Explained By - Shri. "Ashok Kumar ji "Ashk Chairaiyokoti"
माँ शारदे को नमन् तथा साहित्य अनुरागी परिवार के समस्त अनुरागियों को बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं व सादर प्रणाम। मित्रों आज दि0 30/01/2020 दिन गुरूवार को बसंत पंचमी के मुबारक मौके पर ग़ज़ल की पोस्ट लेकर आपका मित्र अशोक कुमार "अश्क चिरैयाकोटी" आप सभी के बीच हाज़िर है।
फ़न-ए-अरूज़ में अब तक उस्ताद-ए-फ़न ने 19 बहरें ईजाद की हैं। जिनमें 7 बहरें मुफ़रद ( जो एक ही बहर के अरकान से बनी हो) और 12 बहरें मुरक्कब (जो दो बहरों के अरकान से बनी हों) कहलाती हैं। मुफ़रद बहरों में सिर्फ बहर-ए - मुतदारिक की खोज अबुलहसन "अख़फ़श" ने की।बाकी बहरें ख़लील बिन अहमद की खोज की हुई हैं।
आज हम लोग बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मिन सालिम पर ग़ज़ल कह कर साहित्य अनुरागी के पटल को बेहद ख़ूबसूरत बनाते हैं।
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वज़्न : 212 - 212 - 212 - 212
🏵🏵 अरकान : फ़ाइलुन , फ़ाइलुन , फ़ाइलुन , फ़ाइलुन
🌺🌺 बह्र का नाम : बह्र - ए - मुतदारिक़ मुसम्मन सालिम
🌹 क़ाफ़िया : अहंकार ( आर की बन्दिश )
🌳 रदीफ़ : को
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मारना है तो मारो अहंकार को ।
मत करो और लाचार लाचार को।।
ज़िन्दगी उसके क़दमों में होती मगर ।
लोग जीने नहीं देते ख़ुद्दार को।।
ज़िन्दगी धूप है, ज़िन्दगी छांव है।
साफ रक्खा करो अपने किरदार को ।।
ये सबूतों का भी खेल क्या ख़ूब है।
मिल गई है रिहाई गुनहगार को।।
दर्द हर वर्क़ पे बेटियों का दिखा।
रोज़ मैंने पढ़ा जिस भी अख़बार को ।।
तर्क पे तर्क जिस दिन शुरू हो गया।
लोग देंगे बदल तेरी सरकार को।।
"अश्क"मंज़िल क़दम चूम लेगी तेरा।
हौसला तू बना ले अगर हार को।।
@ अशोक कुमार "अश्क चिरैयाकोटी"
❄ क़वाफ़ी के कुछ उदाहरण -
बाज़ार, दीदार, बेकार, बेजार, सरदार, दिलदार, औजार, झंकार, तलवार, बीमार, प्यार, खार, संसार आदि
💘 ( इसी बहर में चन्द फ़िल्मी नग़मात के मुखड़ों के बोल ) 👇👇
* ( 01 ) ज़िन्दगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र
* ( 02 ) हर हसीं चीज़ का मैं तलबगार हूँ
* ( 03 ) हर तरफ़ हर जगह बे शुमार आदमी
* ( 04 ) कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियो
* ( 05 ) ख़ुश रहे तू सदा ये दुआ है मेरी
* ( 06 ) आप की याद आती रही रात भर
* ( 07 ) गीत गाता हूँ मैं गुनगुनाता हूँ मैं
* ( 08 ) बे ख़ुदी में सनम उठ गए जो क़दम
* ( 09 ) एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
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जो मित्र पहली बार ग़ज़ल कहने की कोशिश कर रहे हैं, वो निम्न बातों का ख़्याल रखें--
ग़ज़ल की बुनियादी बातें --
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ग़ज़ल शेरों से बनती हैं। हर शेर में दो पंक्तियां होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं। ग़ज़ल की ख़ास बात यह हैं कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक संपूर्ण कविता होता हैं और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले पिछले अथवा अन्य शेरों से हो, यह ज़रूरी नहीं हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ग़ज़ल में अगर २५ शेर हों तो यह कहना ग़लत न होगा कि उसमें २५ स्वतंत्र कविताएं हैं। शेर के पहले मिसरे को ‘मिसर-ए-ऊला’ और दूसरे को ‘मिसर-ए-सानी’ कहते हैं।
मतला-
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ग़ज़ल के पहले शेर को ‘मतला’ कहते हैं। इसके दोनों मिसरों में यानि पंक्तियों में ‘काफ़िया’ होता हैं। अगर ग़ज़ल के दूसरे शेर की दोनों पंक्तियों में भी काफ़िया हो तो उसे ‘हुस्ने-मतला’ या ‘मतला-ए-सानी’ कहा जाता है।
काफ़िया -
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वह शब्द जो मतले की दोनों पंक्तियों में और हर शेर की दूसरी पंक्ति में रदीफ के पहले आये उसे ‘काफ़िया’ कहते हैं। काफ़िया बदले हुए रूप में आ सकता हैं। लेकिन यह ज़रूरी हैं कि उसका उच्चारण समान हो, जैसे बर, गर तर, मर, डर, अथवा मकां, जहां, समां इत्यादि।
रदीफ-
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प्रत्येक शेर में ‘काफ़िये’ के बाद जो शब्द आता हैं उसे ‘रदीफ’ कहते हैं। पूरी ग़ज़ल में रदीफ एक होती हैं। कुछ ग़ज़लों में रदीफ नहीं होती। ऐसी ग़ज़लों को ‘ग़ैर-मुरद्दफ़ ग़ज़ल’ कहा जाता हैं।
मक़्ता-
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ग़ज़ल के आखरी शेर को जिसमें शायर का नाम अथवा उपनाम हो उसे ‘मक़्ता’ कहते हैं। अगर नाम न हो तो उसे केवल ग़ज़ल का ‘आख़री शेर’ ही कहा जाता हैं। शायर के उपनाम को ‘तख़ल्लुस’ कहते हैं।
बहर, वज़्न या मीटर (meter)-
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शेर की पंक्तियों की लंबाई के अनुसार ग़ज़ल की बहर नापी जाती हैं। इसे वज़्न या मीटर भी कहते हैं। हर ग़ज़ल उन्नीस प्रचलित बहरों में से किसी एक पर आधारित होती हैं। बोलचाल की भाषा में सर्वसाधारण ग़ज़ल तीन बहरों में से किसी एक में होती हैं-
१. छोटी बहर-
अहले दैरो-हरम रह गये।
तेरे दीवाने कम रह गये।।
२. मध्यम बहर–
उम्र जल्वों में बसर हो यो ज़रूरी तो नहीं।
हर शबे-गम की सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं।।
३. लंबी बहर-
ऐ मेरे हमनशीं चल कहीं और चल इस चमन में अब अपना गुज़ारा नहीं।
बात होती गुलों की तो सह लेते हम अब तो कांटो पे भी हक़ हमारा नहीं।।
हासिले-ग़ज़ल शेर-
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ग़ज़ल का सबसे अच्छा शेर ‘हासिले-ग़ज़ल शेर’ कहलाता हैं।
हासिलें-मुशायरा ग़ज़ल-
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मुशायरे में जो सब से अच्छी ग़ज़ल हो उसे ‘हासिले-मुशायरा ग़ज़ल’ कहते हैं।
तो आइये दोस्तों हम सब अपनी-अपनी बेहतरीन शायरी से साहित्य अनुरागी परिवार में चार चाँद लगाते हैं।
[नोट- आज की बह्र का वज़्न है-
212 212 212 212
इस वज़्न पर किसी भी काफिया और रदीफ़ पर भी ग़ज़ल कहने के लिए आप सब आज़ाद हैं।
@अश्क चिरैयाकोटी]
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बह्र ए मुतदारिक़ मुसम्मन सालिम
२१२ २१२ २१२ २१२
ग़ज़ल
झूठ बिकता सरेआम बाज़ार में,
छापते हैं सजाकर वो अख़बार में।
लोग बातें सियासी करें इस तरह,
जैसे बैठे हों बेकार सरकार में।
हर तरफ़ तज़किरा-ए-सियासत चले,
हो गए हैं ख़फा दोस्त तक़रार में।
नासमझ थे उसे जाँ समझने लगे,
दर्द उसने हमें दे दिया प्यार में।
बन गयी ख़ूबसूरत ये मेरी ग़ज़ल,
बात तेरी करी है जो अश'आर में।
बात ईमान-औ-धर्म की जब चली,
मर गए थे कई लोग बेकार में।
'दीप' चाहे सुकूँ रूह का ऐ! ख़ुदा,
थक गया ढूंढ़कर जिस को संसार में।
जितेंदर पाल सिंह 'दीप'
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ग़ज़ल
वज़्न : 212 - 212 - 212 - 212
अरकान : फ़ाइलुन , फ़ाइलुन , फ़ाइलुन , फ़ाइलुन
बह्र का नाम : बह्र - ए - मुतदारिक़ मुसम्मन सालिम
आप दिल में हमारे समाने लगे।
ख़्वाब हम भी हसीं अब सजाने लगे।
मिल गया प्यार साजन का जबसे हमें-
इक घरौंदा नया हम बनाने लगे।
लाज से हो गये सुर्ख रुखसार तब-
जब इशारों में मुझको बुलाने लगे।
प्यार की रस्म कर दी अदा इस तरह-
प्राण प्रियतम मुहब्बत निभाने लगे।
ज़िन्दगी बन गए हैं वो कृष्णा मेरे-
दर्द में भी वो जबसे हँसाने लगे।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर
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ग़ज़ल
वज्न ... 212 212 212 212
अरकान .. फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
बह्र ... बह्र ए मुतदारिक मुसम्मन सालिम
...........
ये बसंती हवा यूं चले आजकल
छा रही है खुमारी मुझे आजकल
.......
धड़कने बढ़ गईं हैं दिलों की यहां
फूल बागों में खिलने लगे आजकल
......
बात जिनसे नहीं हो सकी मुद्दतों
वो तो ख्वाबों में आने लगे आजकल
.....
पूछते हैं यहां लोग हमसे यही
किन ख्यालों में गुम तुम हुए आजकल
.....
हाथ में हाथ ना हो कोई गम नहीं
दिल के अहसास में हो बसे आजकल
.....
इस कदर से वो शामिल हुए जह्न में
देख उनको ग़ज़ल कह रहे आजकल
......
बेवफाओं की महफ़िल सजी है यहाँ
बावफ़ा कैसे सिम्पल कहे आजकल
.......
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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वज़्न : 212 - 212 - 212 - 212
🏵🏵 अरकान : फ़ाइलुन , फ़ाइलुन , फ़ाइलुन , फ़ाइलुन
🌺🌺 बह्र का नाम : बह्र - ए - मुतदारिक़ मुसम्मन सालिम
🌹 क़ाफ़िया : अहंकार ( आर की बन्दिश )
🌳 रदीफ़ : को
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क्यों समझता नहीं अब मेरे प्यार को।
कौन सी बात जो चुभ गई यार को।
किस तरह से कहूँ आपसे प्यार है,
आप समझे नहीं जो मिरे प्यार को।
रख यकीं इतना तो हूँ तुम्हारी सदा,
बस तरसती रही मैं तो इज़हार को।
है नशा इश्क़ ये चढ़ रहा है मुझे,
क्यों भला दिल है बेचैन दीदार को।
अब कोई भी दवा काम आये नहीं,
मिल गया इक नया जख्म बेकार को।
नीलम शर्मा
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ग़ज़ल
वज़्न:२१२-२१२-२१२-२१२
अरकान: फाइलुन, फाइलुन, फाइलुन, फाइलुन
बह्र का नाम : बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
मैं तड़पता रहा तेरे दीदार को,
तूने ठुकरा दिया क्यूँ मेरे प्यार को।।
था बड़ा ही सुहाना सफ़र साथ में,
बेवफाई ने रोका है रफ़्तार को।।
दास्ताँ दर्द की अब ग़ज़ल बन गयी,
ज़ख्म कैसे दिखाऊँ मैं दिलदार को।।
रात तन्हा गुज़ारा है मैंने कई,
हार बांधे गले प्यार के हार को।।
जल गया था सजाये वो सपने सभी,
तुम बताओ छिपाऊँ कहाँ ख़ार को।।
अभय कुमार आनंद
लखनऊ उत्तरप्रदेश
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बह्र ए मुतदारिक़ मुसम्मन सालिम
२१२ २१२ २१२ २१२
दिल दीवाने का ऐसे न तड़पाइये,
रूठ कर आप हमसे न यूँ जाइये।
रहगुज़र है मुहोब्बत की मुश्किल बड़ी,
थाम कर हाथ मेरा चले आइये।
मुस्कुरा कर नज़र का झुकाना गज़ब,
हो गयी है मुहोब्बत न शरमाइये।
क्या ज़माने की बातों का करना गिला,
हमसफ़र ज़िन्दगी के न घबराइये।
लरज़िशे लब कहें कुछ हमें दिलरुबा,
पास आकर ज़रा आप फरमाइये।
दिल से दिल मिल रहे हैं हमारे सनम,
एक दूजे के दिल पर यकीं लाइये।
गुनगुनाने लगे आप नग़मात जो,
'दीप' ने हैं लिखे इश्क़ में गाइये।
जितेंदर पाल सिंह 'दीप'
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गजल
वज्न ....212 212 212 212
अरकान..... फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
बह्र.... बह्र ए मुतदारिक मुसम्मन सालिम
......
देख मौसम गुलाबी खिले आजकल
छेड़ने के बहाने मिले आजकल
वक्त छलने लगा जब मुझे इस क़दर
तो गिनाने लगे वो गिले आजकल
शाम यादें ग़ज़ल बन रही हैं यहां
होंठ हमने हैं अपने सिले आजकल
राज दिल के छुपाते रहे जो कभी
दाग़ दामन छुपा के जिये आजकल
छोड़ कर चल दिए हसरतों का समां
दिलजले अब बुझाते दिए आजकल
फूल बागों से तोड़े नहीं थे कभी
ज़ख़्म दिल के हमारे छिले आजकल
बात होती है सिम्पल वफ़ा की यहां
इश्क होते हवाई किले आजकल
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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