मधुमालती छन्द
Explained by Shri Jitender pal singh ji
नमस्कार, साहित्य अनुरागियों मानव वर्णसंज्ञा अथवा जाति के छंदों की अगली श्रृंखला में छन्द विवरण निम्नलिखित है:---
मधुमालती छन्द-- प्रत्येक चरण 14 मात्रिक
चरणान्त: 212, तथा 7,7 मात्रा पर यति अनिवार्य।
दो अथवा चारों चरण परस्पर समतुकांत।
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धरती सभी, को पालती, पर पाप से, अब कांपती।
चुपचाप सब, ये देखते, उत्पात धरा, पर झेलते।
लुटती धरा, वन संपदा, निर्धन सहें, दुख आपदा।
मानव हुआ, क्यूँ राक्षसी, प्रवत्ति हुई, अब तामसी।
नवजात को, भी घूरता, दुष्कर्म कर, वो लूटता।
है वेश तो, वो मानवी,पर कर्म से, है दानवी।
पथ पे पथिक, को मारते,हत्या वहीं, कर डालते।
फैली विकट, धर्मान्धता, क्यूँ सत्य नहीं, पहचानता।
दंगे करें, दें वेदना, छायी बहुत, अवचेतना।
जागो सुनो अब भारती, ढूंढ़ो कृष्ण, सा सारथी।
एक युद्ध है, फिर जीतना,पापी मरे, मत सोचना।
मन में धरो, अब कामना,अन्याय से, मत हारना।
जितेंदर पाल सिंह
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छंद मधुमालती
२२१२ २२१२
तूने कहां, खुशियां बुनी।माया कपट, की ही चुनी ।।
आधार रख ,निज स्वार्थ का।रस्ता लिया , है नाश का।।
काली मुद्रा ,प्यारी तुझे ।सोचे खुशी, देती मुझे।।
तेरा यही ,कारण बना ।भ्रम में रहा, हमेशा सना।।
गठरी भरी ,अघ पाप की ।धन संपदा ,किस काम की।।
अर्जित किया ,क्या ये बता ।खुश ही रहा, सबको सता।।
अब भी समय, नर चेत जा ।सुमिरन पकड़, प्रभु नाम का।।
जो चाहता , सुधरे समय ।ईश्वर बसा ,अपने निलय।।
सेवा दुखी ,जन की करो ।करुणा दिखा, झोली भरो।।
आशीष में ,भगवन मिले।अनुभूति से, तन- मन खिले।।
ललिता गहलोत
२२१२ २२१२
तूने कहां, खुशियां बुनी।माया कपट, की ही चुनी ।।
आधार रख ,निज स्वार्थ का।रस्ता लिया , है नाश का।।
काली मुद्रा ,प्यारी तुझे ।सोचे खुशी, देती मुझे।।
तेरा यही ,कारण बना ।भ्रम में रहा, हमेशा सना।।
गठरी भरी ,अघ पाप की ।धन संपदा ,किस काम की।।
अर्जित किया ,क्या ये बता ।खुश ही रहा, सबको सता।।
अब भी समय, नर चेत जा ।सुमिरन पकड़, प्रभु नाम का।।
जो चाहता , सुधरे समय ।ईश्वर बसा ,अपने निलय।।
सेवा दुखी ,जन की करो ।करुणा दिखा, झोली भरो।।
आशीष में ,भगवन मिले।अनुभूति से, तन- मन खिले।।
ललिता गहलोत
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मधुमालती छंद
मापनी 2212,2212
14 मात्रिक छंद 7,7 पर यति
5 वीं और 12 वीं मात्रा लघु अनिवार्य।चरणान्त 212
गंगा सफाई
गंगा सुनो , निज मान है ।जल ही नहीं , सम्मान है ।।
माता कहें , हम गंग को ।कर साफ तट, है गंद जो ।।
कचड़े बहा , मत पाप कर ।मिलजुल नदी ,सुन साफ कर ।।
शिव की जटा , का मान कर ।हो साफ माँ , श्रमदान कर ।।
यह गोमुखी , भागीरथी ।हरिद्वार भू , आ के मिली ।।
काशी अमिय , वाराणसी ।है मान हर , घर घर वसी ।।
गंगा बही , सबके लिये ।सोचो जरा , हम क्या दिये ।।
नित अस्थि ले , गंगा बहीं ।सोचो जरा , क्या कुछ सहीं ।।
मृतप्राय है , संवेदना ।माँ के हृदय , को भेदना ।।
सोई कहाँ , है चेतना ।कहता अभय , सुन वेदना ।।
अभय कुमार आनंद
बिष्णुपुर बांका बिहार
लखनऊ उत्तरप्रदेश
मापनी 2212,2212
14 मात्रिक छंद 7,7 पर यति
5 वीं और 12 वीं मात्रा लघु अनिवार्य।चरणान्त 212
गंगा सफाई
गंगा सुनो , निज मान है ।जल ही नहीं , सम्मान है ।।
माता कहें , हम गंग को ।कर साफ तट, है गंद जो ।।
कचड़े बहा , मत पाप कर ।मिलजुल नदी ,सुन साफ कर ।।
शिव की जटा , का मान कर ।हो साफ माँ , श्रमदान कर ।।
यह गोमुखी , भागीरथी ।हरिद्वार भू , आ के मिली ।।
काशी अमिय , वाराणसी ।है मान हर , घर घर वसी ।।
गंगा बही , सबके लिये ।सोचो जरा , हम क्या दिये ।।
नित अस्थि ले , गंगा बहीं ।सोचो जरा , क्या कुछ सहीं ।।
मृतप्राय है , संवेदना ।माँ के हृदय , को भेदना ।।
सोई कहाँ , है चेतना ।कहता अभय , सुन वेदना ।।
अभय कुमार आनंद
बिष्णुपुर बांका बिहार
लखनऊ उत्तरप्रदेश
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मधुमालती छंद
14 मात्रिक 7,7 =14 --अंत 212
मापिनी 2212,2212
डर कर कभी,रोना नहीं।रो कर कभी,जीना नहीं।।
तुम जीत लो, ये जिंदगी।भगवान की, ये वंदगी।।
तूने बुना , हर दिन यहां।जो था चुना,हर पल यहां।।
जो चाहता, मिलता वही।जो बो दिया ,कटता वही।।
जीवन सदा, सत्कार हो।सम्मान पर, अधिकार हो।।
काया नहीं , अभिमान हो।माया नहीं ,अवधान हो।।
मद मोह में , पड़ना नहीं।बन क्रोध भी,गिरना नहीं।।
सद् ज्ञान का, विस्तार हो।अमृत मयी ,रसधार हो।।
हर पल बड़ा, बलवान है।खुशियां मिलें, धनवान है।।
जगजीत तू , बनता गया।हर सांस तू, जीता गया।।
राज्यश्री सिंह
स्वरचित मौलिक रचना
14 मात्रिक 7,7 =14 --अंत 212
मापिनी 2212,2212
डर कर कभी,रोना नहीं।रो कर कभी,जीना नहीं।।
तुम जीत लो, ये जिंदगी।भगवान की, ये वंदगी।।
तूने बुना , हर दिन यहां।जो था चुना,हर पल यहां।।
जो चाहता, मिलता वही।जो बो दिया ,कटता वही।।
जीवन सदा, सत्कार हो।सम्मान पर, अधिकार हो।।
काया नहीं , अभिमान हो।माया नहीं ,अवधान हो।।
मद मोह में , पड़ना नहीं।बन क्रोध भी,गिरना नहीं।।
सद् ज्ञान का, विस्तार हो।अमृत मयी ,रसधार हो।।
हर पल बड़ा, बलवान है।खुशियां मिलें, धनवान है।।
जगजीत तू , बनता गया।हर सांस तू, जीता गया।।
राज्यश्री सिंह
स्वरचित मौलिक रचना
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मधुमालती छन्द
विभत्स रस (स्थायी भाव: जुगुप्सा)
मापनी- 2212 2212
7,7 पर यति
गीत
मुखड़ा
किस बात का, उन्माद है,फैला यहाँ, उत्पात है।
अंतरा
राक्षस यहीं, संसार में,गाथा छपें, अखबार में।
भूखे बने, वो मांस के,दुष्कर्म हो, नवजात से।
निर्लज्ज ये, अभिशाप है,फैला यहाँ, उत्पात है।--टेक
अंतरा
व्यभिचार में, वो लिप्त हैं,ख़ूनी बड़े, ही दुष्ट हैं।
वो नरभक्षी, दुर्गंध हैं,पापी बड़े, कामान्ध हैं।
ये तो बड़ा, संताप है,फैला यहाँ, उत्पात है।
अंतरा
मानव नहीं, दानव कहो,खूंखार हैं, बच कर रहो।
अब देह भी, व्यापार हैं,पशु से हुए, सँस्कार हैं।
रोती हुई, सब रात है,फैला यहाँ, उत्पात है।
अंतरा
खूनी हुई, है भीड़ भी,हत्या करे, रहगीर की।
निर्दोष है, लाचार है,सर पर पड़ी, तलवार है।
अब न्याय में, पक्षपात है,फैला यहाँ, उत्पात है।
अंतरा
देखो वहाँ, दंगा हुआ,लाशें गिरीं, मरघट हुआ।
जीवित जले, ईर्ष्या बढ़ी,आंखों दिखी, ऐसी घड़ी।
लहु की हुई, बरसात है,फैला यहाँ, उत्पात है।--टेक
जितेंदर पाल सिंह
विभत्स रस (स्थायी भाव: जुगुप्सा)
मापनी- 2212 2212
7,7 पर यति
गीत
मुखड़ा
किस बात का, उन्माद है,फैला यहाँ, उत्पात है।
अंतरा
राक्षस यहीं, संसार में,गाथा छपें, अखबार में।
भूखे बने, वो मांस के,दुष्कर्म हो, नवजात से।
निर्लज्ज ये, अभिशाप है,फैला यहाँ, उत्पात है।--टेक
अंतरा
व्यभिचार में, वो लिप्त हैं,ख़ूनी बड़े, ही दुष्ट हैं।
वो नरभक्षी, दुर्गंध हैं,पापी बड़े, कामान्ध हैं।
ये तो बड़ा, संताप है,फैला यहाँ, उत्पात है।
अंतरा
मानव नहीं, दानव कहो,खूंखार हैं, बच कर रहो।
अब देह भी, व्यापार हैं,पशु से हुए, सँस्कार हैं।
रोती हुई, सब रात है,फैला यहाँ, उत्पात है।
अंतरा
खूनी हुई, है भीड़ भी,हत्या करे, रहगीर की।
निर्दोष है, लाचार है,सर पर पड़ी, तलवार है।
अब न्याय में, पक्षपात है,फैला यहाँ, उत्पात है।
अंतरा
देखो वहाँ, दंगा हुआ,लाशें गिरीं, मरघट हुआ।
जीवित जले, ईर्ष्या बढ़ी,आंखों दिखी, ऐसी घड़ी।
लहु की हुई, बरसात है,फैला यहाँ, उत्पात है।--टेक
जितेंदर पाल सिंह
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मधुमालती छन्द
14 मात्रिक छन्द 7-7 पर यति,
अंत 212 अनिवार्य
5वीं 12 वी मात्रा लघु
2212 2212
मोहित सजी,मधु वाटिका,मधुवन बसी, प्रिय राधिका,
गोपी करे ,यह कामना,माधव बसे, मन भावना।
*******************
मोहक शुभा,रस वीथिका,कान्हा अधर, बन गीतिका,
माखन मधुर, दधि खाइए,मीठा- मही, प्रभू आइये।
*********************
राधा बनी, मनभावनी,केशव प्रिया, सुर रागिनी,
ब्रज में रहे, सुख साधना,मुरली हरे, मद वासना।
*******************
राधा हिया सुख धामिनी,आकाश में, ज्यूँ दामिनी,
मोहन प्रिया, मन हारिणी,ब्रज धाम की, दुख तारिणी।
*******************
तन-मन बसा, हरि साँवरा,कुंतल मधुप,मुख बावरा,
कोमल ह्रदय,मन मोहते,नीरज चरण, मधु सोहते।
**********************
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
14 मात्रिक छन्द 7-7 पर यति,
अंत 212 अनिवार्य
5वीं 12 वी मात्रा लघु
2212 2212
मोहित सजी,मधु वाटिका,मधुवन बसी, प्रिय राधिका,
गोपी करे ,यह कामना,माधव बसे, मन भावना।
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मोहक शुभा,रस वीथिका,कान्हा अधर, बन गीतिका,
माखन मधुर, दधि खाइए,मीठा- मही, प्रभू आइये।
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राधा बनी, मनभावनी,केशव प्रिया, सुर रागिनी,
ब्रज में रहे, सुख साधना,मुरली हरे, मद वासना।
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राधा हिया सुख धामिनी,आकाश में, ज्यूँ दामिनी,
मोहन प्रिया, मन हारिणी,ब्रज धाम की, दुख तारिणी।
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तन-मन बसा, हरि साँवरा,कुंतल मधुप,मुख बावरा,
कोमल ह्रदय,मन मोहते,नीरज चरण, मधु सोहते।
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रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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मधुमालती छंद आधारित गीत
मापनी-2212 , 2212
ना जी रही, ना मर रही,पानी नयन,वो भर रही।
कपड़ो भरी, दुर्गन्ध है,हर ओर से,सब बन्द है,
कुछ चींटियाँ,बिस्तर चलें,कुछ चींटियाँ बिस्तर चले
छालों भरी, जिह्वा गले।
बहु जुर्म क्यों,ये कर रही पानी नयन ,वो भर रही।
2
कीड़े पड़े हर घाव में।बेड़ी डली,है पांव में।
मिटती नही,है प्यास भी।आते नही,है पास भी।
क्यों मारती,पत्थर रहीपानी नयन,वो भर रही।
3
सारा बदन,पस से पड़ा।मल त्याग से,कमरा सड़ा।
चूहा शिखा,नख काटता।आ स्वान भी,तन चाटता।
मख्खी यहाँ, फुर फुर रहीपानी नयन वो भर रही।।
4
मल मूत्र चारों और हैं।पशु की जगह ही ठौर है।
सिंघाड़ में,जीना पड़ा,हर रोज गम, पीना पड़ा।
गिर गिर उठे,फिर गिर रहीपानी नयन वो भर रही
रानी सोनी 'परी'रानी सोनी
मापनी-2212 , 2212
ना जी रही, ना मर रही,पानी नयन,वो भर रही।
कपड़ो भरी, दुर्गन्ध है,हर ओर से,सब बन्द है,
कुछ चींटियाँ,बिस्तर चलें,कुछ चींटियाँ बिस्तर चले
छालों भरी, जिह्वा गले।
बहु जुर्म क्यों,ये कर रही पानी नयन ,वो भर रही।
2
कीड़े पड़े हर घाव में।बेड़ी डली,है पांव में।
मिटती नही,है प्यास भी।आते नही,है पास भी।
क्यों मारती,पत्थर रहीपानी नयन,वो भर रही।
3
सारा बदन,पस से पड़ा।मल त्याग से,कमरा सड़ा।
चूहा शिखा,नख काटता।आ स्वान भी,तन चाटता।
मख्खी यहाँ, फुर फुर रहीपानी नयन वो भर रही।।
4
मल मूत्र चारों और हैं।पशु की जगह ही ठौर है।
सिंघाड़ में,जीना पड़ा,हर रोज गम, पीना पड़ा।
गिर गिर उठे,फिर गिर रहीपानी नयन वो भर रही
रानी सोनी 'परी'रानी सोनी
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मधुमालती छंद
14 मात्रिक छंद 7,7 पर यति
5 वीं और 12 वीं मात्रा लघु अनिवार्य
चरणान्त 212
विषय- भगवान की खोज
सब का यहाँ ,अब मान हो ।सब का सदा ,सम्मान हो।।
नफरत नहीं , तुम अब करो ।मन जोड़ के, सेवा करो ।।
शीतल पवन, जैसा रहे ।पावन यहाँ , हर मन रहे ।।
हो छल कपट, मन में नहीँ ।हो अब पतन, जग में नहीं ।।
मन का भरम ,अब छोड़ दो ।इंसान का ,मन जोड़ दो ।।
भगवान को , खोजो नहीं ।जग को यहाँ , तोड़ो नहीं ।।
जीवन सदा,सादा रहे ।मन में यहाँ,दाता रहे ।।
जग में न अब,यूँ गैर हो।मन में न यूँ ,अब बैर हो ।।
रजिन्दर कोर (रेशू)
अमृतसर
14 मात्रिक छंद 7,7 पर यति
5 वीं और 12 वीं मात्रा लघु अनिवार्य
चरणान्त 212
विषय- भगवान की खोज
सब का यहाँ ,अब मान हो ।सब का सदा ,सम्मान हो।।
नफरत नहीं , तुम अब करो ।मन जोड़ के, सेवा करो ।।
शीतल पवन, जैसा रहे ।पावन यहाँ , हर मन रहे ।।
हो छल कपट, मन में नहीँ ।हो अब पतन, जग में नहीं ।।
मन का भरम ,अब छोड़ दो ।इंसान का ,मन जोड़ दो ।।
भगवान को , खोजो नहीं ।जग को यहाँ , तोड़ो नहीं ।।
जीवन सदा,सादा रहे ।मन में यहाँ,दाता रहे ।।
जग में न अब,यूँ गैर हो।मन में न यूँ ,अब बैर हो ।।
रजिन्दर कोर (रेशू)
अमृतसर
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मधुमालती छंद........
१४ मात्रिक छंद, ७,७ पर यति,५ वीं और १२ वी मात्रा लघु, चरणांत २१२ अनिवार्य
तेरा पता देवा बता।रहता कहाँ ये तू जता।
थक मैं गयी तू हाथ दे।संकट बढ़ा तू साथ दे।।
तेरे बिना कैसे रहूँ।ये पाप किसको मैं कहूँ।
घड़ियाँ समय की है बढ़े।साँसे हमारी है चढ़े ।।
लो द्वार पर मैं हूँ खडी।है कठिन अब सारी घड़ी।
अभिमान है मुझ पे चढ़ा।तब गर्व का घेरा बढ़ा।।
जब हाथ सर पे तू धरे।तब कष्ट ये पल में हरे।
आके बचाले त्रास से।सुमिरन करे हर साँस में।।
.........सुवर्णा परतानी........
............हैदराबाद............
१४ मात्रिक छंद, ७,७ पर यति,५ वीं और १२ वी मात्रा लघु, चरणांत २१२ अनिवार्य
तेरा पता देवा बता।रहता कहाँ ये तू जता।
थक मैं गयी तू हाथ दे।संकट बढ़ा तू साथ दे।।
तेरे बिना कैसे रहूँ।ये पाप किसको मैं कहूँ।
घड़ियाँ समय की है बढ़े।साँसे हमारी है चढ़े ।।
लो द्वार पर मैं हूँ खडी।है कठिन अब सारी घड़ी।
अभिमान है मुझ पे चढ़ा।तब गर्व का घेरा बढ़ा।।
जब हाथ सर पे तू धरे।तब कष्ट ये पल में हरे।
आके बचाले त्रास से।सुमिरन करे हर साँस में।।
.........सुवर्णा परतानी........
............हैदराबाद............
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मधुमालती छंद
2212 2212
गीत
इन केशुओं के जाल में ,मैं फस गया किस काल में ,
क्या प्रेम की शुरूआत है,दिल में कहो जो बात है।
अब चैन पल भर है नहीं ,तन है कहीं मन है कहीं ,
कर याद तुमको ढूँढता,मिलता नहीं तेरा पता,
कुछ ध्यान अब मुझको नहीं ,संध्या हुई कब रात है।
क्या प्रेम की शुरूआत है,दिल में कहो जो बात है।
अब हाथ तेरा थाम कर,जीवन तुम्हारे नाम कर,
चलते रहेंगे संग में ,ढल प्यार के ही रंग में ,
चल भींग लें हम भी जरा,जो हो रही बरसात है।
क्या प्रेम की शुरूआत है,दिल में कहो जो बात है।
आयुष कश्यप
2212 2212
गीत
इन केशुओं के जाल में ,मैं फस गया किस काल में ,
क्या प्रेम की शुरूआत है,दिल में कहो जो बात है।
अब चैन पल भर है नहीं ,तन है कहीं मन है कहीं ,
कर याद तुमको ढूँढता,मिलता नहीं तेरा पता,
कुछ ध्यान अब मुझको नहीं ,संध्या हुई कब रात है।
क्या प्रेम की शुरूआत है,दिल में कहो जो बात है।
अब हाथ तेरा थाम कर,जीवन तुम्हारे नाम कर,
चलते रहेंगे संग में ,ढल प्यार के ही रंग में ,
चल भींग लें हम भी जरा,जो हो रही बरसात है।
क्या प्रेम की शुरूआत है,दिल में कहो जो बात है।
आयुष कश्यप
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छन्द-मधुमालती
14 मात्रिक छन्द 7,7 पर यति
चरणांत-212
विषय- "माँ शारदे वंदना"
करती सदा, ये कामना, मन में बसे, ये भावना।
करती रहूँ, माँ याचना। तेरी करूँ , मैं साधना।
करबद्ध माँ, है प्रार्थना, जन-मन बसे,सद् भावना।
दुख का नहीं, हो सामना, माँ हाथ को, तुम थामना।
पूजा करूँ ,कर अर्चना, मन भक्ति ले,उर भावना।
कर दूर दुख, दुख हारिणी, आ बस ह्रदय,जग तारिणी।
माँ तू जगत, वर दायिनी, माँ वत्सला,मृदु भाषिणी।
तू धर्म का, व्रत पालिनी, तू ही सकल,तम हारिणी।
माँ शारदे ,सुर साधिका, मम् उर बसो,लय धारिका।
कर दूर तम, माँ सारथी, हर पल करूँ,माँ आरती।
स्वरचित
रंजना सिंह "अंगवाणी बीहट"
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14 मात्रिक छन्द 7,7 पर यति
चरणांत-212
विषय- "माँ शारदे वंदना"
करती सदा, ये कामना, मन में बसे, ये भावना।
करती रहूँ, माँ याचना। तेरी करूँ , मैं साधना।
करबद्ध माँ, है प्रार्थना, जन-मन बसे,सद् भावना।
दुख का नहीं, हो सामना, माँ हाथ को, तुम थामना।
पूजा करूँ ,कर अर्चना, मन भक्ति ले,उर भावना।
कर दूर दुख, दुख हारिणी, आ बस ह्रदय,जग तारिणी।
माँ तू जगत, वर दायिनी, माँ वत्सला,मृदु भाषिणी।
तू धर्म का, व्रत पालिनी, तू ही सकल,तम हारिणी।
माँ शारदे ,सुर साधिका, मम् उर बसो,लय धारिका।
कर दूर तम, माँ सारथी, हर पल करूँ,माँ आरती।
स्वरचित
रंजना सिंह "अंगवाणी बीहट"
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मधुमालती छंद
14 मात्रिक,7-7
अंत-212
मापनी-2122 2122
अभिशप्त बन सब जी रहे।सब रक्त सबका पी रहे।
विश्वास को छलते यहाँ।सब डाह में जलते यहाँ।।
बहती नदी अब पीव की।हत्या करें नित जीव की।।
उर भाव के हैं चीथड़े।बिखरे पड़े हैं लोथड़े।।
कुछ श्वान के सम सोचते।कुछ गिद्ध बनकर नोचते।।
अब शून्य है संवेदना।मृतप्राय सबकी चेतना।।
मन में भरी है वासना।रहती कुटिल ही कामना।।
मधु भाव सब विघटित करे।इंसानियत लज्जित करे।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर
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मधुमालती छंद
मात्रिक छंद
14 मात्रा
2212 2212
जो नर अधम सा हो गयानिज स्वार्थ में बस खो गया
नित पाप में रहता है रतक्यूँ छा रही है वहशियत।
अब भ्रूण हत्या हो रहीकन्या दुःखो को ढो रही
चीत्कार करता है हृदयदे राक्षसों से अब अभय।
है कष्ट जीवन अनवरत।क्यूँ छा रही है वहशियत।
इंसान से इंसान काहैवान से भगवान का
रिश्ता कभी भी ना रहाबस रक्त ही बहता रहा।
लाशें बिछी थी अनगिनत।क्यूँ छा रही है वहशियत।
बन भेड़िये है नोचतेउस जिस्म को है फेंकते
इस सृष्टि का आधार जोदुत्कार अत्याचार वो
सहती रही जन्मों तलक।क्यूँ छा रही है वहशियत।
गीता गुप्ता'मन'
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मधुमालती छंद
मात्रिक छंद
14 मात्रा
2212 2212
जो नर अधम सा हो गयानिज स्वार्थ में बस खो गया
नित पाप में रहता है रतक्यूँ छा रही है वहशियत।
अब भ्रूण हत्या हो रहीकन्या दुःखो को ढो रही
चीत्कार करता है हृदयदे राक्षसों से अब अभय।
है कष्ट जीवन अनवरत।क्यूँ छा रही है वहशियत।
इंसान से इंसान काहैवान से भगवान का
रिश्ता कभी भी ना रहाबस रक्त ही बहता रहा।
लाशें बिछी थी अनगिनत।क्यूँ छा रही है वहशियत।
बन भेड़िये है नोचतेउस जिस्म को है फेंकते
इस सृष्टि का आधार जोदुत्कार अत्याचार वो
सहती रही जन्मों तलक।क्यूँ छा रही है वहशियत।
गीता गुप्ता'मन'
बहुत बढ़िया मित्र। शायद 7,7 पर यति आवश्यक नहीं है। उर्दू के शब्दों से भी बचना चाहिए।
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