Explained By Shri Abhay Anand Ji Lakhnau
शुभोदर छंद
नमन साहित्य अनुरागी। साहित्य अनुरागी के समस्त गुणीजनों को नमन करते हुए मैं अभय कुमार आनंद आपके समक्ष नवाक्षर (९ वर्णिक) छंद की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए बेहद सुंदर छंद शुभोदर (भ भ भ) तीन भगण अर्थात
गुरु लघु लघु गुरु लघु लघु गुरु लघु लघु
लेकर उपस्थित हुआ हूँ।
मो गुणवंत शुभोदर। लेखत दिन सहोदर।
तो सम कौन सहायक।तूहि सदा सुखदायक।।
छन्द प्रभाकर।
वर्णवृत्तों में गणों का काम पड़ता है। तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं।ये गण 8 हैं। जिसकी चर्चा हमलोग पहले कर चुके हैं।आज हम अभ्यास करेंगे तीन भगण का ।भगण (गुरु लघु लघु) का अवतार सप्तम-भानुज(रामचंद्र), स्वामी- शशि, फल यश है। व्याख्या- भानुवंशी रामचन्द्र जी का शीतल यश संसार में विदित है। भगण में एक दीर्घ के पश्चात दो लघु स्वर का समान बल होता है।
१.शुभोदर छंद में तीन भगण होते हैं ।
२. चार चरण जिसमें चारों चरण समतुकांत या दो -दो चरण क्रमशः समतुकांत होते हैं
३. चरणान्त में यति
उदाहरण :
राम-सिया मनभावन।
बेहद रूप सुहावन।
राम वसें हिय अंदर।
हैं भगवान सहोदर।।
अभय कुमार आनंद
विष्णुपुर, बांका, बिहार व
लखनऊ उत्तरप्रदेश
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शुभोदर छंद(नवाक्षरवृति वार्णिक छंद)
[भगण भगण भगण
211 211 211
सोच सदा रख नूतन,
सार्थक और चिरन्तन।
मानवता सुख उत्तम,
बात यही अतिउत्तम।।
अन्तस हो मृदु धारक,
विश्व सदा सुख कारक।
अंतस पावन प्रेमिल,
हो उर सादर नेहिल।।
जातियता अति बाधक,
प्रेम बने सुख साधक।
पाठ रहे उर अन्दर,
जीवन हो अति सुन्दर।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर
[भगण भगण भगण
211 211 211
सोच सदा रख नूतन,
सार्थक और चिरन्तन।
मानवता सुख उत्तम,
बात यही अतिउत्तम।।
अन्तस हो मृदु धारक,
विश्व सदा सुख कारक।
अंतस पावन प्रेमिल,
हो उर सादर नेहिल।।
जातियता अति बाधक,
प्रेम बने सुख साधक।
पाठ रहे उर अन्दर,
जीवन हो अति सुन्दर।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर
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सादर 🙏 प्रेषित
मान पिया मनमोहन।
जान जिया मम जीवन।आन मिलो मुरलीधर।
प्राण बनो उर भीतर।
नीलम शर्मा
मान पिया मनमोहन।
जान जिया मम जीवन।आन मिलो मुरलीधर।
प्राण बनो उर भीतर।
नीलम शर्मा
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शुभोदर छंद
नवाक्षरवृत्ति वार्णिक छंद,
२११ २११ २११ (भगण भगण भगण)
जीवन का पल व्याकुल।
नैन बने अब आकुल।
बैरन हो तब सावन।
छोड़ गए जब साजन।
शूल चुभे मन अंदर।
आग लगे तन भीतर।
टूट चुकी मृदु चाहत।
आज हुयी प्रिय आहत।।
ये बरखा धुन जाचक।
जो खिलता नव मादक।
राग बने तब दाहक।
प्रेम जले बन नाशक।।
भाव जगे उर भीतर।
बेबस आज समंदर।
रास नहीं जग जीवन।
पार भए सब बंधन।।
सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
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"शुभोदर छन्द "
(नवाक्षर वर्णिक छन्द)
भगन भगन भगन
211 211 211
पावस मास सुहावन,
ये बदली मनभावन।
दादुर शोर मचावत,
है मधु गीत सुनावत।
शीत बयार बहावत,
सूखल पेड़ गिरावत।
लागत ॠतु भयानक,
बारिश होय अचानक।
देखत घोर घटा जब,
नाचत मोर खुशी तब।
खेत किसान हरा अब,
नाचत गाबत हैं सब।
शंकर राख लगावत,
नाग गले लिपटावत।
शोभत देव जटाधर,
सावन मास उमा घर।
रंजना सिंह "अंगवाणी बीहट"
बेगूसराय,बिहार
(नवाक्षर वर्णिक छन्द)
भगन भगन भगन
211 211 211
पावस मास सुहावन,
ये बदली मनभावन।
दादुर शोर मचावत,
है मधु गीत सुनावत।
शीत बयार बहावत,
सूखल पेड़ गिरावत।
लागत ॠतु भयानक,
बारिश होय अचानक।
देखत घोर घटा जब,
नाचत मोर खुशी तब।
खेत किसान हरा अब,
नाचत गाबत हैं सब।
शंकर राख लगावत,
नाग गले लिपटावत।
शोभत देव जटाधर,
सावन मास उमा घर।
रंजना सिंह "अंगवाणी बीहट"
बेगूसराय,बिहार
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"शुभोदर छन्द"
(नवाक्षर वर्णिक छन्द)
भगण भगण भगण
211 211 211
जीवन का सुख बाधक।
साधु सधे मुख साधक।
हूँ बलवान सहूँ तन ।
क्यू समझा नहि है मन।
विनी
(नवाक्षर वर्णिक छन्द)
भगण भगण भगण
211 211 211
जीवन का सुख बाधक।
साधु सधे मुख साधक।
हूँ बलवान सहूँ तन ।
क्यू समझा नहि है मन।
विनी
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🌹नवाक्षरवृत्त🌹शुभोदर छंद
भगण×3
211 211 211
🌹
सादर वन्दन मोहन,
स्वागत है मनमोहन।
आपहि जीवन दायक,
है जग पालक मोहन।
🌹
कानन कानन माधव,
आगम दर्शक माधव।
मोहक मादक मंगल ,
गोकुल रक्षक माधव।।
🌹🙏✍
अरविन्द चास्टा
कपासन चित्तौड़गढ़
___________________________
!!शुभोदर छन्द!!
(नवाक्षरवृति छन्द 9 वर्ण)
(भ भ भ) भगण भगण भगण
मापनी:- 211 211 211
विषय- माखन चोरी
गोकुल धेनु चरावत,
मोहन मात बतावत,
फोड़ दई दधि गागर,
मौन भये नट नागर।
*********************
क्षीर सखा सब खावत,
झूठहि नाम लगावत,
लेप लगाय दियो मुख,
नैनन देख मिले सुख।
********************
माधव वेणु बजावत,
गौ नित रेणु उड़ावत,
क्षीरज ग्वाल सखा मिल,
केशव गात गए खिल।
*******************
आँगन माधव खेलत,
मात यशोमति देखत,
चाँद सितार दिखावत,
मोहन गोद बिठावत।
********************
मोहक माखन खावत,
देख लाल मुस्कावत,
केश सुहावत कुंतल,
नीरज लोचन चंचल।
*********************
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल
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शुभोदर छन्द (वर्णिक)
भगण X 3 (211 211 211)
बंधन तोड़ दिए सब,
छोड़ शरीर चला अब।
मानस की गति ये बस,
छूट गए जग के रस।
मात-पिता बनिता सुत,
रोवत देख पड़ा मृत।
क्यूँ अभिमान करो जन,
छूटत निश्चित ये तन।
मानस जन्म मिला जब,
मोह तजो जग के सब।
कर्म करो बन सज्जन,
नाम जपो हरि का मन।
दुर्लभ मानस का तन,
भाग्य बड़े मिलता सुन।
पार करो भवसागर,
प्रेम भरो मन गागर।
ध्यान धरो हरि का नित,
लिप्त रहो पर के हित।
नाम लगे मनभावन,
भाग्य बने शुभ पावन।
जितेंदर पाल सिंह
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शुभोदर छंद-
211211211
जीवन रूप अलौकिक
मानव जीवन भौतिक
सागरिका सुख की यह
क्षीण शिखा दुख की यह।
शोभित रूप दिवाकर
प्राण भरे नित आकर।
पुष्प सुलोक लुभावन
भोर लगे अति पावन।
प्रेरक सत्य सनातन
नित्य करो अभिवादन
मात पिता गुरु प्रेरक
जीवन राह सुधारक।
मानवता अभिकारक
कोटिक प्रेम विचारक।
पाठ पढ़े नित सुन्दर
भाव भरे हिय अन्दर।।
वृक्ष हमें फल देकर,
दाम नहीं कुछ लेकर
है परमारथ जीवन
मानव प्राण सजीवन।
राह शिला बन आकर
प्राण सप्रेम निछावर।
राम बने शुचि तारक
प्रेम उपासक कारक।
गीता गुप्ता 'मन'
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शुभोदर छ्न्द(नवाक्षरवृत्ति वर्णिक छ्न्द)
211 211 211
सोच लिया मन में जब
काज तभी कर ले सब
ठोकर खा कर तू चल
सुन्दर जीवन है कल
.......
वर्ष नया यह है प्रिय
प्रेम बसे सबके हिय
हो शुभ लाभ सदा जग
बोलत कोयलिया खग
......
छाय रही खुशियां अब
गूंज रहा धरती नभ
बीत गया यह जो पल
सुन्दर हो अपना कल
......
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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शुभोदर छंद (नवाक्षरवृति वार्णिक छंद )
भगण। भगण भगण
211 211 211
ये मन हो अब साधक,
हो न यहां अब बाधक ।
प्रेम रहे मन अंदर ,
स्नेह जगे हर मंदर ।
पुष्प रहे मन पावन ,
फूल खिले हर सावन!
पेड़ सजे हर आँगन,
वृक्ष लगे जग साजन ।
प्यार सभी अब देकर,
प्रेम सभी अब लेकर !
मान सभी कर जाचक,
बोल मिठे कर वाचक ।
दो न यहाँ दुख मानव,
जीवन हो सुख दानव !
मान सभी जग में अब,
नाम चले नभ में अब ।
रजिन्दर कोर (रेशू)
अमृतसर
भगण। भगण भगण
211 211 211
ये मन हो अब साधक,
हो न यहां अब बाधक ।
प्रेम रहे मन अंदर ,
स्नेह जगे हर मंदर ।
पुष्प रहे मन पावन ,
फूल खिले हर सावन!
पेड़ सजे हर आँगन,
वृक्ष लगे जग साजन ।
प्यार सभी अब देकर,
प्रेम सभी अब लेकर !
मान सभी कर जाचक,
बोल मिठे कर वाचक ।
दो न यहाँ दुख मानव,
जीवन हो सुख दानव !
मान सभी जग में अब,
नाम चले नभ में अब ।
रजिन्दर कोर (रेशू)
अमृतसर
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नमन साहित्य अनुरागी 🙏
शुभोदर छंद211 211 211
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द्वंद बड़ा सहता मन ।
दर्शित किन्तु नही तन।।
घाव अनेक लिये हिय ।
होठ सदैव रखे सिय।।
आप लड़े उर में रण ।
देह नही लघु सा कण।।
मानस साक्ष्य बना रख ।
जीवन खार रहा चख।।
आज कहूं धीर धर ।
मंथन वो पीर कर।।
थाति रहे बन जीवन।
साथ यही घन सा वन।।
आत्म सुज्ञान बसे यह।
लेख विधान बदे सह।।
कर्म भले करता चल ।
राह नई गढ़ता चल।।
जो मिलता कह क्या कम।
लाभ नही दृग हो नम ।।
अर्पित जीव करूँ निज।
कष्ट सभी मन के तज।।
ललिता
शुभोदर छंद211 211 211
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द्वंद बड़ा सहता मन ।
दर्शित किन्तु नही तन।।
घाव अनेक लिये हिय ।
होठ सदैव रखे सिय।।
आप लड़े उर में रण ।
देह नही लघु सा कण।।
मानस साक्ष्य बना रख ।
जीवन खार रहा चख।।
आज कहूं धीर धर ।
मंथन वो पीर कर।।
थाति रहे बन जीवन।
साथ यही घन सा वन।।
आत्म सुज्ञान बसे यह।
लेख विधान बदे सह।।
कर्म भले करता चल ।
राह नई गढ़ता चल।।
जो मिलता कह क्या कम।
लाभ नही दृग हो नम ।।
अर्पित जीव करूँ निज।
कष्ट सभी मन के तज।।
ललिता