Wednesday, May 27, 2020

गीतिका_छंद - Hindi Poetry


Explained By Shri Hiren Arvind Joshi ji 
 नमन 🙏🏻
साहित्य अनुरागी के सभी अनुरागियों को नमन, वंदन। साहित्यिक छंद की अविरल बहती इस अलखनंदा में अपनी तुच्छ बुद्धि से अंजनी भर अर्घ्य अर्पण करने की कोशिश कर रहा हूँ। अभी तक हमने मात्रिक गीतिका छंद का अध्ययन किया है। आज वर्णिक गीतिका छंद यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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यह एक वर्णिक छंद है। #अथकृति: जाति का यह छंद #विशत्यक्षरावृति: है। अर्थात इसमें 20 वर्ण होते है। इस छंद का वर्ण विन्यास
सणण, जगण, जगण, भगण, रगण, सगण, लघु, गुरु
मापनी 112, 121, 121, 211, 212, 112, 1, 2
इसमें 12 और 8 वर्ण पर यति आती है।

।। #ईश_वंदना ।।
जगदीश हे! अखिलेश, अक्षय, आप पालनहार हो।
करुणानिधान कृपालु ईश्वर, आप तारणहार हो।
विनती करूँ मन से यही प्रभु, भक्ति का वरदान दो।
इतनी करो मुझ पे कृपा विभु, शुद्ध निश्छल ज्ञान दो।

उर में विभावन आपका बस, दृष्टि में छवि आपकी।
दिन रात ही जपता रहूँ प्रभु, माल्य मैं हरि जाप की।
सदमार्ग पे चलता रहूँ नित, आपका जब साथ हो।
सब विघ्न संकट दूर हो अब, शीश पे जब हाथ हो।

स्वरचित :- हिरेन अरविंद जोशी
वड़ोदरा

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#गीतिका_छन्द (#वार्णिक) विशत्यक्षरावृति: 20 वर्ण
अथकृति: जाति छन्द
वर्ण विन्यास:-सगण, जगण, जगण,भगण, रगण,सगण, लघु ,गुरु
मापनी:- 112,121,121,211,212,112, 1,2,
इसमें 12 और 8 वर्ण पर यति।
!! कृष्ण रूप!!

मुरली प्रिये मनमोहनी हरि,बाजती सुर रागिनी,
द्युति सी अलौकिक कौंधती प्रभु, माल माणिक दामिनी।
यदुराज लोचन नील नीरज, श्याम सुंदर साँवरी,
पट पीत सुंदर देह अम्बर,राधिका लखि बावरी।
*** *** *** *** ***
धरि शीश पंख मयूर मोहन,केश कुंतल भ्रामरी,
यमुना नदी तट बैठते सखि, श्याम गोकुल धाम री।
पग पैजनी मृदु गान शोभित,गोप ग्वालन नाचते,
कटि मोड़ मोहन बाँसुरी धरि,प्रेम माधव वांचते।
*** *** *** ***
***
मुरली मनोहर मोद मोदित, नैन मूंद बजा रहे,
शुचि भोर पावन स्वर्ण शोभित,मोरनी शुचिता गहे।
अँखियाँ शिलीमुख गात श्यामल,अंबु सी छवि श्याम की,
धरणी सजी बन राधिका सम,प्रेयसी घन श्याम की।
*** *** *** *** ***
चलती समीर अधीर शीतल,डूबते हरि नेह में,
नगरी बनी मृदु वाटिका सखि,भीगते रस मेह में।
नयना निहारत सोहनी छवि,श्याम की मनभावनी,
अभिराम लौकिक है अलौकिक,राधिका शुचि पावनी।।
*** *** *** ***
***
मिलते सखा नित भोर केशव,गौ चरावत संग में,
मटकी मही पटकी भरी सखि, प्रीत के मधु रंग में,
रचते सदा हरि रास मोहक, चीर ग्वालन के हरे,
यमुना सुशोभित श्यामली शुभि,नीर में पद को धरे।।
*** *** *** *** ***
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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गीतिका - छंद (वार्णिक ) विशत्यक्षरावृत्:
20 वर्ण
अथकृति : जाति छंद
वर्ण विन्यास :- सगण जगण जगण भगण रगण सगण लघु गुरु
मापनी :-112 121 121 211 ,212 112 1 2,
इसमें 12 और 8 वर्ण पर यति ।

मन से यहाँ लगते सभी दुर , हो रही पुतना खरी ,
विष ये सभी मन में रहे अब , देखती धरती हरी ।
जग जागता जरते यहाँ नित , ये भरे मन यूँ जले ,
चलते सभी अब चाल चंचल , चौकते मन झैलते ।

रजिन्दर कोर ( रेशू )

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मन, बीच सागर डोलता हरि,
आप ही अब तार दो।
भव भोग भक्षित भावना हर,
भव्य भासित सार दो।
कर दो कृपा करुणा करो कुछ,
पुण्यभानु न अस्त हो।
हम हेतु हों हितसेतु का हरि,
नीति मार्ग प्रशस्त हो।।

प्रिय! प्रेमपूरित प्रार्थना स्वर,
प्रेम से सुन लीजिए।
जगदीश जीवन शेष जो सब,
ज्ञान से गुन दीजिए।
सद्ज्ञान संचित सत्व सौरभ,
से सुवासित देह हो।
प्रभु आप अन्तर में रहो जब,
मात्र भीतर नेह हो।।

कर दो अनुग्रह हे पिता! अब,
आस को मत तोड़ना।
सुन लो दयानिधि दीन का दुख,
दास हूँ, मत छोड़ना।
वर विश्वनाथ विशेष देकर,
रंग दो उरवीथिका।
कर दी निवेदित हे जनार्दन!,
भाव से शुभगीतिका।

मणि अग्रवाल
देहरादून (उत्तराखंड)
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 गीतिका छंद
विशत्यक्षरावृत्ति का वर्णिक छंद,प्रत्येक चरण २० वर्ण
सगण जगण जगण भगण रगण सगण
लघु गुरु
१२ और ८ पर यति

११२ १२१ १२१ २११ २१२ ११२ १२

शिव पाप नाश अशेष व्यापक,ब्रम्ह मोक्ष स्वरूप है।
डमरू बजावत चेतना जड,ये महाशिव रूप है।
विकराल रूप कृपालु मंगल,ज्ञान से गुण से भरे।
सिर पें सजें शुभ चंद्रमा जब,ये सभी मद से हरे।।१।।

मुख है प्रसन्न प्रचंड उज्वल ,कान कुंडल शोभते।
नयना विशाल कृपालु सागर,भाव व्याकुल लोभते।
वह मुण्डमाल पिशाच राक्षस,भस्म भी तन धारते।
कर में त्रिशूल महेश राखत,शत्रु को नित मारते।।२।।

प्रिय गौर संग गणेश कार्तिक,साथ नन्दि सभी रहें।
तुम हो जलंधर पाप नाशक,नीलकंठ तुम्हें कहें।
जय हो अनंत कृपा करो तुम,नाश हो अब ये घड़ी।
प्रभु हाथ जोड़ अधीन हो कर, द्वार मैं कब से खडी।।३।।


सुवर्णा परतानी
हैदराबाद

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 गीतिका छंद (वार्णिक)
यह एक वर्णिक छंद है। #अथकृति: जाति का यह छंद #विशत्यक्षरावृति: है। अर्थात इसमें 20 वर्ण होते है। इस छंद का वर्ण विन्यास
सणण, जगण, जगण, भगण, रगण, सगण, लघु, गुरु
११२, १२१, १२१, २११, २१२ ११२, १२
इसमें 12 और 8 वर्ण पर यति आती है।

'साधना और त्याग'

तज आत्म-पुण्य करे निछावर, सर्व संचित ज्ञान को ।
सह धूप, वृष्टि, प्रचंड पावक , मृत्यु को,अवसान को ।
जिनकी कहे महिमा दिवाकर, धन्य है गुणगान वो ।
भय छोड़ साधक जो गहे सच, खोज ले भगवान वो ।।

यदि राम भी भयभीत होकर, भागते वनवास से ।
यह आर्य भूमि युगों-युगों तक, क्षारती भय त्रास से ।
पर हेत जो मनु त्यागते तन, कीर्ति है उनकी चरी ।
जस त्याग देह दधीचि निर्भय, देव आपद जा हरी ।।

रमेश विनोदी

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यह एक वर्णिक छंद है। #अथकृति: जाति का यह छंद #विशत्यक्षरावृति: है। अर्थात इसमें 20 वर्ण होते है। इस छंद का वर्ण विन्यास
सणण, जगण, जगण, भगण, रगण, सगण, लघु, गुरु
मापनी 112, 121, 121, 211, 212, 112, 1, 2
इसमें 12 और 8 वर्ण पर यति आती है।
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जब आतपी निशि,स्याह गव्हर,घाम लेकर घूमती।
छवि-चंद्रिका,बिखरी मनोहर,व्योम-आगर चूमती।
क्षण देख चंद्रक!चित्त-शामक,यामिनी बहला गई।
नयना खिले,कुछ नींद पाकर,भोर प्राकृत आ गई।

धन-धन्य है,तप-ताप आयुध,रश्मियाँ-सित छा गई।
रवि-रक्तिमा गह,दिप्त हो कर,ज्योतिका सहला गई ।
अचला,अनादि,अनंत ईश्वर!आदिनाथ दया करो।
शिव-साधिका,उपासिका हित,बूद्धि,ज्ञान-मया भरो।

हिय सौप के प्रभु आपके पग,याचना करती रहूँ।
चित-चेतना,विभु!आप से कब?साधना कर मैं गहूँ।
घन-घोर छा कर वेदना जब,साक्ष्य हो भव-भौतिकी।
निशि-याम मारग ढूँढ़ता मन,साधना,मम हेतुकी।

शुचि ज्ञान का अवदान पा प्रभु!कामना भव पार हो।
मति-मंद प्राण,प्रयाण-प्राकृत,पावनी जल धार हो।
हरि!गीतिका,उर-वीथिका अब,दीनता,तव हाथ है।
चरणों तले,लयता मिले कब?लीनता,नत माथ है।
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#रागिनी_नरेंद्र_शास्त्री

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गीतिका छंद

सुत अंजनी करते सदा बस,राम का गुण गान हैं।
प्रभु भक्ति अंग बसे सदा बस,माँगते वरदान हैं।
बन दास ही करते सभी कुछ,हैं समर्पित वो सदा
हनुमान का हर एक कारज,राम अर्पित हो सदा।

बन के सहायक राम साधक,लाँघ सागर को चले।
कर घोर वार प्रतार लंकिनि,वाटि में सिय से मिले।
प्रभु मुद्रिका सिय को दिखाकर,दूत चिह्न दिखा रहे।
बजरंग लंक उजाड़ते फिर,लंक शीघ्र जला रहे।

फिर राम रावण युद्ध में धर,वीर रूप उठा गदा।
रिपु को दिखाकर शक्ति सौष्ठव,जीतते रण सर्वदा।
वरदान पाकर राम से तुम,ईश भक्त कहाय हो
कर बद्ध है यह प्रार्थना बस,आंजनेय सहाय हो।

स्वरचित
डॉ. पूजा मिश्र #आशना

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गीतिका छन्द (वर्णिक ) विशत्यक्षरावृति: ,अथकृति:जाति छन्द
20 वर्ण
12 , 8 वर्ण पर यति
सगण जगण जगण भगण , रगण सगण लघु गुरु
112 121 121 211, 212 112 12,

मन पुष्प सा खिलने लगा जब , काव्य की रसधार में,
बजने लगे मन हो तरंगित , प्रेम के हिय तार में ।

करते अलंकृत हैं मुझे तब , काव्य की बरसात में ,
मन है प्रफुल्लित छेड़ती अब , रागिनी हर बात में ।

बरसे सुधा रस प्रेम से हिय , कौमुदी प्रतिमा बनी,
वसुधा सजी नव नील अम्बर , देखती मन भावनी।

मुरली मनोहर कृष्ण की प्रिय , राधिका वृषभान है,
बन मोरनी तब नाचते सब , ज्यों छिड़े सुर तान है।

सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज

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 गीतिका_छन्द (#वार्णिक) विशत्यक्षरावृति: 20 वर्ण
अथकृति: जाति छन्द
वर्ण विन्यास:-सगण, जगण, जगण,भगण, रगण,सगण, लघु ,गुरु
मापनी:- 112,121,121,211,212,112, 1,2,
इसमें 12 और 8 वर्ण पर यति।

कर के कृपा मुझ दासिका पर,स्नेह दो भर मोहना।
कर दूँ निछावर प्राण मोहन,आस्था तुम सोहना।।
चहुँ ओर प्रीत सुगीत है शुभ,चाँदनी नभ छा रही।
मन-मोर नाच रहा सखी वन, कोकिला मधु गा रही।।

मनमीत मोहन राधिका छवि, भूलती सुधि बावरी।
दृग जोहते पथ हैं मनोहर,प्रीति पावन रावरी ।।
वन,बाग,कानन वाटिका बसि,गौ चरावत मोहना।
खिलती प्रभा नित भोर केशव, बाल ग्वाल सु मोहना।।
नीलम शर्मा

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Tuesday, May 19, 2020

सारंग_छंद - Hindi Poetry



"जगती द्वादशाक्षरावृत "

12 वर्णिक छंद।
सारंग_छंद
तगण ×4
यथा
221 221 221 221


आये कहाँ से सभी जानना सार।
जाना कहाँ है हमे हो सकें पार।
उद्धेश्य क्या जन्म का ये सदा जान।
चारों युगों में यही प्रश्न है मान।

✍️अरविन्द चास्टा,कपासन चित्तौड़गढ़ राज।
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सारंग छंद

जगती द्वादक्षरावृत्त जाती छंद
१२ वर्णिक छंद,
२२१ २२१ २२१ २२१

वो आज आए नयी हो गयी रात।
है चाँद तारों सजी आज बारात।
लागे मुझे स्वप्न सी ये भरी बात।
वो साथ लाए नयी चंद सौग़ात।।१।।

मेरे जिया के सँवारे तुने साज ।
तेरे बिना हृदय आता नहीं बाज।
वो तो करे सिर्फ़ साथी तुझे प्यार।
मेरा भरोसा हुआ आज साकार।।२।।

थामा तुने हाथ हो एक आधार।
तू छोड़ जाना नहीं हो न ये वार।
हो प्रीत न्यारी,लागे पार संसार।
सारे सुखों की चले नित्य बौछार।।३।।


सुवर्णा परतानी
हैदराबाद

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सारंग छंद

१२ वर्णिक
२२१×४

ज्ञानी वही जो दिखाए सही राह,
लोभी नहीं वो रखें जो कभी चाह।
वो बाँटते हैं खुले हाथ से ज्ञान,
हैं देवता वो जिसे छंद का भान।।

अभय कुमार "आनंद"
विष्णुपुर, बाँका, बिहार व
लखनऊ,उत्तरप्रदेश

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सारंग छंद

तगण तगण तगण तगण
२२१ २२१ २२१ २२१


कल्याण का है यही एक आधार।
विश्वास संबंध का है सदा सार।।
होती कभी भी किसी की नहीं हार।
चारो दिशा में बहे प्रेम की धार।।


मानो कहा मित्र मेरा यही कथ्य।
है सृष्टि का मूलतः पूर्ण ये तथ्य।।
जीते हमेशा यहाँ मात्र ही सत्य।
देता उजाला सभी को यही पथ्य।।

कृष्णा श्रीवास्तव

हाटा,कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
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 सारंग_छंद

तगण ×4
यथा
22 1 22 1 221 221
कान्हा कृपाला जगाओ सदाचार।
आओ मुरारी मिटाओ दुराचार।।
गीता हमेशा रही न्याय आधार।
वेदों ऋचाओं समाया यही सार।।

आओ सहेजें धरा प्राण संचार।
चारों दिशाओं बसे प्रेम संसार।।
नाचे हिया मोर ज्यों मेघ मल्हार।
छाई घटाएँ किया बूंद श्रृंगार।।
नीलम शर्मा

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सारंग छन्द

(वर्णिक) 12 वर्ण ,
चार तगण 221×4
तगण तगण तगण तगण
221 221 221 221

उद्देश्य है आज मैं भी लिखूँ सार,
गीताञ्जली छन्द सारंग आधार।

साँईं करे साधना आज संसार ,
स्वरूप तेरा निहारूँ सजा द्वार।

गाती रहूँ मैं तुम्हारे सदा गीत,
गूँजे सदा प्रीत का साज संगीत।

सौभाग्य मेरे विधाता बढ़े आज,
सिंदूर की नाथ मेरी रहे लाज।

सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज

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सारंग छन्द- 12 वार्णिक

मापनी: 221×4
तगण, तगण, तगण ,तगण
चारो या दो दो चरण समतुकांत

काले घने मेघ मोती झरे रैन,
आओ सखा साँवरे ताकते नैन,
नाचे कलापी सखी री घिरे मेह,
बूंदे सुधा सी गिरी प्रेम की नेह
*** *** *** *** ***
रंगी पिया रंग भाये मुझे श्याम,
मेरा जिया बावरा हो करे काम,
गाती सुरीली कही कोकिला गीत,
राधा बताये सुनो कृष्ण की प्रीत।
*** *** *** *** ***
छेड़ी कहीं श्याम ने बाँसुरी तान,
देखें सभी ग्वाल बाला प्रभू शान,
राधा सुहानी लगे श्याम के संग,
चूमे शुभे गात फूलों भरे रंग।
*** *** *** *** ***
झूले पड़े हैं सखी आम की डाल,
झूलें मुरारी हिया देख बेहाल,
सारंग चूमे धरा शैल के गात,
डोले हवाएं करें फूल से बात।
*** *** *** *** ***
काली घटा में छुपे भाल से तुंग,
घूमे घटाएं फिरे झुंड से भृंग,
गाएं हवाएं सुहाने शुभा राग,
बाहें पसारें जिया में भरी आग।
*** *** *** *** ***
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)

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सारंग छंद
12 वार्णिक
221 221 221 221

तगण तगण तगण तगण

गाते रहे फूल पंक्षी चले तान ,
देखो यहाँ दीप गाएं सुने राग ।
छाई घनी ये घटा मोर का नाच ,
गाना यहाँ गा रहा आग सी आच ।

रजिन्दर कोर ( रेशू )

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 सारंग छंद (१२ वर्णिक)
तगण×४( २२१×४)
दो अथवा चारों पड़ समतुकांत



मेरा जिया माँगता है पिया साथ,
आओ पिया जी यहाँ थाम लो हाथ।
दूरी सताने लगी है मुझे रात,
तेरे बिना हैं अधूरी सभी बात।

टूटा हुआ ये जिया जोड़ दो मीत,
आओ निकट प्रेम के गा पिया गीत।
पक्षी बजाने लगे कूक के साज,
छोड़ो पिया व्यर्थ ये नित्य के काज।

देखो घटा छा गयी छुप रहा व्योम,
देही खिली देख के हर्ष में रोम।
टूटे न देखो कहीं प्रेम की रीत,
जाऊँ कहाँ तू बता संग है प्रीत।

पाया पिया संग तेरा मिला प्रेम,
जागी नहीं आज टूटा पिया नेम।
सोई नहीं रात को हो गयी भोर,
पक्षी मचाने लगे हैं यहाँ शोर।

ठंडी चले भोर की हवा जाग,
गाने लगे देख पक्षी नया राग।
लाली बिखेरी जली सूर्य में आग,
आया जगाने हमारे यहाँ काग।

जितेंदर पाल सिंह

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Saturday, May 16, 2020

"स्त्रग्विणी_छंद" Hindi Poetry





"जगती द्वादशाक्षरावृत "

12 वर्णिक छंद।



"स्त्रग्विणी_छंद"

रगण×4

यथा

212 212 212 212


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स्रग्विणी छंद

१२ वर्णिक छंद

२१२ २१२ २१२ २१२


जाग नारी तुझे जागना है अभी।

ख़त्म होगी सभी मुश्किलें तभी।

आँख कोई उठा के तुझे देख ले।
वो बुरी सोच से हाथ जो सेक ले।।१।।

तोड दो मोड दो जो तुझे तौलता।
बात ही बात में लात से बोलता।
भोग की चीज़ तू ये सदा वो कहे।
वासना से भरा रूप तू क्यूँ सहे?।।२।।

राह में शूल ये डाल के है चला।
शील वो नोच के मर्द काटें गला।
मौन बैठो न यूँ आग ज्वाला बनो।
आज काली लगो आज दुर्गा बनो।।३।।

सुवर्णा परतानी
हैदराबाद

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स्रग्विणी छंद

१२ वर्णिक छंद

२१२ २१२ २१२ २१२

रगण रगण रगण रगण

प्रीत के गीत प्राणेश गाने लगे।

मुग्ध हो वे मुझे भी लुभाने लगे।।

झूम झूला पिया जी झुलाने लगे।

रात मेरी खुशी से सजाने लगे।।

नेह के कंत मैं गीत गाती रहूँ।

प्रीत की रीत मैं भी निभाती रहूँ।।

प्रेम संगीत ही मैं सुनाती रहूँ।

मार्ग में पुष्प ही मैं बिछाती रहूँ।।

कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
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स्त्रग्विणी छंद

☘️

वो कहे जा रहे राज की बात है।

दर्द का साज भी दे रहा साथ है।

रोक लेना उसे है कहाँ हाथ में।

काश! माने हमारी भरी रात में।
☘️
भेद देखे नही जीत या हार में।
चोट खाये वही जानता प्यार में।
जान ले दुःख जो और के यों सभी।
प्रीत का ये घड़ा रीतता ना कभी।
☘️
थाम लेना उसे कष्ट में जो मिले।
फूल भी है वही धूप में जो खिले।
झाँक लो आज ही भीतरी द्वार में।
प्यार ही प्यार है प्रेम संसार में।
2122 1221 2212
✍️
अरविन्द चास्टा
कपासन चित्तौड़गढ़ राज।

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 स्त्रग्विणी_छंद
रगण×4
यथा

212 212 212 212
देह मैं, प्राण हो, आप ही साँवरे,
नैन को, दर्श दो, हो रहे बाँवरे।
त्याग दोगे मुझे, आप यों मोहना,
वारती क्यों हिया, आपको सोहना!!

दूरियाँ, जेठ की, धूप के ताप सी,
मूक आत्मा जपे, आपको जाप सी।
आ सको जो नहीं, जीव को मुक्ति दो,
श्याम स्वीकार लो,आप यों भक्ति को।।

धीरता, आप सी, राधिका में नहीं,
श्वांस है, बंध में, आप में, ही कहीं।
पाश को तोड़ पी,छोड़ भी दीजिए
जीर्ण को पूर्ण में, जोड़ भी लीजिए।।

कष्ट क्या, आप मेरा, नहीं जानते?
क्या मुझे, प्राणप्यारी नहीं मानते?
यों बताओ,न सच्ची रही प्रीति क्या?
दे रहे वेदना, है सही नीति क्या?

मणि अग्रवाल
देहरादून (उत्तराखंड)

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 #स्त्रग्विणी_छंद
रगण×4
यथा

2 12 2 12 21 2 212
आसमां आप हैं मैं धरा हूँ पिया।
आज खोलो पिया भेद जो है हिया।।
चैन पाऊँ कहाँ श्याम देखे बिना।
रैन बीते वियोगी सुनो साजना।।

प्रेम के साँवरे गा रही गीत मैं।
प्रेयसी पीर भी पा रही प्रीत में।।
आस का दीप कान्हा जगादो मना!
आँसुओं को दृगों से हटा दो बना।

आपके नेह ने ही सँवारा मुझे।
आभ सी देह में है निखारा मुझे।।
क्षीर में नाव के हो खिवैया बनें।
आप तूफान में श्याम नैया बनें।।
नीलम शर्मा

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स्त्रग्विणी_छंद
रगण×4
यथा

212 212 212 212

शीर्षक- बाँसुरी

बाँसुरी माँगती राधिका श्याम से,
सौत सी हो गई बाँसुरी नाम से,
लेटती होठ में श्याम की प्रेयसी,
श्याम को भा रही बाँसुरी रूपसी,
*** *** *** *** ***
राधिका बाँसुरी श्याम से ले गई,
नैन से प्रीत के बोल भी दे गई,
जी नही पाऊँगा राधिका के बिना,
श्याम पूरा नही बाँसुरी के बिना।
*** *** *** *** ***
प्रेम की रागिनी बाँसुरी गा रही,
बावरी राधिके तू सता क्यों रही,
यूँ चिढाना बुरा है सताना बुरा,
बाँसुरी प्रीत है यूँ छिपाना बुरा।
*** *** *** *** ***
प्रीत की मीत राधा रहोगी सदा,
नेह की डोर से ही जुड़ी हो यदा,
बाँसुरी से नही बैर कोई प्रिया,
राधिका प्राण हो श्याम की हो हिया।
*** *** *** *** ***
रूठना छोड़ दो पास आओ जरा,
श्याम तेरा प्रिये व्योम सा तू धरा,
बावरे नैन में खो गई राधिका,
नेह की बाँसुरी की बनी साधिका।
*** *** *** *** ***
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)

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स्त्रग्विणी छन्द
रगण ×4
रगण रगण रगण रगण

212 212 212 212

मोह से हूँ घिरा मैं करूँ प्रार्थना,
नाथ तेरी दया मैं करूँ अर्चना।
प्रेम ही भक्ति है प्रेम ही साधना,
मैं सदा ही करूँ नाथ आराधना।

पाप से मैं बचूँ सत्य ही मैं कहूँ,
प्रेम का दीप मैं यूँ जलाती रहूँ।
तू मुझे शक्ति दे तू मुझे राह दे,
डूबने हूँ लगी तू मुझे थाह दे।

सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज

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स्त्रग्विणी छंद
२१२ * ४


प्रेम का दीप कोई जलाता चले
नीड़ को आँधियों से बचाता चले

शब्द फूटें नहीं मौन संवाद हो
ज्ञान वैराग्य का भक्ति का नाद हो
मग्न हो के सुने शब्द सारे सभी
शांति का गीत ऐसा सुनाता चले
प्रेम का दीप कोई जलाता चले

विश्व कल्याण को त्याग सर्वस्व दे
और आगे बढ़े जीत का अश्व ले
वो स्वयं जो यहाँ आज स्वच्छंद हो
कैद से पंछियों को उड़ाता चले
प्रेम का दीप कोई जलाता चले

ले सहारा नहीं जो कभी ढाल का
राह भी मोड़ के वो चले काल का
बुद्धि से शौर्य से और विश्वास से
राह पाषाण में भी बनाता चले
प्रेम का दीप कोई जलाता चले

आयुष कश्यप

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स्रग्विणी छंद
212 212 212 212
साजना प्रीत को यूँ निभाना सदा
याद मेरी हिया में बसाना सदा।
मैं हुई बावरी प्यार में यूँ पिया
प्रेम की आँच में है जले ये जिया।।

ओढ़नी लाल मेरी कहे साथिया
प्यार को छू लिया,प्यार को पा लिया।
गीत गाती रहूँ प्रेम की रीत के
ढाल ली ज़िन्दगी रंग में मीत के।।

बाँध लेना मुझे प्रेम की डोर से
ज्यूँ सजे आसमाँ लाल सी भोर से।
राधिका मैं लगूं वो बिहारी लगे।
प्रेम का ही मुझे वो पुजारी लगे।।


स्वरचित
डॉ. पूजा मिश्र #आशना
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मापनी--212 212 212 212
रगण ×4


#स्त्रग्विणी___छंद
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प्रेयसी मैं तुम्हारी हमेशा बनूँ।
आँगना में रहूँ मैं हमेशा खिलूँ।
रात रानी खिली चाँदनी रात में ।
भोर को ही मरी जो पड़ी राह में।

प्रेम के प्रीत में थी छली भैरवी।
आस के रोग से थी खिली सौरवी।
आग ही तो लगी जो जली मानवी।
प्यार की चाह में वो चली साधवी।

विनी

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 स्त्रग्विणी छंद

212 212 212 212

प्यार से यूँ सदा बात होती रहे ,
मान से यूँ सभी राह आती रहे ।
दीप कोई जले प्रेम का तो चले ,
प्यार का साथ हो हाथ हो तो चले ।

रजिन्दर कोर ( रेशू )

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 #स्त्रग्विणी_छंद-रगण×4
212 212 212 212

आस के दीप से, नव्य को साधती,
नव्य की नव्यता, प्राण को मोहती।
काँपते-गात को, धूप है चीरती ,
है,कहीं दीनता? दीन को बोधती ।

हे सखे! ये कहो, कौनसी भू-मिती?
क्या,सही या कमी,राज ये खोलती?
नव्य है,ये दिवा, नव्य है,ये दिती,
जो गया, सो गया,धीरता बोलती।

सोचते ही रहे,शेष-अभ्यर्थना ,
बंद नैना, प्रिये ! सत्य की वाँछना।
नैन यूँ बोलते, साक्ष्य को ढूँढ़ना,
चित्त को छेदते, राज को खोलना।

गर्त में डूबती, लिप्त संकल्पना,
गंध को सूँघती, मौन हो वासना ।
दूर ही है खडी़ ,धीर की अल्पना,
दूर से देखती,नव्य की कल्पना।
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रागिनी_नरेंद्र_शास्त्री

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"जगती द्वादशाक्षरावृत"
12 वर्णिक छंद
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स्त्रग्विणी छंद
रगण×4
212 212 212 212
गीत
अधूरी रही ..

जिंदगी में कमी बंदगी की रही
बात कैसे कहूँ जो अधूरी रही।

साथ मेरे कहाँ चालबाजी हुई
वो पुरानी कहानी न पूरी हुई।
फूल शेफालिका के बिखेरे कभी
वेदना की सही मौन पीड़ा तभी
ऐ बिछोही ,सभी पीर मैंने सही।
बात कैसे कहूँ ,जो अधूरी रही।

ये सही है कहाँ ,भूलती हूँ तुम्हें
जो रुलाये वही , गीत भाता हमें।
बादलों में लिखी ,कामना वो सभी
माँगती ही रही ,आप से जो कभी।
थाम के हाथ जो ,मैं बुलाती रही
बात कैसे कहूँ ,जो अधूरी रही।


बात तो मानते,रार को टालते
साथ मेरे सभी प्रास.को पाटते।
नेह पुष्पों सजी पालकी थी खडी
देख लो साथिनें वो सभी थी अड़ी।
साथ ले याद डोली चढ़ी जा रही ।
बात कैसे कहूँ ,जो अधूरी रही।

छंद मेरे अधूरे ,रहे आज भी
गीत गाते हुये तो चुभे साज भी।
प्यार की साध ले मैं बनी जोगिनी
रात रानी सजाती रही योगिनी।
साँस की बीन पे नाचती ही रही
बात कैसे कहूँ जो अधूरी रही।
पाखी

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स्त्रग्विणी छंद
२१२x४(वर्णिक छंद; १२ वर्ण)
दो अथवा चारों चरण समतुकांत



धुंधला - धुंधला साँझ का धुँआ,
साजना तू छिपा दूर जाके कहाँ।
आ रही है मुझे याद तेरी पिया,
और लागे कहीं भी नहीं ये जिया।

वेदना मैं कहूँ जा किसे ये बता,
लौट आ तू नहीं यों मुझे सता।
प्रेम - बंधन टूटे नहीं जान लो,
हाथ छूटे नहीं ये कभी मान लो।

द्वार पे हूँ खड़ी देखती हूँ घड़ी,
क्यूँ न आये पिया सोचती हूँ खड़ी।
रैन भी छा गयी ये जिया भी डरे,
नैन नींदे नहीं आँसुओं से भरे।

पीड़ मेरे जिया की नहीं जानते,
बात मेरी कभी भी नहीं मानते।
लौट कर आ गए देख पक्षी सभी,
मैं निहारूँ तुझे तू न आया अभी।

आ गए तो बनाओ न बातें नयी,
देखकर जान में जान ही आ गयी।
यों न जाना कभी छोड़कर तू मुझे,
बात मानो पिया हाथ जोड़ूँ तुझे।

जितेंदर पाल सिंह