Explained By - Shri Hiren Arvind Joshi ji
🙏नमन साहित्य अनुरागी 🙏
साहित्य के प्रति अनुराग रखने वाले सभी अनुरागियों को मेरा सादर प्रणाम।
।। सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् ।।
अर्थात साथ चलें मिलकर बोले।
ऋग्वेद के इस श्लोक से स्पष्ट होता है ज्ञान का विराट स्वरूप पाने हेतु, हम सब साथ मिलकर अभ्यास करें। ज्ञान परस्पर आदान प्रदान करने से बढ़ता है। साहित्यिक सृजन के ज्ञान में वृद्धि हेतु आज एक नया छंद सीखते है।
अरुण_छंद
यह महादैशिक जाति का छंद है। यह मात्रिक छंद है अत: वाचिक भार मान्य है परन्तु चरणांत शुद्ध लघु-गुरु से होना चाहिए। इसके चार चरण होते है। प्रति चरण २० मात्राएँ होती है। यति ५-५-१० पर होती है। इसे सरलता से ऐसे समझ सकते है। (रगण) × 4। मात्रा इस प्रकार
२१२, २१२, २१२ २१२,
।। कृष्णोपदेश ।।
पुण्य है, पाप है, कर्म तो कर्म है।
जीत हो, हार हो, युद्ध ही धर्म है।
कौन है, सामने, सोच मत तू जरा।
युद्ध कर, युद्ध कर, युद्ध ही कर्म है।।१।।
रोक ले, भाव को, कौन तेरा यहाँ।
वीर सी, बात कर, घात कर तू यहाँ।
क्षत्र है, जन्म से, क्षत्र ही धर्म है।
युद्ध कर, युद्ध कर, युद्ध ही कर्म है।।२।।
शत्रु बन, सामने, बन्धु बान्धव खड़े।
सत्य है, किन्तु यह, वो अधर्मी बड़े।
साथ दे, धर्म का, कर्म ही धर्म है।
युद्ध कर, युद्ध कर, युद्ध ही कर्म है।।३।।
ज्ञान हूँ, योग हूँ, मैं स्वयं धर्म हूँ।
जन्म मैं, काल मैं, मैं स्वयं ब्रह्म हूँ।
ज्ञान ले, वेद का, वेद का मर्म है।
युद्ध कर, युद्ध कर, युद्ध ही कर्म है।।४।।
स्वरचित :- हिरेन अरविंद जोशी
आप सभी इस छंद पर अपना सृजन काव्य यज्ञ की आहुति स्वरूप कमेंट बॉक्स में प्रेषित कर सकते है।
हिरेन अरविंद जोशी
साहित्य अनुरागी
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🌹अरुण छंद
रगण ×4
5-5-10 यति
☘️☘️☘️☘️☘️
साँझ का ,दृश्य है ,छा गई लालिमा ।
तृप्त है ,नैन ये, छिप रही ये रश्मियाँ।
लौट के, आ रहे, खगविहग नीड़ पर।
घण्टियाँ, गूँजती, स्वर लिए पीड़ हर।
🌹
शंख का , नाद ये, गा रहा ध्यान कर।
आरती , कह रही , ईश का गान कर ।
चन्द्र की, कौमुदी , फैलना चाहती।
धैर्य को , आस को , प्यार को जाँचती।
🌹
काव्यमय, लेखनी , सत्य है कर्म है।
साँच को , लिख सके , धर्म है मर्म है।
भाव को , बाँध ले, शब्द के रूप में।
आस ना, छोड़ती, अंध से कूप में।
🌹
छंद में, गीत में, कर रहा कामना।
हर कदम, साथ दो , आप ही थामना।
सुर सजे , गान हो , आपकी हो कृपा।
शारदे , माँ वरो, दास पर हो कृपा।
☘️✍️
अरविन्द चास्टा
कपासन चित्तौड़गढ़ राज।
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अरुण छंद ( 20 मात्रिक)
महादैशिक जाति
5,5,10 पर यति
चरणान्त: लघु गुरु(12)
212, 212, 212 212
प्रियतमा, जी रहा, हूँ तुम्हारे लिए,
साथ में, प्रेम के, हम जलाएँ दिए।
चाँदनी, रात में, पास आओ प्रिये!
प्रेम के, हैं वचन, साथ तेरे किए।
प्यार को, प्यार से, हम निभाने लगे,
तुम नहीं, पास जो, रात भर हम जगे।
ये विरह, की बहुत, आग मन में जले,
क्या कहूँ? मैं तुझे, क्या हृदय में चले?
जग जले, तो जले, प्रेम हमने किया,
मन वचन, कर्म से, प्रेम प्याला पिया।
प्रेम की, डोर ने, बाँध हमको लिया,
तुम नहीं, छोड़ना, हाथ मेरा प्रिया।
रोग हिय, को लगा, ये भला क्या करें?
साथ में, जी सकें, साथ में हम मरें।
सोचते, क्यों नहीं? हो हमारे लिए,
दूरियाँ, ये मिटा, दो सदा के लिए।
देखते, देखते, नैन अपने मिले,
हो कृपा, राम की, सब रुकावट टले।
सोचता, हूँ तुम्हीं, से घरौंदा सजे,
हो प्रणय, से मिलन, और बाजे बजे।
जितेंदर पाल सिंह
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अरुण छंद
महादैशिक जाति
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मापनी--२१२, २१२,२१२ २१२
५,५,१०चरणान्त (लघु गुरु )१२
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पाप के ,रूप में ,भोग तो आप से ।
रोग जो ,पा लिया ,मर्म भी जान ले।
रूप ही, रोग है , बात तो मान लो।
सोच को,साथ लो,ज्ञान को जान लो
प्यार तुम ,साथ हो, प्रेम से बांध लो।
रागिनी , संगिनी, बन्दनी मान लो।
पार हो, जिंदगी, चाह भी राह भी।
साधना ,कामना, थामना हाथ भी।।
राम की, वेदना, जानकी जानती।
फिर समा,वो गई,जो धरा में सती।
ईश की ,इष्ट थी, वो सिया राम की।
प्राण से,मुक्ति की,पुण्य से प्राप्ति की।
प्रेम की, साज है, बाँसुरी आस है।
कृष्ण की, प्रेमिका,बाँसुरी रास है।
गोपियां, प्यार है, बाँसुरी खास है।
साध्य है, साधना, बाँसुरी पास है।
Vini Singh
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अरुण छंद,महादैशिक जाति,20 मात्रिक,रगण,रगण,रगण,रगण
212 212 212 212
5,10 पर यति
प्रीत का,गीत मैं,गुनगुनाने लगी।
प्राण धन,को सदा,मैं लुभाने लगी।।
स्वप्न भी,मीत के,अब सजाने लगी।
प्राण प्रिय,को गले,मैं लगाने लगी।।
कामिनी,बन पिया,अब रिझाऊँ सदा।
प्यार दे,मैं तुम्हें,अब मनाऊँ सदा।।
नैन से,नैन भी,मैं मिलाऊँ सदा।
मृदु अधर,सुर्ख से,रस पिलाऊँ सदा।।
चाँदनी,बन सदा,मैं उजाला करूँ।
रीत अरु,प्रीत को,संग ढाला करूँ।।
प्रेम की,आँच से,तीव्र ज्वाला करूँ।
प्रेम भी,अब सदा,मैं निराला करूँ।
है बड़ी,ही मधुर,ये प्रथा प्यार की।
पुण्यता,है सदा,गंग के धार की।
है अमिट,प्रेरणा,मधु प्रणय सार की।
अर्थ भी,अब नहीं,जीत की हार की।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
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अरुण छंद-मात्रिक छंद
212 212 212 212
अंत लघु गुरु
राम स्तुति
पुण्य की ,लेखनी ,लिख रहे राम हैं।
भक्ति की ,ज्योति में ,दिख रहे राम हैं।
प्रेम के ,द्वीप है ,प्रेरणा ग्रंथ हैं।
राम ही, चल रहे,राम ही पंथ हैं।
हैं प्रभा ,अरुणिमा, रात्रि की ज्योत्सना।
दीप की ,ज्योति है ,भाव की व्यंजना ।
विश्व की ,शक्ति का, मूल भी राम हैं।
विष्णु का, चक्र भी, शूल भी राम हैं।
ईष्ट हैं, ईश हैं, साधना राम हैं।
कर रहे ,शिव सदा, प्रार्थना राम हैं।
ज्योति का, पुंज है ,राम ही धर्म हैं।
सत्य के ,मार्ग का, एक ही मर्म हैं।
सत्य का, न्याय का ,रूप ही राम हैं।
भानु का ,तेज है, धूप ही राम हैं।
मुक्ति का ,मार्ग हैं ,नाम ही राम हैं।
ज्ञान का, ध्यान का, धाम ही राम हैं।
शांति की ,प्रार्थना, युद्ध का घोष हैं।
हैं क्षमा, है दया, राम जय घोष हैं ।
कीर्ति का,ध्वज सतत,है गगन छू रहा।
वेद के, ज्ञान में,राम रस नित बहा।
स्वरचित
गीता गुप्ता 'मन'
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अरुण छंद
रगन x ४,अंत लघु,गुरु अनिवार्य
यति ५,५,१० पर
२१२ २१२ २१२ २१२
राम को,भाग्य ने,यूँ भ्रमित है किया।
स्वर्ण मृग ,रूप धर ,के सिया हर लिया।
लांध कर,जब गयी,कंचना सी रमा।
काँप सा,था गया ,विश्व का ये समा।।१।।
स्तब्ध सी,मृत कही,ये धरा हो गयी।
राम जी ,की प्रभा ,भग्न सी हो गयी।
ढूँढते ,फिर रहे ,खोजते वो रहे।
चेतना ,जड़ बनी ,पीर उर से बहे।।२।।
नाम वह ,जानकी,मैथिली अब जपे।
इस विरह ,से भरी ,ताप में है तपे।
नैन में,नीर है,कष्ट है आज क्यूँ?
आग ये,धारता,विष भरा आज क्यूँ?।३।।
संग है,लघु अनुज ,खोज सीता करे।
पेड़-वृक्ष ,अरु लता,से पूछते वो फिरे।
जो सिया,को छला,क्रूर लंकेश है।
जब पता,ये चला,क्रोध में राम है।।४।।
_Suvrna partani
Haydrabad
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अरूण छंद (20 मात्रिक )
महादैशिक जाति
5, 5, 10 पर यति
चरणान्त : लघु गुरू (12)
212 , 212 , 212 212
शांत हो , प्रेम से ,आस अंदर रखो ।
आँख में , जाग हो , साथ संगत रखो ।।
जागते , सोचते , प्रेम से प्यार हो ।
यूँ रहे , मान ये , तो धरा , साफ हो ।।
बात हो , साथ हो , दात संसार में ।
राह हो , राग हो , रोज यूँ प्यार में ।।
आद ये , अंत ये , जागती ये निशा ।
जाप ये , ताप ये , देख लो ये दिशा ।।
रजिन्दर कोर ( रेशू)
अमृतसर
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अरूण छंद
माँ दान,भक्त को,आप दो शारदे।
दूर हो,अज्ञान,बुराई मार दे।
वास हो,चरण मे,ध्यान लग तार दे।
जान दूँ दर मात,तू मुझे तार दे।
-रीतू -(Reetu Gulati)
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#अरुण_छंद_विधान
महादैशिक जाति का छंद है। इसके चार चरण होते है, प्रत्येक चरण में २० मात्राएँ होती है, यति का क्रम प्रत्येक चरण में ५,५,१० होता है, चरणांत में शुद्ध लघु गुरु होने चाहिए। इसमें मात्राओं का विन्यास निम्नानुसार है
(रगण) × 4 / २१२, २१२, २१२ २१२
~~~~~~~~~~~~~~~
इष्ट के,ध्यान में,साक्ष्य आराध्य हो।
कर्म से, ज्ञान से,साधना साध्य हो।
प्राण की,पूर्ति में,प्राण का होम हो।
बाध्यता,क्षीण हो,श्वांस में व्योम हो।
देव की,दृष्टि में,ब्रह्म आकार है।
जीव की, सृष्टि में,बीज साकार है।
आत्म की,पुष्टि में,देह आधार है।
नित्य की,वृष्टि में,देव!आभार है।
चेतना,साधना,चिंत्य का योग है।
ज्ञान की,आहना,देह का भोग है।
काम की,लालसा,चित्त का रोग है।
राग की,कामना,त्याजने जोग है।
धर्म ही,युक्ति है,देव-वाणी बहे।
कर्म ही,भुक्ति है,वेद-ज्ञानी कहे।
कर्म में,धर्म में,नित्य श्रृद्धा रहे
मोक्ष के,पंथ में,शीश वंद्या रहे।
~~~~~~~~~~~~~~~~
रागिनी नरेंद्र शास्त्री
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अरुण छन्द, 20 मात्रिक
महादैशिक जाति का छन्द
वाचिक भार मान्य।
चरणान्त शुद्ध लघु गुरु से,
प्रति चरण 20 मात्रा
5,5,10 पर यति
212×4 अंत लघु गुरु अनिवार्य।
शीर्षक:- मेघ
श्याम की, बांसुरी, गीत गाने लगी,
राधिका, मोहिनी, गुनगुनाने लगी,
नाचती, मोरनी, हैं घटाएं घिरी,
गा रही, है हवा, बादलों से भरी।
*** *** *** *** ***
मेघ की ,गर्जना राग सुर ताल में,
कोकिला, कूकती, आम की डाल में,
कौंधती, आसमाँ, में सखी दामिनी,
ताल दे, राग दे, गा रही रागिनी।
*** *** *** *** ***
मेदिनी, चूमते, मेघ काले घने,
झूमते, डोलते,वृक्ष के हर तने,
अंबु की ,धार में,भीगती हूँ पिया,
प्रीत के,रंग में, रंग जाए जिया।
*** *** *** *** ***
शैलजा,बह रही,हिम गिरी मौन है,
पूछती,कामना,हिय बसा कौन है,?
लालसा,प्रेम की,अंग में भर गई,
नेह की, बूंद से, कामना जग गई।
*** *** *** *** ***
भृंग से, तुंग को, छू रहे मेघना,
हैं मुदित, खग विहग, आ गई चेतना,
ये धरा,खिल उठीं, मुस्कराने लगी,
ओढ़कर, चूनरी,लह लहाने लगी।
*** *** *** *** ***
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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अरुण छंद
महादैशिक जाति का छंद है। इसके चार चरण होते है, प्रत्येक चरण में २० मात्राएँ होती है, यति का क्रम प्रत्येक चरण में ५,५,१० होता है, चरणांत में रगण
(गुरु लघु गुरु) होने चाहिए। इसमें
दो दो या चारो चरण समतुकान्ती हो।
जोड़ता, मिथ्यता, क्यो सहे दर्द तू।
काम क्या,आ सका! मात्र है गर्द-भू।
जो सके,श्लेषणा, सूत्र रे मर्त्य! हो।
जीवनी, में सदा, शुद्धता, सत्य हो।।
वेदना,और की, जान ले स्वीय जो।
कर्म ये, हे सखा!, मान प्राणीय हो।
जीव की, सत्यता, सोच ले अंत है।
ईश की, है कृपा, बाजता तंत है।।
आप से, दूर 'मैं', हो सका ज्ञान से।
पूर्णता, प्राप्त हो, आत्म-संज्ञान से।
बुद्धि की, बोध की, उच्चता प्राप्त है।
क्यों भला,अंधता, मध्य में व्याप्त है!!
त्याग रे!, राग रे!, बाँवरे जाग रे!
काल है, साथ में, ले जगा भाग रे!
तोड़ दे, आज ही, मोह के बंद को।
यत्न से,भोग ले, शुद्ध-आनंद को।।
मणि अग्रवाल
देहरादून
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अरुण छंद (मात्रिक)
महादैशिक जाति का छंद, प्रत्येक चरण 20 मात्राएँ, 5-5-10 पर यति। चरणान्त लघु ,गुरु
212, 212, 212 212,
रगण रगण रगण रगण
देख ले,आज भी, लोग क्या- क्या करें।
लोभ का,जाल ले , ठग सुनो नित फिरें।
बात है, लाजमी, क्या मुझे तू बता।
ठग रहे , वे दिखे, नित बदलकर पता।।
नीड़ निज,त्याग कर,काग बन जो दिखे।
पिक बने,तो दिखे, गान कब तक टिके।
पाप का ,है हुआ, लोक में कब भला।
पाप के, साथ में ,पुण्य है कब चला।।
अभय कुमार आनंद
विष्णुपुर, बाँका,बिहार व
लखनऊ, उत्तरप्रदेश
#अरुण_छंद_विधान
महादैशिक जाति का छंद है। इसके चार चरण होते है, प्रत्येक चरण में २० मात्राएँ होती है, यति का क्रम प्रत्येक चरण में ५,५,१० होता है, चरणांत में शुद्ध लघु गुरु होने चाहिए। इसमें मात्राओं का विन्यास निम्नानुसार है
(रगण) × 4 / २१२, २१२, २१२ २१२
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इष्ट के,ध्यान में,साक्ष्य आराध्य हो।
कर्म से, ज्ञान से,साधना साध्य हो।
प्राण की,पूर्ति में,प्राण का होम हो।
बाध्यता,क्षीण हो,श्वांस में व्योम हो।
देव की,दृष्टि में,ब्रह्म आकार है।
जीव की, सृष्टि में,बीज साकार है।
आत्म की,पुष्टि में,देह आधार है।
नित्य की,वृष्टि में,देव!आभार है।
चेतना,साधना,चिंत्य का योग है।
ज्ञान की,आहना,देह का भोग है।
काम की,लालसा,चित्त का रोग है।
राग की,कामना,त्याजने जोग है।
धर्म ही,युक्ति है,देव-वाणी बहे।
कर्म ही,भुक्ति है,वेद-ज्ञानी कहे।
कर्म में,धर्म में,नित्य श्रृद्धा रहे
मोक्ष के,पंथ में,शीश वंद्या रहे।
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रागिनी नरेंद्र शास्त्री
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अरुण छन्द, 20 मात्रिक
महादैशिक जाति का छन्द
वाचिक भार मान्य।
चरणान्त शुद्ध लघु गुरु से,
प्रति चरण 20 मात्रा
5,5,10 पर यति
212×4 अंत लघु गुरु अनिवार्य।
शीर्षक:- मेघ
श्याम की, बांसुरी, गीत गाने लगी,
राधिका, मोहिनी, गुनगुनाने लगी,
नाचती, मोरनी, हैं घटाएं घिरी,
गा रही, है हवा, बादलों से भरी।
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मेघ की ,गर्जना राग सुर ताल में,
कोकिला, कूकती, आम की डाल में,
कौंधती, आसमाँ, में सखी दामिनी,
ताल दे, राग दे, गा रही रागिनी।
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मेदिनी, चूमते, मेघ काले घने,
झूमते, डोलते,वृक्ष के हर तने,
अंबु की ,धार में,भीगती हूँ पिया,
प्रीत के,रंग में, रंग जाए जिया।
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शैलजा,बह रही,हिम गिरी मौन है,
पूछती,कामना,हिय बसा कौन है,?
लालसा,प्रेम की,अंग में भर गई,
नेह की, बूंद से, कामना जग गई।
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भृंग से, तुंग को, छू रहे मेघना,
हैं मुदित, खग विहग, आ गई चेतना,
ये धरा,खिल उठीं, मुस्कराने लगी,
ओढ़कर, चूनरी,लह लहाने लगी।
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रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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अरुण छंद
महादैशिक जाति का छंद है। इसके चार चरण होते है, प्रत्येक चरण में २० मात्राएँ होती है, यति का क्रम प्रत्येक चरण में ५,५,१० होता है, चरणांत में रगण
(गुरु लघु गुरु) होने चाहिए। इसमें
दो दो या चारो चरण समतुकान्ती हो।
जोड़ता, मिथ्यता, क्यो सहे दर्द तू।
काम क्या,आ सका! मात्र है गर्द-भू।
जो सके,श्लेषणा, सूत्र रे मर्त्य! हो।
जीवनी, में सदा, शुद्धता, सत्य हो।।
वेदना,और की, जान ले स्वीय जो।
कर्म ये, हे सखा!, मान प्राणीय हो।
जीव की, सत्यता, सोच ले अंत है।
ईश की, है कृपा, बाजता तंत है।।
आप से, दूर 'मैं', हो सका ज्ञान से।
पूर्णता, प्राप्त हो, आत्म-संज्ञान से।
बुद्धि की, बोध की, उच्चता प्राप्त है।
क्यों भला,अंधता, मध्य में व्याप्त है!!
त्याग रे!, राग रे!, बाँवरे जाग रे!
काल है, साथ में, ले जगा भाग रे!
तोड़ दे, आज ही, मोह के बंद को।
यत्न से,भोग ले, शुद्ध-आनंद को।।
मणि अग्रवाल
देहरादून
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अरुण छंद (मात्रिक)
महादैशिक जाति का छंद, प्रत्येक चरण 20 मात्राएँ, 5-5-10 पर यति। चरणान्त लघु ,गुरु
212, 212, 212 212,
रगण रगण रगण रगण
देख ले,आज भी, लोग क्या- क्या करें।
लोभ का,जाल ले , ठग सुनो नित फिरें।
बात है, लाजमी, क्या मुझे तू बता।
ठग रहे , वे दिखे, नित बदलकर पता।।
नीड़ निज,त्याग कर,काग बन जो दिखे।
पिक बने,तो दिखे, गान कब तक टिके।
पाप का ,है हुआ, लोक में कब भला।
पाप के, साथ में ,पुण्य है कब चला।।
अभय कुमार आनंद
विष्णुपुर, बाँका,बिहार व
लखनऊ, उत्तरप्रदेश
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