Explained By Smt Ragini Garg Ji ( Rampur, U.P.)
सभी साहित्य अनुरागियों को रागिनी का प्रणाम। 🙏
दोस्तो 16 मात्रिक संस्कारी जाति के छन्द पादाकुलक पर अभ्यास करने के बाद आज हम अपनी लेखनी संस्कारी जाति के ही दूसरे छंद चौपाई छंद पर चलायेंगे।
विधान:-चौपाई संस्कारी जाति का 16 मात्रिक छन्द है। चौपाई को रूप चौपाई भी कहते हैं ।इसमें चार चरण होते हैं। दो-दो या चारों चरण समतुकान्ति होते हैं।बहुत से लोग चौपाई के दो चरणों को चौपाई कहते हैं ये गलत है। एक पद को एक पाई,दो पद को दो पाई या अर्धाली, तीन पद तीन पाई और चार पद चौपाई।
चरण के अन्त में जगण (121)या तगण (221) नहीं होने चाहिए ,किन्तु अंत में दो गुरु (SS) रखने से लय अच्छी बनती है। चौपाई के चरणान्त गुरु लघु नहीं होने चाहिए (अन्त में राम, नाम, काम जैसे शब्द नहीं होने चाहिए )
चौपाई छंद
उदाहरण (छन्द प्रभाकर से)
सोरह क्रमन जतन चौपाई।
सुनहु तासु गति अब मन लाई।
त्रिकल परे सम कल नहिं दीजे।
दिये कहूँ तो लय अति छीजे।
सम सम सम सम समसुखदाई।
बिषम बिषम सम समहू भाई।
बिषम बिषम सम बिषम बिषम सम
बिषम दोय मिली जानिये इकसम।
आइये चौपाई के नियम को। छन्द प्रभाकर के उदाहरण से ही समझते हैं।
(1)त्रिकल पड़े समकल नहिं दीजे-त्रिकल के पीछे समकल मत रखो।त्रिकलके बाद समकल रखने से लय प्रभावित होती है।
सुनत रामा सुनत राम
त्रिकल समकल(गलत) त्रिकल त्रिकल (सही)
(2)सम सम सम सम समसुखदाई-सम सम प्रयोग अत्युत्तम होते हैं ।जैसे गुरु-पद-रज-मृदु-मं-जुल-अं-जन।
(3)बिषम बिषम सम समहू भाई।
नित्य- भजिये- तजि-मन- कुटि -लाई।
(4) बिषम बिषम सम बिषम बिषम सम
कबहुँ राम की कृपा सहा ई।
(5) बिषम दोय मिली जानिये एक सम
वंदौ राम नाम रघुवर को।
ध्यान रखने योग्य :-(1)द्विकल, चौकल, षटकल, अष्टकल ये समकल कहलाते हैं।
(2)त्रिकल, पंचकल ये बिषमकल कहलाते हैं।
उदाहरण
चौपाइयाँ
(1)राम -भजन में, सब सुख पावें।
राम नाव को, पार लगावें।।
राम- नाम की, महिमा न्यारी।
इनको जपते, सब नर -नारी।।
(2) हर कर विपदा, सुख उपजाते।
कष्टों से, श्री राम बचाते।।
राम- नाम का, मिले सहारा।
जीवन होगा, सबसे प्यारा।।
(3)जन्म- मरण का, फन्द कटेगा।
राम- नाम जब, मनुज रटेगा।।
राम रटें, हनुमन्त हठीले।
राम हटाते, कंट कटीले।।
(4) राम- नाम है, अपरम्पारा।
भज ले बन्दे, बारम्बारा।।
राम शरण में' जो भी जाता।
अपना जीवन सुखी बनाता ।।
रागिनी गर्ग रामपुर( यूपी)
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संस्कारी जाति का छंद ;-चौपाई
(१६ मात्रिक )
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विधान;-
चार चरणों का मात्रिक छंद
१६-१६ पर चरणांत अंत २ गुरु
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१)प्रेम बने व्यवहार हमारा l
प्रेम - भाव है जीवन - धारा ll
भक्ति-भाव यदि रहे ह्रदय में l
जीवन-गति रहती है लय में ll
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२)मेल रहे जग से इस मन का l
यही लक्ष्य रखिए जीवन का ll
मानव-हित यदि लक्ष्य रहा है l
समझें जीवन धन्य रहा है ll
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३)मातृभूमि को शीश नवाएँ l
नित श्रद्धा के फूल चढ़ाएँ ll
कर्मों के प्रति भक्ति तुम्हारी l
बन जाती है शक्ति हमारी ll
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४)सावन की ये ऋतु अलबेली l
मौसम करता है अठखेली ll
घिरें घटाएँ जल बरसे जब l
पल में सब का मन हरषे तब ll
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विनीता सिंह विनी
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चौपाई
१६मात्रिक प्रत्येक चरण,दो-दो चरण या चारो चरण समतुकांत,अंत गुरु।
नाम जपूँ दिन-रात तुम्हारा।
तुम ही हो प्रभु एक सहारा।।
सदा करो कल्याण हमारा।
जीवन में भर दो उजियारा।।
कृपा करो प्रभु तुमअति भारी।
सुखी रहें सारे नर-नारी।।
उर के सारे कष्ट मिटाओ।
प्रेम-भाव को सदा जगाओ।।
मानवता के बन सहभागी।
करुण भाव रखते बन त्यागी।।
सर्वधर्म के हम अनुरागी।
हम मानुष कितने बड़भागी।।
परहित धर्म सदा अपनाएं।
अमिय प्रेम सब पर बरसाएं।।
धीर धरा सम मन में रखना।
कर्म यही बस कृष्णा अपना।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर
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छंद - चौपाई
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प्रीत जुड़ी है साजन जबसे।
चितवन चैना को है तरसे।।
पीर हिया मैंने क्यों पाली ।
हाय भूल कैसी कर डाली।।
निशिवासर हृद धाम उन्ही का।
अधरों पर बस नाम उन्ही का ।।
उनके बिन जियरा अकुलाए ।
सूरत देख वदन खिल जाए।।
नित्य नवल श्रृंगार सजाकर ।
तन में बालम नेह बसाकर ।।
मुग्ध बनी ऐसे हरषाती ।
आप रूप पर ही इठलाती।।
तृषा मिलन की प्रतिपल रहती।
सखियों बीच बात यह कहती ।।
जग से बन अंजान गई मैं ।
बेकल ऐसी आज हुई मैं।।
नैना नित नव सपन सुहाये ।
चंचल मनवा उन्हें सजाये ।
सुंदर इक संसार बसेगा ।
प्यार यही आधार बनेगा ।
ललिता गहलोत
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चौपाई छन्द-16 मात्रिक,
संस्कारी जाति,
चरणान्त- जगण(121)तगण(221) निषेध।
अंत दो गुरु 22 रख सकते हैं,
विषय- जानकी विवाह,
धनुष भंग गूँजा जयकारा,
जनक नमन धरि बारम्बारा,
सकल प्रजा ने धूम मचाई,
नाचत झूमत लोग लुगाई।
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सुंदरता सिय बरनि न जाई,
लखति सुनयना मन मुस्काई,
गिरे गगन से सुमन अपारा,
हर्षित जनक बही सुख धारा,
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मुदित लिये सीता वरमाला,
भरी सभा गल रामहि डाला,
बजी दुंदभी सजी अटारी,
आये राम लखन सुख कारी।
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जनक बाँटते माणिक मोती,
जले दीप बिखरी चहुँ ज्योति,
कंचन देह जानकी चमके,
करि श्रृंगार दामिनी दमके,।
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मंगल गीत सुनावै सखियाँ,
सजल जानकी बरसी अखियाँ,
करती तिलक भाल रघुवीरा,
सजे थाल में कंचन हीरा।
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल"नन्दिनी"
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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चौपाई छ्न्द
यह 16 मात्रिक , संस्कारी जाति का छ्न्द है,
चरणान्त जगण (121 ) तगण (221) निषेध,
विषम के साथ विषम , सम के साथ सम अनिवार्य
अंत दो गुरु 22 रख सकते हैं ,
.........
विषय वन गमन
चले नाथ वन नावहिँ माथा,
लखन सिया रघुवर के साथा ।
दशरथ मूर्छित गिरे धरा पर ,
कहाँ चले मेरे हिय प्रियवर ।
........
शोक अयोध्या में है व्यापा ,
लाज वचन रख चले विधाता ।
माता कैकइ है मुँह फेरे ,
कौशलपुर में संकट घेरे ।
.......
जटा शीश पहने पीताम्बर ,
लखन सिया संगे करुणाकर ।
प्रयाग संगम के तट आए ,
वेणी माधव दर्शन पाए ।
......
तीनों लोकों के हैं वासी,
बने आज हैं ये सन्यासी ।
रूप राम का अच्युत धारे ,
त्रेतायुग में थे अवतारे ।
.......
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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चौपाई(१६ मात्रिक छन्द)
221 121 अंत में निषिद्ध है ।
नाम की महिमा
तज कर दम्भ नम्रता धारो।
करहि राम नाम निस्तारो।।
बिन हरि नाम मुक्ति नहि पावै।
जन्मे बार - बार मर जावे।।
हरि हरि जाप पाप जल जावे।
हियरा शुद्ध राम को भावे।।
गुरुबिन ज्ञान ध्यान नहि आवे।
गुरु के संग नाम सुधि पावे।।
अवगुण त्याग नाम उर धारे।
पांचों दुष्ट नाम संहारे।।
प्रातः नाम जाप सुख पावे।
मन संताप पाप मिट जावे।।
हरि के नाम ध्यान नित धारा।
आत्मा ज्ञान ज्योति उजियारा।।
पूरी होय चित्त की इच्छा।
करता राम नाम सब अच्छा।।
त्यागो मन विकार सब त्यागो।
मानुष जन्म लाभ लो जागो।।
बारम्बार ध्यान धर हरि का।
होवे लक्ष्य मुक्ति जीवन का।।
जितेंदर पाल सिंह
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चौपाई छंद
१६ मात्रिक
दो-दो चरण समतुकांत अंत गुरु
१
मुख माखन मोहन मुस्काया।
नाच-नाच मक्खन को खाया।।
मैया मन ही मन मुस्काई।
अच्युत अपने अंक लगाई।।
२
दृग चंदा के चार हुए थे।
जस तीरों के वार हुए थे।।
चन्द्रप्रभा तब थी शरमाई ।
मानो दुल्हन नव थी आई।।
3
उसकी कोकिल कंठ सुरीली।
आंखें सागर जैसी नीली।।
वदन मुलायम कंज सरीखे।
सहज सलोनी सुंदर दीखे।।
अभय कुमार आनंद
लखनऊ उत्तरप्रदेश
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चौपाई छन्द आधारित
विधा- 16 मात्रिक,
चरणान्त: 2/11(वाचिक भार)
रचना
गुण तेरे असीम रघुनंदन।
पुरषोत्तम चरित्र दुखभंजन।।
मन यह राम नाम यश गावे।
महिमा गीत काव्य बन जावे।।
तुम थे मात-पितृ अनुकारी।
बलशाली कुशल धनुरधारी।।
त्यागी श्रेष्ठ श्रेष्ठ तुम भ्राता।
छोड़ा राज सुन वचन माता।।
तज कर राज पाट सुख वासी।
धारा वेश राम वनवासी।।
जूठे बेर प्रेमवश खाये।
शबरी भाव देख मुस्काये।।
जन सब एकरूप तुम जाना।
किंचित भेद नाहि तुम माना।।
भक्तों के कृपालु रखवाले।
रावण दुष्ट मार तुम डाले।।
शरणागत कृपा असुर नाशक।
राजन रामराज्य प्रतिपालक।।
लीला रच सुमार्ग दिखलाये।
हम सम मूढ़ ज्ञान पद गाये।।
जितेंदर पाल सिंह
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चौपाई छंद
मात्राभार-16
बसन्त
नूतन नवल वेश धारण कर
पात पुष्प पल्लव विस्मय भर
करते सभी प्रथम अभिनन्दन
हर्षित है मानस प्रसून वन।
शिशिर गया गृह तिमिर भागता
रवि किरणों के संग जागता।
धरा पहन कर चूनर धानी
कोकिल गीत मधुर शुचि बानी।
चले बसन्ती मलय पवन है
पंछी हुलसे मुक्त गगन है।
पुष्पों में नव कौतुक छाया
प्रकृति रंग जनमानस भाया।
दहक उठा टेसू पलास है
तन्द्रा टूटी नवल आस है।
सरसों ने पहना पीताम्बर
धवल अमल नीला है अम्बर।
वृक्षों ने धारे नव कोंपल
फूलों पर गुंजन कर अलि दल।
बौरों से सजती शाखाएँ
भरते हैं मन में आशाएँ।
गीता गुप्ता 'मन'
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चौपाई छंद
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बिलख रहे सब चौपाये हैं।
भटके जग में घर खोये हैं।
वन कानन दिन दिन घटते हैं।
जीव सकल सब अब मरते हैं।
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मानव तेरा ये विकास हैं।
छोड़ रहे सब जीव आस हैं।
कंकड़ पत्थर के ही सपने ।
खोये मीत सहज जो अपने।
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दोष किसे दूँ हूँ सहभागी।
मन में राखी प्रीत अभागी।
कहाँ कर्म कर इनको पाला।
मुश्किल में जीवों को डाला।
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अरविन्द चास्टा
कपासन चित्तौड़गढ़ राज.
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बिलख रहे सब चौपाये हैं।
भटके जग में घर खोये हैं।
वन कानन दिन दिन घटते हैं।
जीव सकल सब अब मरते हैं।
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मानव तेरा ये विकास हैं।
छोड़ रहे सब जीव आस हैं।
कंकड़ पत्थर के ही सपने ।
खोये मीत सहज जो अपने।
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दोष किसे दूँ हूँ सहभागी।
मन में राखी प्रीत अभागी।
कहाँ कर्म कर इनको पाला।
मुश्किल में जीवों को डाला।
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अरविन्द चास्टा
कपासन चित्तौड़गढ़ राज.
चौपाई (16 मात्रिक छंद )
22. 21. 21. 222
आओ नाम जाप को धारे
तीनों लोक आज संवारे
आत्मा को यहाँ सदा जोड़ो
नाता पांच दुष्ट से तोड़ो ।
रजिन्दर कोर (रेशू)
अमृतसर
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चौपाई छंद
संस्कारी जाती का छंद,१६ मात्रिक छंद,
अंत में दो गुरु अनिवार्य ।
आज चली शिव जी की टोली।
भूत प्रेत खेले है होली।
राग रंग भरती ये मस्ती।
संग चले शंकर की हस्ती।।
नाग सर्प रहते है संगा।
जटा सजे पावन सी गंगा।
कंठ बना है विष का प्याला।
रक्त मुण्ड की रंजित माला।।
त्रिशूल,डमरू शिव के न्यारे।
गौरी,नंदी लागे प्यारे।
सत्यम,सुंदर सब के दाता।
प्रेम सुधा मय है जग धाता ।।
सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
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