Wednesday, April 29, 2020

हरिगीतिका_छंद- Hindi poetry


Explained By - Arvind Chasta ,Kapasan Chittorgarh Raj.
अनुरागी नमन 🌹🙏
आप सभी साहित्यकारों को कोटिशः साधुवाद । सभी के साझा प्रयास से हम छंद सृजन के माध्यम से हिंदी साहित्य संवर्धन और संरक्षण हेतु अनवरत प्रयासरत है। हालाँकि हमारा प्रयास मात्र तिनके भर ही है। माँ शारदा सभी पर कृपा बनाये रखें।
छंद सृजन क्रम में आज आपके समक्ष हरिगीतिका छंद प्रस्तुत है ।

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यौगिक जाती

28 मात्रिक छंद

#हरिगीतिका_छंद
16-12 पर यति
पदांत 12 अनिवार्य
रगण सुमधुर होता है।
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जहाँ पर भी चौकल का प्रयोग हो वहाँ 121 अर्थात जगण निषिद्ध है।
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शृंगार भूषण अंत लग जन ,गाइये हरिगीतिका।
हरि शरण प्राणी जे भये कहु, है तिन्हे भव भीतिका।
संसार भव निधि तरण को नहि , और अवसर पाईये।
संसार भव मानुष जन्म दुर्लभ , राम सीता गाइये।
#छंद शास्त्र।
हरिगीतिका छंद
काल की है ये दशा कैसी,बन्द हरि दर द्वार भी।
पाश में है स्वाँस भी सारी, भवन निज घर बार भी।
आज रुकती है गती सबकी, बहकती है भावना।
हे कृपालू थाह लो अब तो, है हमारी कामना।।



✍️अरविन्द चास्टा

कपासन चित्तौड़गढ़ राज।
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हरिगीतिका:-

११२१२ ११२१२ ११२१२ ११२१२

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निज भाव से कुछ शब्द लेकर, मौन भग्न करें कभी।
निजता कहाँ रस हीन है पर, ज्ञान हो लब्धित अभी।
पर क्षुब्ध सा एक यत्न तो कर,शब्द_ बोल उठे तभी।
सहसा उठी तर लेखनी जब,छंद बद्ध हुऐ सभी।

तब भाव ही खुद भींग के जब,स्याह कागज को करे।
हृद के सुवाहक रिक्त आसव, ओज की करुणा भरे।
चलने लगी हत लेखनी कब ,सोज की तरुणी झरे।
दिक् मूढ़ से तब भ्रांतिमूलक,प्रश्न से हल भी तरे।
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#रागिनी_नरेंद्र_शास्त्री

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हरिगीतिका छंद यौगिक जाति का

१६,१२पर यति अंत १२अनिवार्य

मापनी--
हरिगीतिका हरिगीतिका हरि,गीतिका हरिगीतिका
११२१२ ११२१२ ११,२१२ ११२१२=२८मात्रा
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अब देख भारतवर्ष ने ली, फिर नयी हुंकार है l
फिर विश्व का सिरमौर बनने, के लिए तैयार है ll
संचित यहाँ पर हर पुरातन, ज्ञान का भण्डार है l
सक्षम समर्पित चिंतकों की, हो रही भरमार है ll

ऐ शत्रु! तेरी शत्रुता तो, हर समय स्वीकार है l
गांडीव की टंकार है हर , हाथ में तलवार है ll
हठ कर पड़ोसी व्यर्थ हमसे, जब हुआ दो चार है l
हर बार आक्रांता बना पर, हारता हर बार है ll

वातावरण उल्लासमय है, सर्वदा त्यौहार है l
बदलाव का परिदृश्य करता, प्रेम का संचार है ll
इस देश रूपी नाव की अब, ईश ही पतवार है l
ये देश सारा प्रभु तुम्हारा, मानता आभार है ll
विनी

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हरिगीतिका छंद,यौगिक जाति का छंद


हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका (यति-१६-१२),१,५,१२,१९वीं मात्रा लघु अनिवार्य


प्रार्थना


प्रभु!आपसे है याचना मन,हो सदा सद्भावना।
बस प्रेम हो उर में यहाँ हम,त्याग दें दुर्भावना।।
बनती सदा है नेह से हिय,प्रेम की संभावना।
परहित सदा हो धर्म मेरा,आपसे है प्रार्थना।।

हिय में यहाँ कल्याण की ही,बस रहे उद्भावना।
दुख-दर्द से हरगिज नहीं अब,हो किसी का सामना।।
हमसे कभी भी भूल से प्रभु,हो नहीं अवमानना।
नित-दिन यही उद्देश्य रखकर,मैं करूँ तप-साधना।।

कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर,उत्तर प्रदेश

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यौगिक जाती

हरिगीतिका छंद (28 मात्रिक)

16-12 पर यति
पदांत 12 अनिवार्य
चौकल पर जगण (121) निषिद्ध।
हरिगीतिका छंद:
प्रयुक्त मापनी
1121 2 112 12 11, 2 12 11 212

मझधार में अटका हुआ मन, राम भवजल तारना।
रहता नहीं वश भागता मन, बढ़ रही नित कामना।।
नित पंच-दोष अधीनता वश, भूलता सद्भावना।
भटके बहुत रुकता नहीं मन, राग-द्वेष विडम्बना।।

निज स्वार्थ में करता नहीं मन, पाप-पुण्य विवेचना।
भ्रम-जाल में फँसती चले अब, देख मानव चेतना।।
बंधता गया नित कर्म-बंधन, है असंभव काटना।
गुरु की शरण अतिशीघ्र हे! मन, ज्ञान की कर साधना।।

गुरु नाम दान दिया सनातन, मन जगी सत प्रेरणा।
दुविधा कटी हरि एक पावन, नाम की अवधारणा।।
कर रात-दिन हरि नाम कीर्तन, साधु संगत पालना।
सद्कर्म को करना सदा तुम, दुष्ट संगत टालना।।

धर ध्यान ईश्वर का मनुज कर, एक चित्त उपासना।
मिलती इसी विधि मुक्ति मानव, वासना सब त्यागना।।
सबका भला हिय नित्य रखकर, कर्म सुंदर कीजिये।
जयकार हो जग में निरंतर, नाम हरि हरि लीजिये।।

मन भेदभाव सभी भुलाकर, एक हैं सब जानना।
सब एक मानस जाति के जन, प्रेम की रख भावना।।
रचना रची भगवान ने तुम, सत्य सोच विचारना।
तब आत्मज्ञान मिले लगाकर, ध्यान नित्य लुभावना।।

जितेंदर पाल सिंह

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यौगिक जाती

हरिगीतिका छंद (28 मात्रिक )

16-12 पर यति
चौकल पर जगण (121) निषिद्ध ।
पदांत 12 अनिवार्य
1121 2112 1211, 2121 1212

जब जीव जीवन में जगे मन,यूँ करे सब साधना ,
तप ये तभी फल दे जरा जब ,होय साध अराधना ।
दुख दर्द जीवन में चले जब , ये धरा जग तारती ,
जब ये दुखी मन हो दुराचर ,ये धरा तब पालती ।

मन ये जरा जब यूँ दुखें तब , ताप प्रेम जले सदा ,
तपस्वी तनाव कहाँ जगे मन ,यूँ दुजे सब हो जुदा ।
टकराव ये पतवार हो जब , तो चले जग जागता ,
बरताव हो बिखराव का जब , राग ये तब बाजता ।


रजिन्दर कोर ( रेशू)
अमृतसर

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विषय- राम सीता वनगमन

छंद-मात्रिक हरिगीतिका छन्द

यौगिक जाति छन्द ,पदान्त 12 अनिवार्य चौकल पर जगण(121) निषेद्ध।
दो दो या चारों चरण समतुकांत
16,12 पर यति
पाँचवा, बारहवाँ, उन्नीसवाँ,छब्बीसवाँ लघु अनिवार्य
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श्री राम संग सिया चली प्रिय,प्रीत ले मनभावनी।
नवजग नवल वनवास पथ पर,राम की अनुगामिनी।
पट पीत धारण कर अकारण,वनगमन को पावनी।
रघुवीर आगे लखन पाछे,
बीच चमके दामिनी।
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पग धरत कंटक सी धरा पर,मुदित जनक सुतावरी।
रघुनाथ ले आशीष हरषे चल पड़ी सिय बावरी।
है राम बिन सूनी अयोध्या,
सकल सघन विभावरी।
चलत सब रघुवीर संग संग,
छोड़ अपनी चाकरी।
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केवट पखारें चरण रज प्रभु, राम हमको तारना,
नौका बिठाए लखन सीता,ह्रदय करते कामना।
तट पैसनी कुटिया बनाई,जगतपति श्री राम ने,
कामदगिरी पर्वत सुहाना,प्रभु नयन के सामने।
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खग मृग विचरते सघन वन शुचि,राम करते साधना, मारीचि कंचन कपट मृग बन,कुटिल कटु करि कामना।
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कल्याण कारी धनुषधारी,नाश विपदा कर रहे।
वन घूमते श्री राम पग पग, कष्ट ऋषि का हर रहे।
पीड़ा सहें रघुनाथ रघुवर, शुचित शुभि सीता गहे।
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डॉ नीरज अग्रवाल
बिलासपुर( छत्तीसगढ़)

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हरिगीतिका छन्द

यह 28 मात्रिक यौगिक जाति का छ्न्द , 16 ,12 पर यति ,पदांत 1, 2अनिवार्य , चौकल पर जगण (121 ) निषेद्ध ।

112 12 112 1211 2 12 11 212


बढ़ते चलो सब वीर पावन , आज सिर पर ताज है।
करते रहो तुम वीर प्रेरित , यह सुखी अहिवात है ।
रखना सदा अगला कदम तुम , सरहदों पर जान है ।
इस देश के अब प्राण हैं हम , मात का अभिमान हैं ।
मिल के सदा रहना यहाँ पर , राष्ट्र की यह शान है।
मत भूलना प्रिय गीत को तुम , प्रेम ही पहचान है।
़हर जंग को अब जीत लो तुम , भारती जन मान है ।
धरती कहे यह ओढ़नी प्रिय , प्रेम की सुख खान है

‌सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज

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#हरिगीतिका_छंद

।। ईश वंदना ।।
मुखकांति अद्भुत है अलौकिक, दर्श मैं करता रहूँ।
हरिनाम का अब मैं निरंतर, जाप भी करता रहूँ।
यह है जगत बस मोह-बंधन, आप तारणहार हो।
विनती सुनो इस दास की प्रभु, आप पालनहार हो।

मनमोहनी छवि आपकी प्रभु, देव करते वंदना।
गंधर्व, ऋषि, मुनि, यक्ष, किन्नर, नित्य करते प्रार्थना।
करबद्ध होकर माँगता मन, भक्ति का वरदान दो।
इस दास की यह याचना प्रभु, श्री चरण में स्थान दो।

स्वरचित :- हिरेन अरविंद जोशी

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