"जगती द्वादशाक्षरावृत "
12 वर्णिक छंद।
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☘️1
"भुजंगप्रयात_छंद "
यगण ×4
यथा
122 122 122 122
चलो आज ऐसी कहानी बनाएं।
किसी गाँव में रात साथी बिताएँ।
कहें बात कोई खिले फूल प्यारे।
जगे भावनाएँ मिटे बैर सारे।
✍️
अरविन्द चास्टा
कपासन चित्तौड़गढ़ राज।
अरविन्द चास्टा
कपासन चित्तौड़गढ़ राज।
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भुजंग प्रयात छन्द( वर्णिक; १२ वर्ण)
चार यगण(१२२×४)
अपदान्त गीतिका
लगा प्रेम का रोग ऐसा पुराना,
पिया नाम की नित्य माला फिराना।
वियोगी जिया कोयले सी जलूँ मैं,
धरा जोगनी भेष आत्मा तपाना।
जिया कष्ट भारी किसे मैं सुनाऊँ,
हुआ दूर के देश तेरा ठिकाना।
खड़ी द्वार सन्देश-वाही निहारूँ,
कभी भेज दे पत्र कोई सुहाना।
भरे आँसुओं से पिया दो कटोरे,
मिलो आन स्वामी नहीं यूँ रुलाना।
नहीं तीज त्योहार कोई सुहाये,
मुझे रूप श्रृंगार भूला सजाना।
लगी पी हिया आज होली मनाऊँ,
पिया अंग से रंग मोहे लगाना।
जितेंदर पाल सिंह
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भुजंग प्रयात छंद(वर्णिक,कुल १२ वर्ण प्रति चरण)
यगण×४
१२२ १२२ १२२ १२२
जहाँ चाह प्यारे, वहीं राह प्यारे,
सभी निर्गुणों का, करो दाह सारे।
तपी जो बने वो, करे काम अच्छा,
तजे मोह को वे, तजे देख इच्छा।।
यहाँ लोग देखो पिलाते लहू को,
भरे लोभ से जो, जलाते बहू को।
घड़ा है भरा पाप, अन्याय स्वामी,
तुम्हीं पे भरोषा, करो न्याय स्वामी।।
अभय कुमार "आनंद"
विष्णुपुर,बाँका,बिहार व
लखनऊ उत्तरप्रदेश
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भुजंग प्रयात छंद (गीतिका)
(वर्णिक छंद १२वर्ण )
चार यगण [ १२२ ×४ ]
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बही सी नदी थी बही जा रही थीं।
रुकी ना मरी वो चली जा रही थीं।।
कहानी तभी से लिखी जा रही थीं।
निर्मोही पिया से खिंची जा रही थीं।
निभाई पुरातन शिक्षा जो सही फिर,
सभी बेटियाँ क्यों जली जा रही थीं।
वसीयत लिखी जो तुम्हे सौंपकर वो,
तुम्हे ही समर्पित कही जा रही थीं।
निभाई सगाई दिवानी बनी वो ,
विदाई विनी की हुई जा रही थीं।
विनी सिंह
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भुजंग प्रयात छंद
१२२ १२२ १२२ १२२
सुनो,ये सखी बात मेरे हिया की,
बड़ी याद आवे मुझे तो पिया की।
कहाँ वो गए है पता तो लगाओ,
मुझे वो छवी आज प्यारी दिखाओ।।१।।
अधूरी रहे ना हमारी कहानी,
जलाए हिया को सदा ये वीरानी।
कभी मैं किसी को दशा जो बताऊँ,
भरे नैन के नीर कैसे छुपाऊँ?।।२।।
थमी आस जो तो बुझेगा दिया रे,
गड़ी आँख है राह देखे पिया रे।
जले रोम मेरे किसे ये दिखाऊँ ?
छले वो घड़ी आज कैसे मिटाऊँ?।।३।।
सजा प्रीत में क्यूँ करारी रही है,
लड़ी साँस की ये दबी जा रही है।
निहारो कभी या सँवारो भले ही,
उतारो जिया में लगाओ गले भी ।।४।।
सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
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भुजंगप्रयात छन्द
(वर्णिक छन्द) 12 वर्ण,
चार यगण 122×4
यगण यगण यगण यगण
122 122 122 122
करूँ नाथ सेवा तुझे ही पुकारूँ,
सदा रूप तेरा यहाँ मैं निहारूँ।
सजा द्वार तेरा बजे ढोल घंटा,
हुआ शंख का नाद मेरे अनंता।
मुझे नाथ तेरा सदा ही सहारा,
तुम्हें ही भजूँ मैं तुम्हीं ज्ञान धारा।
झुकाऊँ सदा शीश मेरे मुरारी,
करूँ साधना मैं बना हूँ पुजारी ।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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"जगती द्वादशाक्षरावृत "
12 वर्णिक छंद।
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☘️1
यगण ×4
यथा
122 122 122 122
जपूँ शारदे माँ,भजूँ शारदे माँ।
गहूँ शीष माता,मुझे तारदे माँ।।
भरे नैन आँसू,जलूँ दीप बाती।
हिया पीर भारी,मुझे है रुलाती।।(१)।।
सुनो श्याम कान्हा,कुहू को मिटाओ।
करो आस पूरी, हिया से लगाओ।।
निशा चंद्र डूबा, अंधेरे सवेरे।
उजाले करो मेघ छाए घनेरे।।(२)।।
नीलम शर्मा
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भुजंगप्रयात छंद
१२२ १२२ १२२ १२२
यगण यगण यगण यगण
तुम्हीं से सजा है प्रिये!स्वप्न सारा।
तुम्हीं में मिला है मुझे रत्न सारा।।
तुम्हीं से मिला है मुझे तो सहारा।
तुम्हीं से जुड़ा नेह का बंध प्यारा।।
बने प्यार का ही घरौंदा निराला।
सदा प्रेम का ही मिले मित्र प्याला।।
दिलों में सदा प्रेम की पुष्प माला।
रहे फैलता ही दिलों में उजाला।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
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जगतीद्वादक्षरावृत 12 वार्णिक
भुजंगप्रयात-छन्द
122×4 अर्थात यगण × 4
दो दो या चारो चरण समतुकांत
शीर्षक:- द्रोपती चीर हरण
प्रभू द्रोपदी की, सुनो पीर भारी,
सभा मे पुकारे, बचाओ मुरारी।
खड़े ताकते हैं, यहाँ लोग सारे,
अकेली खड़ी हूँ, बनो हे! सहारे।
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झुकाए खड़े हैं, सभी शीश ऐसे,
हुए पाप कोई, यदा द्रोपदी से।
सभी मौन साधे, खड़े पंच स्वामी,
मुझे घूरते हैं, प्रभू घोर कामी।
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मुझे हार बैठे, लगा दांव मेरा,
कहाँ हो विधाता, हरो ये अंधेरा।
हरो पाप कान्हा,सखे हाथ देना,
रखो लाज मेरी, विभे साथ देना।
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बिहारी मुरारी, व्यथा क्या बताऊँ,
हरें चीर मेरा, बता क्या बचाऊँ।
चहुँ ओर मेरे, खड़े घोर पापी,
सखे ! दानवों ने, सभी रेख नापी।
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प्रभू आ गए हैं, सुनी प्रार्थना तो,
थके काम क्रोधी, मिटी कामना वो,
पुकारो मुझे मैं, सदा साथ दूँगा,
सखा हूँ सभी का, सखा ही रहूँगा।
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रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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भुजंगप्रयात
122 122 122 122
दो दो अथवा चारोँ चरण सम तुकांत हो।
जिया में भरा भार क्यों द्वेष का ही?
अहो!दीखता ढोंग क्यों शेष सा ही!!
दया भाव देखो विदा हो रहा है!
कहाँ रुष्ट दाता बता सो रहा है?
भला कौन ऐसा जिसे बोल पाऍं?
कि देखो जहाँ घात पातीं दुआएँ!
घरौंदे सुखों के हुए नष्ट सारे!
करो युक्ति, सूखें न उद्यान प्यारे!!
बचा लो-बचा लो, धरा टेरती है!
न उद्धारकर्ता मिला हेरती है!
चले आइये नाथ संत्रास भारी!
बढ़ा जा रहा क्षोभ उम्मीद हारी!!
वृथा आज सारी मनोकामनाएँ!
बताओ प्रभो! कौन द्वारे सुनाएँ?
पुनः मोड़ दो वो सु-बेला सुहानी।
कहीं अंत पावे अधर्मी कहानी!!
मणि अग्रवाल
देहरादून
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भुजंगप्रयात धंद
(वर्णिक छंद) 12 वर्ण ,
चार यगण
122 122 122 122
रही ही सदा प्रभु से आस मेरी ,
करूँ मैं हमेशा पुजा नाथ तेरी ,
बने ये जहां यूँ फुलों की क्यारी ,
बची पास मेरे महीमा तुहारी ।
रजिन्दर कोर (रेशू)
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पहली बार भुजंगप्रयात छंद पढ़ने का अवसर मिला । एक ही बैठक में प्रस्तुत सभी छंदों को पढ़ बैठा । बहुत ही भावविभोर हो गया । इस छंद में लिखने का प्रयास करूँगा । आपकी साहित्य साधना को विनम्र प्रणाम ।
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