Explained By Dr. Neeraj Agrawal ji, Bilaspur
साहित्य अनुरागी परिवार को मेरा सादर नमन🙏
मित्रो, अनुरागी परिवार आचार्य द्रोण की पाठशाला की तरह है, यहाँ हम सीखने सिखाने के लिए एक दूसरे से मित्रवत जुड़े हैं।
इसी श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए मैं नीरज अग्रवाल आप सबके समक्ष नया छन्द लेकर उपस्थित हूँ।
#नाक्षत्रिक_ जाति_ का_ 27_ मात्रिक_छन्द
#सरसी_छन्द
16,11 यति पदान्त 21 (गुरु लघु) अनिवार्य
दो दो या चारो चरण समतुकांत।
उदाहरण:-
सोरह शंभु यत्ति गल कीजै,सरसी छन्द सुजान।
श्री कबीर की वाणी उत्तम,सब जानत मति मान।
झूठो है धन धान्य बावरे, अंत न आवत काम।
साँचो प्रभु को नाम बावरे,राम सिया भज नाम।।
कृष्ण छवि
पीत वसन मन मोहन सोहे, केसर चंदन भाल,
कुंतल केश मेघ सम शोभित,कंठ मणिकमय माल,
रवि सम चमकें कुंडल प्यारे,अंबुद सम सखि गात,
नन्द विलोकत नैन थके नहि, अपलक निरखत मात।
********************
द्युति सम मुरली अधर विराजत,भ्रमर सरीखे नैन,
मोरपुच्छ सिर मुकुट सुहावत,हरते हरि मन चैन,
अधर कोमल कंवल पात से,विधु मुख नील शरीर,
ठगी-ठगी सी ठाणी ग्वालन,आयो कौन अहीर।
*******************
तिरछी कटि मधु मुरली बाजत,धरे सुरीली तान,
खग मृग बेसुध लखि मुरलीधर,बंद नयन शुचि शान,
अधर चपल मुस्कान सखी री,शोभा बरनि न जाय,
मन अधीर तन व्याकुल नीरज,मोहन ह्रदय समाय।
********************
सखि राधा धरणी सम सोहे,मनमोहन के संग,
चित्त चुराए मन भरमाये,इंद्रधनुष सा रंग,
मदन मोहनी मदमय नाचे,कुहके कोयल डाल,
बजी मुरलिया वन में मोहक,झूमे मगन कराल।
********************
मलय पवन मन मदन लुभाये,लोचन रसिक रसाल,
तारे ताल सरोवर थिरकत,मुदित मदन गोपाल,
कनक कलश कटि धरे कामिनी,भरि मीठो दधिसार,
प्रीत ह्रदय मुदि गहे मोहनी,मनमोहन अभिसार।
********************
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल"नन्दिनी"
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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सरसी छंद : गीत
मुखड़ा
गाँवों का अद्भुत बचपन वो,आता मुझको याद।।
अंतरा१
हँसती थी फूलों की कलियाँ,झूला अमुवा डार,
पीली - पीली सरसों क्यारी, महके अपरम्पार।
पीपल था बूढ़ा लेकिन वो,चिड़ियों की था जान,
वट छाया में नारी करती , पूजा और विधान।
दादी के हाथों की रोटी, का था कितना स्वाद।
गाँवों का अद्भुत बचपन वो,आता मुझको याद।।
अंतरा२
गिल्ली-डंडा,लुक़्क़ा-चोरी, हम सब का वो खेल,
चार जने मिल झुक घुटने पर ,बन जाना वो रेल।
बरसाती मौसम में नदियाँ,यौवन मद में चूर,
लाँघ उन्हें हम सबका करना,उनके भ्रम को दूर।
अद्भुत अहसासों से करता , निस-दिन मन संवाद।
गाँवों का अद्भुत बचपन वो,आता मुझको याद।।
अंतरा३
अमराई की मादक खुशबू, कोकिल कलरब गान,
चिड़िया चुनमुन का घर आना,चुगना बिखरे धान।
गैया का नित माँ-माँ कहना, विनती, चारा सान,
मुर्गे की बाँगों से निस-दिन, अरुणोदय पहचान।
आपस में सहयोग समर्पण, रिश्तों की बुनियाद।
गाँवों का अद्भुत बचपन वो,आता मुझको याद।।
अभय कुमार "आनंद"
विष्णुपुर,पकरिया,बाँका, बिहार व
लखनऊ ,उत्तरप्रदेश
मुखड़ा
गाँवों का अद्भुत बचपन वो,आता मुझको याद।।
अंतरा१
हँसती थी फूलों की कलियाँ,झूला अमुवा डार,
पीली - पीली सरसों क्यारी, महके अपरम्पार।
पीपल था बूढ़ा लेकिन वो,चिड़ियों की था जान,
वट छाया में नारी करती , पूजा और विधान।
दादी के हाथों की रोटी, का था कितना स्वाद।
गाँवों का अद्भुत बचपन वो,आता मुझको याद।।
अंतरा२
गिल्ली-डंडा,लुक़्क़ा-चोरी, हम सब का वो खेल,
चार जने मिल झुक घुटने पर ,बन जाना वो रेल।
बरसाती मौसम में नदियाँ,यौवन मद में चूर,
लाँघ उन्हें हम सबका करना,उनके भ्रम को दूर।
अद्भुत अहसासों से करता , निस-दिन मन संवाद।
गाँवों का अद्भुत बचपन वो,आता मुझको याद।।
अंतरा३
अमराई की मादक खुशबू, कोकिल कलरब गान,
चिड़िया चुनमुन का घर आना,चुगना बिखरे धान।
गैया का नित माँ-माँ कहना, विनती, चारा सान,
मुर्गे की बाँगों से निस-दिन, अरुणोदय पहचान।
आपस में सहयोग समर्पण, रिश्तों की बुनियाद।
गाँवों का अद्भुत बचपन वो,आता मुझको याद।।
अभय कुमार "आनंद"
विष्णुपुर,पकरिया,बाँका, बिहार व
लखनऊ ,उत्तरप्रदेश
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नमन साहित्य अनुरागी
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सरसी छन्द
विधान मात्रा २७
१६-११पर यति अंत मे गाल
(विशेष सरसी छंद=चौपाई +दोहा का सम चरण )
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मोह बन्धन छूट जाएगा ,करना कभी विचार।
कोरोना से लड़ना है तो,करो यहीं उपचार।
रहिये दूरी बना यही है, समझो असली ज्ञान।
चारो तरफ हाहाकार है, कैसा है अभिमान।।
★★★★★★★★★★★★
जरण मरण का प्रश्न कहाँ जब,आया है शैतान।
सभी कुछ यहीं रह जायेगा, लिखनी यही विधान।
शाकाहार निरोग बनाये , मानो मेरी बात।
कोरोना देता है सबको , अति घातक आघात।।
★★★★★★★★★★★★★★
करो विचार संत वाणी का ,देना मिल कर साथ।
इस काया से मोह कहो क्यों, जो पकड़े हो हाथ।
आया है कोरोना देखो ,खाली घर संसार।
घर में सब बैठ गए देखो ,भारी इसका वार।।
★★★★★★★★★★★★
कोरोना का बढ़ा आतंक ,तुम सब लो अब जान।
कहीं व्यर्थ हो नहीं जाये,पूजा सहित विधान।
हैरान परेशान सभी हैं, हार गई मुस्कान ।
बढ़ती जा रही दुश्वारियां, कि हैरान इंसान।।
विनी सिंह
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सरसी छन्द
विधान मात्रा २७
१६-११पर यति अंत मे गाल
(विशेष सरसी छंद=चौपाई +दोहा का सम चरण )
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मोह बन्धन छूट जाएगा ,करना कभी विचार।
कोरोना से लड़ना है तो,करो यहीं उपचार।
रहिये दूरी बना यही है, समझो असली ज्ञान।
चारो तरफ हाहाकार है, कैसा है अभिमान।।
★★★★★★★★★★★★
जरण मरण का प्रश्न कहाँ जब,आया है शैतान।
सभी कुछ यहीं रह जायेगा, लिखनी यही विधान।
शाकाहार निरोग बनाये , मानो मेरी बात।
कोरोना देता है सबको , अति घातक आघात।।
★★★★★★★★★★★★★★
करो विचार संत वाणी का ,देना मिल कर साथ।
इस काया से मोह कहो क्यों, जो पकड़े हो हाथ।
आया है कोरोना देखो ,खाली घर संसार।
घर में सब बैठ गए देखो ,भारी इसका वार।।
★★★★★★★★★★★★
कोरोना का बढ़ा आतंक ,तुम सब लो अब जान।
कहीं व्यर्थ हो नहीं जाये,पूजा सहित विधान।
हैरान परेशान सभी हैं, हार गई मुस्कान ।
बढ़ती जा रही दुश्वारियां, कि हैरान इंसान।।
विनी सिंह
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सरसी/कबीर/सुमंदर छंद [सम मात्रिक]
जाति:नक्षत्रिक
विधान – 27 मात्रा, 16,11 पर यति, चरणान्त में 21 लगा अनिवार्य l कुल चार चरण, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत l
विशेष : चौपाई का कोई एक चरण और दोहा का सम चरण मिलाने से सरसी का एक चरण बन जाता है l चौपाई के अंत में 21 वर्जित है।
प्रयुक्त मापनी: 2122 2122 2, 3323/443
रचना
धूप में निकलो नहीं गोरी, गर्मी का है काल,
रंग ये गोरा तुम्हारा है, गाल हुए हैं लाल।
स्वेदकण माथे चमकते हैं, थकी थकी सी चाल,
तीव्र चलती हैं हवाएं ये, उलझे जाएं बाल।
सूर्य की किरणें जलायें तन, छतरी को संभाल,
दोपहर बैठो हमारे घर, जाना संध्या-काल।
है बहाना पास तुम आओ, बढ़ जाये पहचान,
दूर से होंगी नहीं बातें, अब तुम जाओ मान।
रूप चंदा सा सलोना है, नैनों अंजन धार,
दृष्टि तेरी कर गयी वश में, जिया गया मैं हार।
संग हम जीवन बिताएंगे, आ जाओ इस पार,
रूप की रानी सुनो मेरी, तुम कर लो स्वीकार।
प्रेयसी हो प्रेम की सरिता, बुझा लगी जो प्यास,
प्रेम अभिलाषा करो पूरी, तुमसे मेरी आस।
बंध जायें प्रेम बंधन में, साथ रहें हम नित्य,
हर किसी को मोह ले तेरा, रूप रंग लालित्य।
अम्बुआ की डाल पर कोयल, बोले मीठे बोल,
बैन तेरे हैं सरस वैसे, कानों में रस घोल।
ओढ़नी सिर पर लगे सुंदर,गले मोतियन माल,
पाँव में पायल खनकती है, बिंदिया सजी भाल।
जितेंदर पाल सिंह
जाति:नक्षत्रिक
विधान – 27 मात्रा, 16,11 पर यति, चरणान्त में 21 लगा अनिवार्य l कुल चार चरण, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत l
विशेष : चौपाई का कोई एक चरण और दोहा का सम चरण मिलाने से सरसी का एक चरण बन जाता है l चौपाई के अंत में 21 वर्जित है।
प्रयुक्त मापनी: 2122 2122 2, 3323/443
रचना
धूप में निकलो नहीं गोरी, गर्मी का है काल,
रंग ये गोरा तुम्हारा है, गाल हुए हैं लाल।
स्वेदकण माथे चमकते हैं, थकी थकी सी चाल,
तीव्र चलती हैं हवाएं ये, उलझे जाएं बाल।
सूर्य की किरणें जलायें तन, छतरी को संभाल,
दोपहर बैठो हमारे घर, जाना संध्या-काल।
है बहाना पास तुम आओ, बढ़ जाये पहचान,
दूर से होंगी नहीं बातें, अब तुम जाओ मान।
रूप चंदा सा सलोना है, नैनों अंजन धार,
दृष्टि तेरी कर गयी वश में, जिया गया मैं हार।
संग हम जीवन बिताएंगे, आ जाओ इस पार,
रूप की रानी सुनो मेरी, तुम कर लो स्वीकार।
प्रेयसी हो प्रेम की सरिता, बुझा लगी जो प्यास,
प्रेम अभिलाषा करो पूरी, तुमसे मेरी आस।
बंध जायें प्रेम बंधन में, साथ रहें हम नित्य,
हर किसी को मोह ले तेरा, रूप रंग लालित्य।
अम्बुआ की डाल पर कोयल, बोले मीठे बोल,
बैन तेरे हैं सरस वैसे, कानों में रस घोल।
ओढ़नी सिर पर लगे सुंदर,गले मोतियन माल,
पाँव में पायल खनकती है, बिंदिया सजी भाल।
जितेंदर पाल सिंह
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सरसी छंद
16-11 पदांत 21
🌹राग रंग सङ्गीत हमारे,
हैं संस्कृति आधार।
वेद उपनिषद धर्म ग्रन्थ सब,
हमें लगाते पार।।
मीठी बोली भाषाऐं है,
वार्तालाप में प्यार।
सत्य उजागर करते रहते,
गुणी साहित्यकार।।
🌹
काव्यमयी है जग सारा ये,
अलंकार भरमार।
कवि कल्पना हैअपरिमित सी,
हो सपनें साकार।।
जेष्ठ श्रेष्ठ गुणी सभी जन को
वन्दन बारम्बार।
अंशदान हो काव्य सृजन में,
यही करें विचार।।
✍️
अरविन्द चास्टा
16-11 पदांत 21
🌹राग रंग सङ्गीत हमारे,
हैं संस्कृति आधार।
वेद उपनिषद धर्म ग्रन्थ सब,
हमें लगाते पार।।
मीठी बोली भाषाऐं है,
वार्तालाप में प्यार।
सत्य उजागर करते रहते,
गुणी साहित्यकार।।
🌹
काव्यमयी है जग सारा ये,
अलंकार भरमार।
कवि कल्पना हैअपरिमित सी,
हो सपनें साकार।।
जेष्ठ श्रेष्ठ गुणी सभी जन को
वन्दन बारम्बार।
अंशदान हो काव्य सृजन में,
यही करें विचार।।
✍️
अरविन्द चास्टा
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सरसी छंद
१६/११पर यति,अंत २१ अनिवार्य
२२२२ २२२२ २२२२ २१
भावों से सजता है मेला,भावों बिन बेजान।
भावों से ही निरखे कविता,भावों बिन वीरान।
शब्दों के जब मोती खिलते,भर जाए तब जान।
छू जाए वो सब के मन को,पल में बढ़ता मान ।।१।।
हर रस में जब इसको ढाले,गूँजे तब झंकार।
सब के उर में रच बस जाती,गाती जब मल्हार।
यति,गति से ये जब जब सजती,मिलता तब आकार।
सुख के पल में,दुख के पल में,होती ये साकार।।२।।
नित दिन अपना चोला बदले,नित बदले ललकार।
शब्दों की माला बन जाए,तब लागे दमदार।
वीरों की गाथा जब गाती,सुनता ये संसार।
जब जब ये आँसू से भीगे,होता ख़ूब सत्कार।।३।।
✍️सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
१६/११पर यति,अंत २१ अनिवार्य
२२२२ २२२२ २२२२ २१
भावों से सजता है मेला,भावों बिन बेजान।
भावों से ही निरखे कविता,भावों बिन वीरान।
शब्दों के जब मोती खिलते,भर जाए तब जान।
छू जाए वो सब के मन को,पल में बढ़ता मान ।।१।।
हर रस में जब इसको ढाले,गूँजे तब झंकार।
सब के उर में रच बस जाती,गाती जब मल्हार।
यति,गति से ये जब जब सजती,मिलता तब आकार।
सुख के पल में,दुख के पल में,होती ये साकार।।२।।
नित दिन अपना चोला बदले,नित बदले ललकार।
शब्दों की माला बन जाए,तब लागे दमदार।
वीरों की गाथा जब गाती,सुनता ये संसार।
जब जब ये आँसू से भीगे,होता ख़ूब सत्कार।।३।।
✍️सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
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सरसी छंद,१६-११ पर यति,अंत-गुरु-लघु
हरण किया सीता का छल से,लिया साधु का रूप।
युद्ध किये रावण रिपु दल से,कौशलेश के भूप।।
जामवंत,नल-नील संग थे,हनुमत भी थे साथ।
किष्किन्धा पति और विभीषण,संग रहें रघुनाथ।।
राक्षस गण ने आग लगाई,बजरंगी की पूँछ।
जलकर लंका भस्म हुई अरु, उनकी नीची मूँछ।।
मन्दोदरि ने भी समझाया,ख़ूब पूण्य अरु पाप।
पर रावण को समझ न आया,करे दंभ का जाप।।
महिमा मंडन खुद का करता,खुद पर करता गर्व।
युद्ध भूमि में हुआ पराजित,मिटा दर्प भी सर्व।।
त्राहिमाम कर प्रभु चरणों में,नवा दशानन शीश।
भक्ति दान देकर सबको ही,कृपा करें जगदीश।।
छोड़ें कटुता सारी हो अब,परहित का आरम्भ।
मानव सेवा कर बन जाएं,यहाँ जगत स्तम्भ।
कवि कृष्णा यह हरदम लिखता,करो कभी मत दंभ।
प्रेम सभी से करो हमेशा,बनकर यहाँ अदम्भ।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
हरण किया सीता का छल से,लिया साधु का रूप।
युद्ध किये रावण रिपु दल से,कौशलेश के भूप।।
जामवंत,नल-नील संग थे,हनुमत भी थे साथ।
किष्किन्धा पति और विभीषण,संग रहें रघुनाथ।।
राक्षस गण ने आग लगाई,बजरंगी की पूँछ।
जलकर लंका भस्म हुई अरु, उनकी नीची मूँछ।।
मन्दोदरि ने भी समझाया,ख़ूब पूण्य अरु पाप।
पर रावण को समझ न आया,करे दंभ का जाप।।
महिमा मंडन खुद का करता,खुद पर करता गर्व।
युद्ध भूमि में हुआ पराजित,मिटा दर्प भी सर्व।।
त्राहिमाम कर प्रभु चरणों में,नवा दशानन शीश।
भक्ति दान देकर सबको ही,कृपा करें जगदीश।।
छोड़ें कटुता सारी हो अब,परहित का आरम्भ।
मानव सेवा कर बन जाएं,यहाँ जगत स्तम्भ।
कवि कृष्णा यह हरदम लिखता,करो कभी मत दंभ।
प्रेम सभी से करो हमेशा,बनकर यहाँ अदम्भ।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
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सरसी छ्न्द
नाक्षत्रिक जाति का छ्न्द, 27 मात्रिक , 16 ,11 पर यति ,अंत 21 (गुरू लघु) अनिवार्य
...........
2 2 2 2 2 2 2 2 , 2 2 2 2 21
तुमको ध्याऊंँ नित मैं पूजूँ , सुखमय हो संसार।
जीवन में प्रभु हर प्राणी के , तुम ही हो आधार।।
सबकी विपदा तुम हरते हो , करते हो कल्याण।
उनके हिय में तुम रहते हो , जो नित करते ध्यान।।
.............
माया सागर में डूबी है , नैया कर दो पार।
हम सब तेरे ही बालक हैं ,कर दो अब उद्धार।।
हनुमत तेरी महिमा गाऊँ , दे दो यह आशीष।
तेरे द्वारे ही आकर के, झुकता है यह शीश
नाक्षत्रिक जाति का छ्न्द, 27 मात्रिक , 16 ,11 पर यति ,अंत 21 (गुरू लघु) अनिवार्य
...........
2 2 2 2 2 2 2 2 , 2 2 2 2 21
तुमको ध्याऊंँ नित मैं पूजूँ , सुखमय हो संसार।
जीवन में प्रभु हर प्राणी के , तुम ही हो आधार।।
सबकी विपदा तुम हरते हो , करते हो कल्याण।
उनके हिय में तुम रहते हो , जो नित करते ध्यान।।
.............
माया सागर में डूबी है , नैया कर दो पार।
हम सब तेरे ही बालक हैं ,कर दो अब उद्धार।।
हनुमत तेरी महिमा गाऊँ , दे दो यह आशीष।
तेरे द्वारे ही आकर के, झुकता है यह शीश
सरसी छ्न्द
नाक्षत्रिक जाति का छ्न्द, 27 मात्रिक , 16 ,11 पर यति ,अंत 21 (गुरू लघु) अनिवार्य
...........
नाम जपूंँ बजरंगबली का , करते संकट दूर,
राम चन्द्र के भक्त कहाते , चढ़ता है सिंदूर।
हाथ गदा है सजता उनके , प्रिय है तुलसी माल ,
नाम पवन सुत भजते हैं जो , ग्रसे न कोई काल।
.......
हनुमत हिय सिय राम बसे हैं , दिखाते हृदय चीर ,
सबकी विपदा ये हर लेते , अंजनि के प्रिय वीर।
खोज किया जाकर सीता का , पहुँचे लंका पार ,
करते हैं सारे काज सफल , महिमा बड़ी अपार।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
नाक्षत्रिक जाति का छ्न्द, 27 मात्रिक , 16 ,11 पर यति ,अंत 21 (गुरू लघु) अनिवार्य
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नाम जपूंँ बजरंगबली का , करते संकट दूर,
राम चन्द्र के भक्त कहाते , चढ़ता है सिंदूर।
हाथ गदा है सजता उनके , प्रिय है तुलसी माल ,
नाम पवन सुत भजते हैं जो , ग्रसे न कोई काल।
.......
हनुमत हिय सिय राम बसे हैं , दिखाते हृदय चीर ,
सबकी विपदा ये हर लेते , अंजनि के प्रिय वीर।
खोज किया जाकर सीता का , पहुँचे लंका पार ,
करते हैं सारे काज सफल , महिमा बड़ी अपार।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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सरसी छंद (16-11)पर यति
अंत-21
4 चरण
2-2चरण समतुकांत
कर्म प्रधान जगत में मानव,करता नित नित कर्म।
पुण्य सुकर्मों से मिलता है ,राह दिखाता धर्म।
दुष्कर्मों का दंड मिले नित, पर पीड़ा है पाप।
जीवन कर्म सँवारे जीवन ,जीव न कर संताप।
छोड़ अयोध्या दशरथ नगरी, राम चले वनवास।
मान पितृवचनों का रखकर, रचते हैं इतिहास।
संग सिया भी निभा रही हैं ,अपना पत्नी धर्म ।
लक्ष्मण भातृ प्रेम प्रेरक हैं, त्याग उर्मिला मर्म ।
करुणा कृपा दया के सागर, है भक्तों के ईश।
तारणहार बने प्रभु देखो, कहलाते जगदीश।
कर के स्पर्श अहिल्या तारी, तोड़ परशु अभिमान।
शबरी के जूठे बेरों से ,दिया भक्ति का ज्ञान।
मंत्र विजय की गाँठ बांध लो, कभी न मानो हार।
मन भर लो विश्वास प्रबल तुम, मिले जीत उपहार।
मग के कंटक फूल बनेंगे ,यदि लोगे तुम ठान।
लक्ष्य करेगा ,स्वागत तेरा ,जग में हो सम्मान।
गीता गुप्ता 'मन'
उन्नाव,उत्तरप्रदेश
अंत-21
4 चरण
2-2चरण समतुकांत
कर्म प्रधान जगत में मानव,करता नित नित कर्म।
पुण्य सुकर्मों से मिलता है ,राह दिखाता धर्म।
दुष्कर्मों का दंड मिले नित, पर पीड़ा है पाप।
जीवन कर्म सँवारे जीवन ,जीव न कर संताप।
छोड़ अयोध्या दशरथ नगरी, राम चले वनवास।
मान पितृवचनों का रखकर, रचते हैं इतिहास।
संग सिया भी निभा रही हैं ,अपना पत्नी धर्म ।
लक्ष्मण भातृ प्रेम प्रेरक हैं, त्याग उर्मिला मर्म ।
करुणा कृपा दया के सागर, है भक्तों के ईश।
तारणहार बने प्रभु देखो, कहलाते जगदीश।
कर के स्पर्श अहिल्या तारी, तोड़ परशु अभिमान।
शबरी के जूठे बेरों से ,दिया भक्ति का ज्ञान।
मंत्र विजय की गाँठ बांध लो, कभी न मानो हार।
मन भर लो विश्वास प्रबल तुम, मिले जीत उपहार।
मग के कंटक फूल बनेंगे ,यदि लोगे तुम ठान।
लक्ष्य करेगा ,स्वागत तेरा ,जग में हो सम्मान।
गीता गुप्ता 'मन'
उन्नाव,उत्तरप्रदेश
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सरसी धंद
नाक्षत्रिक जाति का छंद , 27 मात्रिक ,16,11 पर यति , अंत 21(गुरू लघु) अनिवार्य
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2222 2222 , 2222 21
जीवन में ऐसा होता है,ये तन्हा संसार ।
सब होता है फिर भी डूबे, ये मन के सब तार ।
बंधन में रहते है जग के , सारे ये उपकार ।
सूना सा सब लगता है ये , जीवन का आधार।।
सब बेगाने तब लगते है, मन में होता वार ।
त्राही त्राही जब जग करता , सुनता कौन पुकार ।
ऐसा जग बैचारा निकला , डूबा सब सत्कार ,
लोगों की बातें छोडों यूँ , देवों का है वार ।
रजिन्दर कोर ( रेशू)
अमृतसर
नाक्षत्रिक जाति का छंद , 27 मात्रिक ,16,11 पर यति , अंत 21(गुरू लघु) अनिवार्य
...........
2222 2222 , 2222 21
जीवन में ऐसा होता है,ये तन्हा संसार ।
सब होता है फिर भी डूबे, ये मन के सब तार ।
बंधन में रहते है जग के , सारे ये उपकार ।
सूना सा सब लगता है ये , जीवन का आधार।।
सब बेगाने तब लगते है, मन में होता वार ।
त्राही त्राही जब जग करता , सुनता कौन पुकार ।
ऐसा जग बैचारा निकला , डूबा सब सत्कार ,
लोगों की बातें छोडों यूँ , देवों का है वार ।
रजिन्दर कोर ( रेशू)
अमृतसर
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