Friday, February 7, 2020

राजीवगण छन्द- Hindi poetry


Explained By - Shri Jitender  Pal Singh ji 
प्रिय साहित्य अनुरागियों,
मात्रिक छन्दों की अगली श्रंखला में हम १८ मात्रिक छन्द पर अभ्यास करेंगे। इसमें हम 'राजीवगण छन्द' अन्य नाम 'माली छन्द' पर अपनी उत्कृष्ट रचनाओं को अर्पित करेंगे। इस छन्द की जाति 'पौराणिक' है।
यति: ९ पर
दो अथवा चारों चरण समतुकांत।

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उदाहरण स्वरूप एक गीत रचना--

राजीवगण छन्द
१८ मात्रिक, यति ९ पर, जाति पौराणिक।

गीत (किन्नर)
मुखड़ा
अर्द्धनारेश्वर, क्या तूने दिया,
क्यूँ नहीं नारी, या नर है किया।

अंतरा
प्रेम भी हो तो, मैं किसको कहूँ,
पीड़ इस मन के, भीतर मैं सहूँ।
लोग हंसते तो, जलता है जिया,
अर्द्धनारेश्वर, क्या तूने दिया।--टेक

अंतरा
छोड़ मां बाबू, औरों से मिलूं,
झील आंखों की, आँसू से भरूँ।
कौन थामेगा, जीवन डोरिया,
अर्द्धनारेश्वर, क्या तूने दिया।

अंतरा
अर्द्ध नारी भी, नर भी हूँ यहाँ,
रूप तेरा ये, ले जाऊँ कहाँ।
नाम अपने सा, किन्नर है किया,
अर्द्धनारेश्वर, क्या तूने दिया।

अंतरा
भाग्य जो लिखदे, तू वो ही सही,
मान ली मैंने, लोगों ने कही।
होंठ अपनों को, मैंने है सिया,
अर्द्धनारेश्वर, क्या तूने दिया।

जितेंदर पाल सिंह
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राजीवगण छंद

१८ मात्रिक, ९-९ पर यति


कहूँ सुरांगना , कि कहूँ रूपसी,
काया कनक की , निखरे धूप सी।
नयन में निवास , मद ज्यों आब सी,
मन सुगंध व्याप्त,हो कली गुलाब सी।

विटप की छाया, उसी ने पाई
श्रम कर जिसने, थी वृक्ष लगाई
कानन काट हैं , नगरी बसाई
तभी तो देखो , बदली लजाई

3
सिसकती धरती, जलता तन-बदन,
पहाड़ भी मौन , पवन का क्रंदन।
ला पटका देख, मनुज कैसा क्षण ,
जीवित रहना है,तो सुन लगा वन।।

शब्दार्थ
सुरांगना -अप्सरा
आब - शराब

अभय कुमार आनंद
लखनऊ , उत्तरप्रदेश

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राजीवगण छन्द( माला छन्द)

पौराणिक जाति,
18 मात्रिक, 9 पर यति अनिवार्य,
ईश वन्दना

हे ! दीन दयाल,शुचि दयासागर,
हे कमलाकांत, प्रभू नट नागर,
हे दशावतार,करो कृपा नाथ,
रखो शरण सदा, धरो नेह हाथ।
***** ****** *****
सुनो चक्रपाणि,हरो भव बाधा,
कभी कृष्ण बनो,कभी प्रिय राधा,
प्रकृति संरक्षण,मत्स्यावतार,
जीवन सहेजा,प्रभू कृपाधार।
***** ***** *****
धारि मदरांचल, बन कूर्म नाथ,
वारिधी मंथन, दिया देव साथ,
हिरण्याक्ष धरा, पयोधि छुपाया,
धरि वारह रूप, अविनी बचाया।
***** ***** ******
तीन कदम धरे, जगत लियो नाप,
वामन अवतार, ईश लियो आप,
राम परशुराम, भये अवतारी,
माखन का भोग, मथुरा मुरारी।
***** ******* ****
हे! करुणानिधे, हरि त्रिपुरारी,
हे! नीरज नयन, कमल पद धारी,
तीनो लोक के, भाग्य विधाता,
हे! रमापति हरि, प्रेम सुखदाता।
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रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल"नन्दिनी"
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)

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 राजीवगण छंद (माला छंद)
१८ मात्रिक छंद, यति ९ वी मात्रा पर


२१२२२ २२२१२

द्वार मैं आया,माँ झोली भरो,
हाथ फैलाया,माँ झोली भरो।
हूँ अज्ञानी मैं,तू रास्ता बता,
आज माया तू,भक्तों पें जता।।

पार ये नैया,मेरी तो करो,
पाप ये सारे,मेरे भी हरों।
मूढ़ मैं मैया,द्वारे हूँ खड़ी,
आस में तेरे,शूलों से लड़ी।।

शीश ये मेरा,आगे है झुका,
कंठ ये मेरा,रो रो के सुका।
रूप शृंगारी ,देखूँ मैं तुझे,
रंग रूपेरी ,लागे तू मुझे।।

देख के आभा, नैना ये खिले,
धार साँसों की,साँसों से मिले।
ध्यान माता का,सारे जो करे,
कष्ट सारे तब,माता ही हरे।।

सुवर्णा परतानी
हैदराबाद ✍️


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