैं। प्रत्येक छन्द में चरणान्त के प्रथक नियम हैं। जो निम्नलिखित हैं:---
1.विजाति छन्द--14 मात्रा , आदि लघु (1) अनिवार्य।
मापनी इस प्रकार 1222 1222
दो अथवा चारों चरण परस्पर समतुकांत।
...........
उदाहरण हेतु अपनी रचना प्रस्तुत कर रहे हैं ।
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महल ऊंचे बनाते थे, बनाकर फिर गिराते थे।
सजाते थे महल सारे , कहां हिम्मत कभी हारे
सजाते थे महल सारे , कहां हिम्मत कभी हारे
......
कभी तब दुख न होते थे , नहीं आंखें भिगोते थे ।
कहीं अब खो गया बचपन , बड़े जब से हुए हैं हम ।
......
अकारण ही झगड़ते थे , अकारण ही बिगड़ते थे ।
नहीं कोई कभी अरि था , सभी के मन बसा हरि था।
कभी तब दुख न होते थे , नहीं आंखें भिगोते थे ।
कहीं अब खो गया बचपन , बड़े जब से हुए हैं हम ।
......
अकारण ही झगड़ते थे , अकारण ही बिगड़ते थे ।
नहीं कोई कभी अरि था , सभी के मन बसा हरि था।
सिम्पल काव्यधारा प्रयागराज
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विजात छंद(14मात्रिक)
मापनी-1222 1222
गीत
मुखड़ा
दुखों की मैं विपुलता हूँ। विरह में रोज जलता हूँ।।
अंतरा-01
सदा ही साथ हो तेरा। विलय तुझमें हृदय मेरा।
कदाचित सांझ ढलता हूँ। विरह में रोज जलता हूँ।।
अंतरा-02
कटे कटती नहीं रातें। प्रिये वो प्यार की बातें।
हृदय उठती विकलता हूँ। विरह में रोज जलता हूँ।।
अंतरा-03
नयन दिन-रैन रोते हैं। उनींदी नींद सोते हैं।
सदा करवट बदलता हूँ। विरह में रोज जलता हूँ।।
अंतरा-04
मुझे तुम भूल मत जाना। सदा दिल में शुभे आना।
प्रणय की राह चलता हूँ। विरह में रोज जलता हूँ।।
अंतरा-05
जगत बैरी हुआ अपना। अधूरा ही रहा सपना।
दृगों की मैं तरलता हूँ। विरह में रोज जलता हूँ।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर
मापनी-1222 1222
गीत
मुखड़ा
दुखों की मैं विपुलता हूँ। विरह में रोज जलता हूँ।।
अंतरा-01
सदा ही साथ हो तेरा। विलय तुझमें हृदय मेरा।
कदाचित सांझ ढलता हूँ। विरह में रोज जलता हूँ।।
अंतरा-02
कटे कटती नहीं रातें। प्रिये वो प्यार की बातें।
हृदय उठती विकलता हूँ। विरह में रोज जलता हूँ।।
अंतरा-03
नयन दिन-रैन रोते हैं। उनींदी नींद सोते हैं।
सदा करवट बदलता हूँ। विरह में रोज जलता हूँ।।
अंतरा-04
मुझे तुम भूल मत जाना। सदा दिल में शुभे आना।
प्रणय की राह चलता हूँ। विरह में रोज जलता हूँ।।
अंतरा-05
जगत बैरी हुआ अपना। अधूरा ही रहा सपना।
दृगों की मैं तरलता हूँ। विरह में रोज जलता हूँ।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर
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छंद का नाम :- विजात छंद
छंद का विधान:- विजात छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 222 वाचिक भार होता है, 1,8 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है।
1222 1222
सुनो तुमको बताती हूँ, बड़ा जिनको सताती हूँ
1
जिसे देखा नही पहले, मिले आकर यहीं बहने,
हमें अपना बनाती है, गले से भी लगाती है।
कहूँ में क्या भला उनको, लगाया था गले जिनको।
2
हमेशा खिलखिलाते है, हँसी हमपर,लुटाते है,
हमे गुरुवर सदा कहते, नयन जल धार फिर बहते
सदा मैं हक जमाती हूँ, बड़ा उनको,सताती हूँ।
3
बड़ी लगती,हमें प्यारी, बड़ी दिदिया,लगे न्यारी,
गुलाबी गाल है इनमे, व नागिन बाल है जिनके।
रुठे वो तो मनाती हूँ, बड़ा उनको,सताती हूँ।।
4
कहो उपहार क्या दूँ मैं, बला तेरी उतारूँ मैं,
निभाना साथ तुम मेरा, रहें यूँ हाथ सर तेरा।
जहाँ मैं आ न पाती हूँबड़ा उनको सताती हूँ।
रानी सोनी"परी
छंद का विधान:- विजात छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 222 वाचिक भार होता है, 1,8 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है।
1222 1222
सुनो तुमको बताती हूँ, बड़ा जिनको सताती हूँ
1
जिसे देखा नही पहले, मिले आकर यहीं बहने,
हमें अपना बनाती है, गले से भी लगाती है।
कहूँ में क्या भला उनको, लगाया था गले जिनको।
2
हमेशा खिलखिलाते है, हँसी हमपर,लुटाते है,
हमे गुरुवर सदा कहते, नयन जल धार फिर बहते
सदा मैं हक जमाती हूँ, बड़ा उनको,सताती हूँ।
3
बड़ी लगती,हमें प्यारी, बड़ी दिदिया,लगे न्यारी,
गुलाबी गाल है इनमे, व नागिन बाल है जिनके।
रुठे वो तो मनाती हूँ, बड़ा उनको,सताती हूँ।।
4
कहो उपहार क्या दूँ मैं, बला तेरी उतारूँ मैं,
निभाना साथ तुम मेरा, रहें यूँ हाथ सर तेरा।
जहाँ मैं आ न पाती हूँबड़ा उनको सताती हूँ।
रानी सोनी"परी
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विजात छंद
१२२२ १२२२
दुखों को रोज हूं सहती । कहानी एक हूं कहती ।।
अधूरी चाहतें जीती । गरल प्याले सदा पीती।।
सपन होते सुहाने थे। कभी उसके जमाने थे।।
रही सब छोर से रीती। दिवस बीते निशा बीती।।
तके वो राह दिन रैना । थके बोझिल द्वय नैना।।
बसे है कंत चाहों में । न दिखता अंत आहों में।।
करूँ विनती सुनो सजना । पधारो आज तो अँगना।।
चरण रज को पखारूँगी । नयन भर कर निहारूँगी।।
दिशा सारी महक जाए । तनिक आहट अगर पाए।।
मधुर ऐसा समय पाऊं। सजन आये सँवर जाऊं।।
ललिता
१२२२ १२२२
दुखों को रोज हूं सहती । कहानी एक हूं कहती ।।
अधूरी चाहतें जीती । गरल प्याले सदा पीती।।
सपन होते सुहाने थे। कभी उसके जमाने थे।।
रही सब छोर से रीती। दिवस बीते निशा बीती।।
तके वो राह दिन रैना । थके बोझिल द्वय नैना।।
बसे है कंत चाहों में । न दिखता अंत आहों में।।
करूँ विनती सुनो सजना । पधारो आज तो अँगना।।
चरण रज को पखारूँगी । नयन भर कर निहारूँगी।।
दिशा सारी महक जाए । तनिक आहट अगर पाए।।
मधुर ऐसा समय पाऊं। सजन आये सँवर जाऊं।।
ललिता
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विजात छन्द
आदि में लघु अनिवार्य
14 मात्रिक छन्द, दो अथवा चारों चरण समतुकांत।
चल कहीं दूर मन मेरे,मिल जहाँ जाँय प्रभु तेरे।
सकल झूठा जगत लेखा,कपटधारी फलत देखा।
उपज बैराग मन आया,जिधर देखूं उधर माया।
मिलत सम्मान धन पाया,ह्दय निर्धन जन दुखाया।
मरत भूखे बहुत निर्धन,कृषक मरते करत रूदन।
हरि रचाई जगत लीला,जग पथिक मार्ग पथरीला।
सदगुरू मार्ग दिखलाये,दरस प्रभु प्यास जग जाये।
जपत हरि नाम सुख पाए,सुगम यह मार्ग समझाये।
मरण सत है असत काया,जिधर देखूं हरि समाया।
समझ आयी अमर आत्मा,दरस दिन रैन परमात्मा।
जितेंदर पाल सिंह
2
विजात छंद
(करुण रस) स्थायी भाव: शोक
आदि लघु अनिवार्य
गीत:
मुखड़ा
लगेंगे श्वास जब थकने,चलूँगा प्राण तज अपने।
अंतरा
कि ऐसी रात आएगी,मुझे ऐसा सुलायेगी।
नहीं देखूं कभी सपने,चलूँगा प्राण तज अपने।....टेक
अंतरा
कि आयेंगे सभी बैरी,लिए मन में हँसी गहरी।
दिखावा शोक का करने,चलूँगा प्राण तज अपने।
अंतरा
मुझे नहला सजायेंगे,सभी अर्थी उठायेंगे।
लगेगी तब चिता जलने,चलूँगा प्राण तज अपने।
अंतरा
बने अब राख तन ढेरी,मरण ही है वधू मेरी।
बनाया घर नया प्रभु ने,चलूँगा प्राण तज अपने।
जितेंदर पाल सिंह
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विजात मापनी 1222 1222 विषय :-विरह गीत रस :- शृंगार रस( वियोग)स्थाई भाव रति
(मुखड़ा)
मुझे उसने रुलाया है।बहुत ये मन दुखाया है।।
(अन्तरा 1)
मुझे तो प्यार था, जिससे।मिला संताप ही, उससे।
उसी को मानती थी मैं।उसी को पूजती थी मैं।।
किया उसने पराया है।बहुत ये मन दुखाया है।। (टेक)
( अन्तरा 2)
नहीं भाती , मुझे वर्षा।रही यह और भी, तरसा।
प्रिये से मिल नहीं पायी।सजन की याद है आयी।।
वही हिय में समाया है।बहुत ये मन दुखाया है।।(टेक)
( अन्तरा 3)
लगे हर रात, नागन सी।नहीं लगती सुहागन सी।
अकेली जी नहीं पाऊँ।दुखों में डूब, मर जाऊँ।।
सपन कैसा सजाया है?बहुत ये मन दुखाया है।।( टेक)
(अन्तरा 4)
मुझे इक बार वो मिल लें।खिलें फिर फूल इस उर में।
रखूँ इच्छा यही जिन्दा।गले हो बाँह का फन्दा।।
बड़ा उसने सताया है।बहुत ये मन दुखाया है।।
रागिनी गर्ग
रामपुर( यूपी )
------------------------------------------
14 मात्रिक विजात छंद
मापनी
1222, 1222
*******************
मुखड़ा**
सखी कैसे कहूं दिल की,मिटे कैसे अगन मन की।
अंतरा**
पिया मुझसे रहें रूठे,दिखा सपने मुझे झूठे।
बरस ये दृग हुए रीते,मिलन के दिन सभी बीते।
नहीं कोई खबर उनकी,मिटे कैसे अगन मन की।
अंतरा****
जला दीपक निहारूं मैं,पिया का मुख सवारूं मैं।
सजा दीपक जली बाती, दिखाती लौ बढ़ी जाती।
नहीं समझें पिया मन की।।, मिटे कैसे अगन मन की।
अंतरा****
बहारें भी चिढातीं हैं,दिखा रंगत सतातीं हैं।
हवाओं ने रिझाया है,अभी आंचल हिलाया है।
सखी आंखें सजन पथ की,मिटे कैसे अगन मन की।
अंतरा****
बुलाते हैं भ्रमर मुझको,गुलाबों सा समझ मुझको।
इशारे कर रहीं कलियां,बलम भूले वही गलियां।
जली आशा दुखी तन की,मिटे कैसे अगन मन की।
राज्यश्री सिंह
स्वरचित मौलिक रचना।
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छंद का नाम :- विजात छन्द
छंद का विधान:- प्रत्येक चरण 14 मात्राएँ,1, 8 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य , आदि लघु से, अंत 222
वाचिक भार
मात्रा भार : 1222 1222
**********************
शीर्षक:- प्रिये
छंद/- विजात
--------
कटीले नैन हैं तेरे, सजीली रैन के घेरे।
प्रणय पल मीत बन जाओ, प्रिये बाँहे भरूँ आओ।।
----------
खिली हो चाँदनी जैसी, सुवासित कामिनी वैसी।
घटा से केश बिखराओ, जरा सा पास तो आओ।।
सुहानी रात महकाओ, प्रिये बाँहें भरूँ आओ।।
-----------
रसीली रागिनी रातें,हमारे प्यार की बातें।
सुरा मद नैन छलकाना, भिंगो दो मेध बन छाना।
मुदित मन प्रीत भर जाओ, प्रिये बाँहें भरूँ आओ।।
-----------
नशीले नैन में खोना, दिलों में चैन का होना।
मिटे दूरी न शरमाना, सुरीली तान बन जाना।।
मुझे मदहोश कर जाओ प्रिये बाँहें भरूँ आओ।।
-----------
सितारे चाँद से साथी, जले जैसे दिया बाती।
वलय तुम आज खनकाना, मिलन संगीत भर जाना।
मदन मन मीत बन जाओ, प्रिये बाँहें भरूँ आओ।।
रचनाकार
- डॉ नीरज अग्रवाल
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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छंद का नाम :- विजात
छंद का विधान:- प्रत्येक चरण 14 मात्राएँ,1, 8 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य , आदि लघु से, अंत 222
वाचिक भार
मात्रा भार : १२२२ १२२२
विषय :- प्रेम का प्याला
रस :- संयोग शृंगार रस
मुखड़ा
गजब जादू किया बाला , हुआ मैं मस्त मतवाला ।
अंतरा १
नयन से वारुणी दहकी, नशे में रात भी बहकी ।
अधर की थी छुवन ऐसी , अगन की हो तपन जैसी।।
गले में हाथ की माला , हुआ मैं मस्त मतवाला ।। टेक
अंतरा २
कभी होता नहीं है गम , कि जब तू साथ हो हमदम ।
तुम्हारा रूप यूँ झलके , कि आई अप्सरा चलके ।।
प्रभू ने देख के ढाला । हुआ मैं मस्त मतवाला ।।
अंतरा 3
हुआ मुस्कान का कायल , अभय का दिल हुआ घायल।
सजा दूँ मांग मैं तेरी , तुम्हीं जीवन प्रिये मेरी ।।
मिला मधु से भरा प्याला । हुआ मैं मस्त मतवाला ।।
अभय कुमार आनंद
बांका बिहार व
लखनऊ उत्तरप्रदेश
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विजात छन्द (14 मात्रिक
मापनी 1222,1222
पदान्त---में
समान्त---आली
विधा---गीतिका
अमावस रात काली में। जले दीपक दिवाली में।1
बिका जीवन मगर देखो, रुका सौदा दलाली में।2
खुशी का पर्व आया है, सजाओ दीप थाली में।3
दिलों को जीतकर देखो, लगे है प्यार गाली में।4
किरण छूकर सुमन खिलते नया उत्साह आली में।5
आली-- भ्रमर
अंशु विनोद गुप्ता
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विजात छंद (14 मात्रिक छन्द-आदि लघु अनिवार्य)
****** ****** ******
समय ने जब सताया है, हुआ अपना पराया है,
यहाँ जो सच दबाया है,असत उसने बढ़ाया है।।
बुरा हूँ मैं कहा कैसे,तुम्हें ऐसा लगा कैसे,
तुम्हारे बिन बता कैसे,रहूँ जीवित भला कैसे।।
यहाँ दीपक जलाओ तुम,अँधेरा सब मिटाओ तुम,
दुखी मन को हँसाओ तुम,सभी से हिय मिलाओ तुम।।
न पीछे पग हटायेंगे,सदा आगे बढ़ायेंगे,
घुसे अरि को भगायेंगे,लहू उसका बहायेंगे।।
भले हो तुम दिखाना है,कई रिश्ते निभाना है,
यही जीवन बिताना है,यहाँ किसका ठिकाना है।।
@अशोक कुमार "अश्क चिरैयाकोटी"
चिरैयाकोट, जनपद-मऊ(उ0प्र0)भारत
दि0-02/11/2019
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विजात छंद ........१४ मात्रिक छंद,आदि और ८ वी मात्रा लघु ,
मापनी...१२२२ १२२२
(मुखड़ा)
सजन की याद तड़पाती, कसक उर में जगा जाती।
(अंतरा) १
सभी को छोड़ के आई,पिया के नेह में छाई।
सुरीला राग मन मोहे,मधुर सरगम मुझे सोहे।
कभी मन में सिहर आती,कसक उर में जगा जाती।
२
लगूँ गजगामिनी सी मैं,चमकती दामिनी सी मैं।
मुझे कब भूल सकता तू ,खयालों में सिमटता तू।
लिखूँ मैं प्रेम की पाती,कसक उर में जगा जाती।
3
अधर की प्यास बढ़ जाए,मिलन के गीत ये गाए।
कभी ये पास लाती है,कभी धड़कन बढ़ाती है।
अगन ज्वाला नहीं भाती,कसक उर में जगा जाती।
........सुवर्णा परतानी.......
.......... हैदराबाद...........
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विजात छन्द
आदि में लघु अनिवार्य
14 मात्रिक छन्द, दो अथवा चारों चरण समतुकांत।
चल कहीं दूर मन मेरे,मिल जहाँ जाँय प्रभु तेरे।
सकल झूठा जगत लेखा,कपटधारी फलत देखा।
उपज बैराग मन आया,जिधर देखूं उधर माया।
मिलत सम्मान धन पाया,ह्दय निर्धन जन दुखाया।
मरत भूखे बहुत निर्धन,कृषक मरते करत रूदन।
हरि रचाई जगत लीला,जग पथिक मार्ग पथरीला।
सदगुरू मार्ग दिखलाये,दरस प्रभु प्यास जग जाये।
जपत हरि नाम सुख पाए,सुगम यह मार्ग समझाये।
मरण सत है असत काया,जिधर देखूं हरि समाया।
समझ आयी अमर आत्मा,दरस दिन रैन परमात्मा।
जितेंदर पाल सिंह
2
विजात छंद
(करुण रस) स्थायी भाव: शोक
आदि लघु अनिवार्य
गीत:
मुखड़ा
लगेंगे श्वास जब थकने,चलूँगा प्राण तज अपने।
अंतरा
कि ऐसी रात आएगी,मुझे ऐसा सुलायेगी।
नहीं देखूं कभी सपने,चलूँगा प्राण तज अपने।....टेक
अंतरा
कि आयेंगे सभी बैरी,लिए मन में हँसी गहरी।
दिखावा शोक का करने,चलूँगा प्राण तज अपने।
अंतरा
मुझे नहला सजायेंगे,सभी अर्थी उठायेंगे।
लगेगी तब चिता जलने,चलूँगा प्राण तज अपने।
अंतरा
बने अब राख तन ढेरी,मरण ही है वधू मेरी।
बनाया घर नया प्रभु ने,चलूँगा प्राण तज अपने।
जितेंदर पाल सिंह
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विजात मापनी 1222 1222 विषय :-विरह गीत रस :- शृंगार रस( वियोग)स्थाई भाव रति
(मुखड़ा)
मुझे उसने रुलाया है।बहुत ये मन दुखाया है।।
(अन्तरा 1)
मुझे तो प्यार था, जिससे।मिला संताप ही, उससे।
उसी को मानती थी मैं।उसी को पूजती थी मैं।।
किया उसने पराया है।बहुत ये मन दुखाया है।। (टेक)
( अन्तरा 2)
नहीं भाती , मुझे वर्षा।रही यह और भी, तरसा।
प्रिये से मिल नहीं पायी।सजन की याद है आयी।।
वही हिय में समाया है।बहुत ये मन दुखाया है।।(टेक)
( अन्तरा 3)
लगे हर रात, नागन सी।नहीं लगती सुहागन सी।
अकेली जी नहीं पाऊँ।दुखों में डूब, मर जाऊँ।।
सपन कैसा सजाया है?बहुत ये मन दुखाया है।।( टेक)
(अन्तरा 4)
मुझे इक बार वो मिल लें।खिलें फिर फूल इस उर में।
रखूँ इच्छा यही जिन्दा।गले हो बाँह का फन्दा।।
बड़ा उसने सताया है।बहुत ये मन दुखाया है।।
रागिनी गर्ग
रामपुर( यूपी )
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14 मात्रिक विजात छंद
मापनी
1222, 1222
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मुखड़ा**
सखी कैसे कहूं दिल की,मिटे कैसे अगन मन की।
अंतरा**
पिया मुझसे रहें रूठे,दिखा सपने मुझे झूठे।
बरस ये दृग हुए रीते,मिलन के दिन सभी बीते।
नहीं कोई खबर उनकी,मिटे कैसे अगन मन की।
अंतरा****
जला दीपक निहारूं मैं,पिया का मुख सवारूं मैं।
सजा दीपक जली बाती, दिखाती लौ बढ़ी जाती।
नहीं समझें पिया मन की।।, मिटे कैसे अगन मन की।
अंतरा****
बहारें भी चिढातीं हैं,दिखा रंगत सतातीं हैं।
हवाओं ने रिझाया है,अभी आंचल हिलाया है।
सखी आंखें सजन पथ की,मिटे कैसे अगन मन की।
अंतरा****
बुलाते हैं भ्रमर मुझको,गुलाबों सा समझ मुझको।
इशारे कर रहीं कलियां,बलम भूले वही गलियां।
जली आशा दुखी तन की,मिटे कैसे अगन मन की।
राज्यश्री सिंह
स्वरचित मौलिक रचना।
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छंद का नाम :- विजात छन्द
छंद का विधान:- प्रत्येक चरण 14 मात्राएँ,1, 8 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य , आदि लघु से, अंत 222
वाचिक भार
मात्रा भार : 1222 1222
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शीर्षक:- प्रिये
छंद/- विजात
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कटीले नैन हैं तेरे, सजीली रैन के घेरे।
प्रणय पल मीत बन जाओ, प्रिये बाँहे भरूँ आओ।।
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खिली हो चाँदनी जैसी, सुवासित कामिनी वैसी।
घटा से केश बिखराओ, जरा सा पास तो आओ।।
सुहानी रात महकाओ, प्रिये बाँहें भरूँ आओ।।
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रसीली रागिनी रातें,हमारे प्यार की बातें।
सुरा मद नैन छलकाना, भिंगो दो मेध बन छाना।
मुदित मन प्रीत भर जाओ, प्रिये बाँहें भरूँ आओ।।
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नशीले नैन में खोना, दिलों में चैन का होना।
मिटे दूरी न शरमाना, सुरीली तान बन जाना।।
मुझे मदहोश कर जाओ प्रिये बाँहें भरूँ आओ।।
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सितारे चाँद से साथी, जले जैसे दिया बाती।
वलय तुम आज खनकाना, मिलन संगीत भर जाना।
मदन मन मीत बन जाओ, प्रिये बाँहें भरूँ आओ।।
रचनाकार
- डॉ नीरज अग्रवाल
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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छंद का नाम :- विजात
छंद का विधान:- प्रत्येक चरण 14 मात्राएँ,1, 8 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य , आदि लघु से, अंत 222
वाचिक भार
मात्रा भार : १२२२ १२२२
विषय :- प्रेम का प्याला
रस :- संयोग शृंगार रस
मुखड़ा
गजब जादू किया बाला , हुआ मैं मस्त मतवाला ।
अंतरा १
नयन से वारुणी दहकी, नशे में रात भी बहकी ।
अधर की थी छुवन ऐसी , अगन की हो तपन जैसी।।
गले में हाथ की माला , हुआ मैं मस्त मतवाला ।। टेक
अंतरा २
कभी होता नहीं है गम , कि जब तू साथ हो हमदम ।
तुम्हारा रूप यूँ झलके , कि आई अप्सरा चलके ।।
प्रभू ने देख के ढाला । हुआ मैं मस्त मतवाला ।।
अंतरा 3
हुआ मुस्कान का कायल , अभय का दिल हुआ घायल।
सजा दूँ मांग मैं तेरी , तुम्हीं जीवन प्रिये मेरी ।।
मिला मधु से भरा प्याला । हुआ मैं मस्त मतवाला ।।
अभय कुमार आनंद
बांका बिहार व
लखनऊ उत्तरप्रदेश
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विजात छन्द (14 मात्रिक
मापनी 1222,1222
पदान्त---में
समान्त---आली
विधा---गीतिका
अमावस रात काली में। जले दीपक दिवाली में।1
बिका जीवन मगर देखो, रुका सौदा दलाली में।2
खुशी का पर्व आया है, सजाओ दीप थाली में।3
दिलों को जीतकर देखो, लगे है प्यार गाली में।4
किरण छूकर सुमन खिलते नया उत्साह आली में।5
आली-- भ्रमर
अंशु विनोद गुप्ता
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विजात छंद (14 मात्रिक छन्द-आदि लघु अनिवार्य)
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समय ने जब सताया है, हुआ अपना पराया है,
यहाँ जो सच दबाया है,असत उसने बढ़ाया है।।
बुरा हूँ मैं कहा कैसे,तुम्हें ऐसा लगा कैसे,
तुम्हारे बिन बता कैसे,रहूँ जीवित भला कैसे।।
यहाँ दीपक जलाओ तुम,अँधेरा सब मिटाओ तुम,
दुखी मन को हँसाओ तुम,सभी से हिय मिलाओ तुम।।
न पीछे पग हटायेंगे,सदा आगे बढ़ायेंगे,
घुसे अरि को भगायेंगे,लहू उसका बहायेंगे।।
भले हो तुम दिखाना है,कई रिश्ते निभाना है,
यही जीवन बिताना है,यहाँ किसका ठिकाना है।।
@अशोक कुमार "अश्क चिरैयाकोटी"
चिरैयाकोट, जनपद-मऊ(उ0प्र0)भारत
दि0-02/11/2019
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विजात छंद ........१४ मात्रिक छंद,आदि और ८ वी मात्रा लघु ,
मापनी...१२२२ १२२२
(मुखड़ा)
सजन की याद तड़पाती, कसक उर में जगा जाती।
(अंतरा) १
सभी को छोड़ के आई,पिया के नेह में छाई।
सुरीला राग मन मोहे,मधुर सरगम मुझे सोहे।
कभी मन में सिहर आती,कसक उर में जगा जाती।
२
लगूँ गजगामिनी सी मैं,चमकती दामिनी सी मैं।
मुझे कब भूल सकता तू ,खयालों में सिमटता तू।
लिखूँ मैं प्रेम की पाती,कसक उर में जगा जाती।
3
अधर की प्यास बढ़ जाए,मिलन के गीत ये गाए।
कभी ये पास लाती है,कभी धड़कन बढ़ाती है।
अगन ज्वाला नहीं भाती,कसक उर में जगा जाती।
........सुवर्णा परतानी.......
.......... हैदराबाद...........
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विजात छंद
सम चरण तुकांत
छटा उपवन निखर जाए, खुला सावन बरस जाए।
अगर तुम्ह हो प्रिये पहलु , सभी वादे निखर जाए।। 1
बता दूँ राज ये तुम्ह को, मुझे प्यारा नही कोई।
सिवा तेरे नही दूजा, खयालों में कहीं कोई।। 2
कुसुम कुसुमित अदा तेरी, लरजते होंठ की लाली।
भुला बैठा सफर को में, निगाहें प्यार की डाली।। 3
चलो फिर आज हम मिल कर, सुहाना गीत वो गाएँ।
खिले तन- मन मिलन ऐसा, तराना प्यार का गाएँ।। 4
किया श्रृंगार सोलह है ,गुलाबों की महक ले कर।
लगे कोई कली जैसे ,हुआ हूँ धन्य में छूकर ।। 5
मचाती शोर ये कितना, तुम्हारे पाँव की पायल।
मुझे बेचैंन करती है, हुआ ह्रदय फिर घायल।। 6
चलो जब जब लचकती है , कमर तेरी नजर अटके।
मचलता ज्वार है मन में, कभी जोगी बदन भटके।। 7
चले सांसे लगे ऐसा , बजे सुर सप्त सरगम के।
सुषिर हो वाद्य ये कोई , सुने हम साथ हमदम के।। 8
कहें खुल कर सुनें अनहद , इडा सुर पिंगला दोनों।
मगन हो कर मदन रस में, भुला दू ये जहाँ दोनों।। 9
लगे उपमा सभी छोटी, सजी श्रृंगार हो ऐसी।
कहूँ अब छंद या गजलें, रसों की धार हो ऐसी।। 10
लिखू अब ओर क्या ऐसा,हुवा मदमस्त मतवाला।
कहूँ अविराज ये मानो, चढ़ा ली प्यार की हाला।। 11
*अरविन्द चास्टा 'अविराज'
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