Sunday, June 21, 2020

विधाता_छंद - Hindi poetry


Explained By Dr. pooja Mishra Ji "Aashna"

नमन माँ शारदे🙏
नमन आप सभी गुणीजन को🙏
आज ले कर आई हूँ आप सभी के समक्ष एक नया छंद

#विधाता_छंद

जिसका विधान कुछ इस प्रकार है-
यौगिक जाती 28 मात्रिक छंद
प्रति चरण 28 मात्रा
14-14 पर यति
पहली आठवी और पन्द्रहवी मात्रा लघु अनिवार्य है
दो दो अथवा चारों चरण समतुकांत।
इस छंद के आधार पर उर्दू बहर
मफाईलुन ×4
1222 1222, 1222,1222
उदाहरण-
विधाता छंद-14,14
लहौ विद्या लहौ रत्नै,लखौ रचना विधाता की।
सदा सद्भक्ति को धारे, शरण हो मुक्ति दाता की।।
वही सिरजै वही पाले,वही संहार करता है।
उसी को तुम भजौ प्यारे,वही सब दुःख हरता है।।
एक छोटी सी कोशिश मेरी भी:
1222 1222 1222 1222
नया जीवन बसाना है, पिया के संग जाना है,
अधूरे स्वप्न को शायद,हिया में ही छुपाना है।
नहीं पूछी नहीं जानी, किसी ने पीर ये गहरी,
कहा है तो यही बेटी,पराई ही सदा ठहरी।
समझ आती नहीं है क्यूँ,प्रथा ये दूर जाने की,
बनाई रीत है कैसी, पिता-माता छुड़ाने की?
कहो कैसे भुला दूँ मैं, भला ये नेह के बन्धन,
नहीं मैं भूल पाऊँगी ,कभी ये द्वार औ आँगन।
नयन भीगे,पड़े रीते,विदा की है घड़ी भारी,
लगे है टूटती साँसें,शिथिल है तंत्रिका सारी।
चली हूँ छोड़ के पीछे ,सभी रिश्ते सभी नाते,
रहे बेटी पराई क्यों,विधाता ये बता जाते।
डॉ. पूजा मिश्र #आशना
प्रदत्त छंद पर,
आप सभी के शानदार सृजन आमंत्रित हैं।।
पूजा मिश्र #आशना
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 विधाता छंद

बचा लो सभ्यता प्यारी

बचा लो डूबती ही जा, रही है सभ्यता प्यारी।
खुले परिवेश की लिप्सा, बढ़ाती ये महामारी।
यहाँ प्रतिदिन दिखाई दें,करें उपहास जो इसका।
कभी बहके हुए कुछ नर,कभी भटकी हुयी नारी।।

बदलना वक्त की आदत, चलो ये मान लेते हैं।
तभी इतिहास रचते हैं, अलग जब ठान लेते हैं।
मगर जो स्वर्ण अक्षर में, लिखा जाए किताबों में।
पतित इंसान क्या जग को, भला वो ज्ञान देते हैं?

धरा पावन पुनीता ये,जगत ने गीत हैं गाए।
यहीं वो जगपुरुष जन्मे,त्रिपथगा को मना लाए।
हजारों शौर्य गाथाएं, सजी हैं भाल पर इसके।
दिखाने को यहाँ लीला, स्वयं पालक चले आए।

बड़े मनभावने लगते, सभी परिधान भारत के।
विदेशी भी यहाँ आकर,करें गुणगान भारत के।
कहो फिर क्यों लुभाती है, पराई सभ्यता तुमको?
समूचा विश्व जब देता, सदा उपमान भारत के।

मणि अग्रवाल 'मणिका'

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विधाता छन्द

यौगिक जाति का छन्द , 28 मात्रिक , 14 ,14 पर यति ,

 1,8,15 मात्रा लघु अनिवार्य है ।दो-दो या चारो चरण समतुकान्त।

1222 1222 1222 1222

गिरे मेरी नजर से जो , उठा कोई नहीं करता ।
बुराई सब करें लेकिन , भला कोई नहीं करता।
करोगे मान अपनों का ,सदा आशीष पाओगे।
मिलेगा सुख वहाँ तुमको , जहाँ तुम सर झुकाओगे।

अकेले चल रहे हैं हम , कँटीली राह पर साथी ।
मिला कुछ भी नहीं लेकिन , जली दिन-रात बन बाती।
नहीं रखना किसी से द्वेष ,सबसे प्रेम तुम करना।
बनो सबका सहारा तुम , सभी के कष्ट तुम हरना ।

सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज

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विधाता छंद

मापनी- 1222 1222 1222 1222
लगावली- लगागागा लगागागा लगागागा लगागागा

1222 1222 1222 1222
दरस प्यासी विरह दासी,चले आओ चले आओ।
हिया में श्वास है बाकी,चले आओ चले आओ।।

खिला मधुमास विरहिन को न ऐसे श्याम तरसाओ।
निगोड़ी प्यास आँखों की सुनो आकर बुझा जाओ।।
न जाओ मध्य में प्रियतम चले आओ चले आओ।
दरस प्यासी विरह दासी,चले आओ चले आओ।।

अधर धर प्रेम की मुरली सकल जग प्रेममय कर दो।
सुनो प्रियतम सितारों से मेरी तुम मांग अब भर दो।।
अगर है प्रीत मुझसे तो,चले आओ चले आओ।
दरस प्यासी विरह दासी,चले आओ चले आओ।।

बहारें ये सुहानी हैं, सु-यौवन की कहानी है।
खिली देखो पिया कब से सुमन बगिया सुहानी हैं।।
पिरो कर प्रीति की माला चले आओ चले आओ।
दरस प्यासी विरह दासी,चले आओ चले आओ।।

तुम्हारी मोहिनी मूरत बसी नीलम निगाहों में।
बढ़ाऊँ प्रेम की पींघें तुम्हारी श्याम बाहों में।।
सजन यूं रूठ मत जाओ चले आओ चले आओ।
दरस प्यासी विरह दासी,चले आओ चले आओ।।

नीलम शर्मा 

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विधाता छंद पर आधारित गीत

मापनी-1222, 1222, 1222, 1222
गीत

मुखड़ा

थका-हारा दुखों से मैं, व्यथा के गीत गाता हूँ।
व्यथा की इस प्रथा को मैं,सहजता से निभाता हूँ।।

अंतरा-01

कभी संयोग लिखता था,कभी सपने सजाता था।
मधुर शुचि भाव ही केवल, सदा उर में जगाता था।।
असीमित वेदना मन में, मुझे ठगते भला अपने।
बिछाकर स्वार्थ की चादर,भरोसे को छला सबने।।

अपरिमित पीर को भी मैं, सदा साथी बनाता हूँ।
व्यथा की इस प्रथा को मैं, सहजता से निभाता हूँ।।

अंतरा-02

उजाला अब नहीं कोई,तिमिर विस्तीर्ण जीवन में।
दुखों की ही सघनता है, नही उल्लास भी मन में।।
सहन होता नहीं मुझको,हृदय में क्षोभ है इतना।
गरल पीता रहा मन भी,धरे वह धीर भी कितना।।

विशद पीड़ा हृदय की मैं, कठिनता से मिटाता हूँ।
व्यथा की इस प्रथा को मैं, सहजता से निभाता हूँ।।

अंतरा-03

दिखे अपना नहीं कोई,पराये सब यहाँ लगते।
स्रवित हो चाशनी हिय में, कि रिश्ते हैं जहाँ पगते।।
ऋचाएँ वेद की कहतीं,यही तो ग्रन्थ कहते हैं।
मनुजता है जहाँ जीवित,वहीं भगवान रहते हैं।।
दिया अब आस का उर में, जलाता हूँ ,बुझाता हूँ।
व्यथा की इस प्रथा को मैं, सहजता से निभाता हूँ।।

थका-हारा दुखों से मैं, व्यथा के गीत गाता हूँ।
व्यथा की इस प्रथा को मैं, सहजता से निभाता हूँ।।

कृष्णा श्रीवास्तव

हाटा,कुशीनगर, उत्तर प्रदेश

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विधाता छंद पर आधारित मुक्तक

मापनी-1222 1222 1222 1222

सभी नदियाँ रहे निर्मल,बहे पावन प्रबल धारा।
इसी उद्देश्य से अब तो,बनें जीवन सबल सारा।
जलाशय स्वच्छ हों सारे,सुखद अनुभूति हो सबको-
सतत चलते रहें हम सब,इरादा ले अटल यारा।

जला दो द्वेष तुम अपने,अहम का भी हवन कर दो।
सभी संकीर्ण भावों को,हृदय से तुम दहन कर दो।
सदाशयता से अब होगी ,मनुज पहचान बस तेरी-
बुरे कर्मो से कर तौबा,अभी उनका शमन कर दो।

कदर माँ-बाप की करके,सदा सम्मान मिलता है।
मधुर ममता अमिय पीकर,नया उनवान मिलता है।
रहे माँ-बाप का साया,कभी कुछ गम नही होता-
यहाँ माँ-बाप में ही तो,हमें भगवान मिलता है।

कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर,उत्तर प्रदेश


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विधाता छंद

२८ मात्रिक छंद ,
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

तुम्हारी याद जब आती,
हमें सोने नही देती।
किसी के साथ वो हमको,
कभी खोने नही देती।।

कहूँ मैं हाल अब कैसे?
बुझी अब आस ये सारी।
भरें जो आँख में आँसू ,
कहे वो बात ये सारी।।

हमें तो याद आते है,
बड़े कोमल खरे रिश्ते।
कभी रोतें कभी हँसते,
भरे वो प्यार की किश्तें।।

बड़ी निर्मल बड़ी पावन,
हमारे प्रीत की धारा।
भला क्यूँ भूल कर उसको,
बसाया घर नया न्यारा।।

कहा था सात जन्मों तक,
रहेगा साथ ये अपना।
गए यूँ फिर नही आए,
ढहा ये प्रीत का सपना।।

लगाके अब गले साथी,
मिटा दो दूरियाँ सारी।
सुनो ना ये सदा मेरी,
बुला के अब “सुवी” हारी।।


सुवर्णा परतानी
हैदराबाद 

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जिसका विधान कुछ इस प्रकार है-

यौगिक जाती 28 मात्रिक छंद
प्रति चरण 28 मात्रा
1222 1222, 1222 1222
14-14 पर यति
पहली आठवी और पन्द्रहवी मात्रा लघु अनिवार्य है
दो दो अथवा चारों चरण समतुकांत
विधाता छंद-14,14

घिरे काले घने मेघा,मधुर सावन बरसता है,
कहीं है प्रीत का बंधन, कहीं कोई तरसता है।
सुधा रस में मगन डूबे, मिलन की कामना मन मे,
भिगोती है रसा रसना,लगाती आग तन मन मे।
*** *** *** *** ***
मचातीं शोर नदियाँ भी,शिखर नभ चूम लेते हैं,
धरा ओढ़े वसन नीलम,मदन मन झूम लेते हैं।
दमकती दामिनी नभ में, अमिय रस शुचि टपकता है,
झुके नैना लरजते हैं, मुदित मन जब महकता है।
*** *** *** *** ***
सुहानी सी लगें बूंदे,पिया सावन भिगोता है,
किसी की बाँह में सजना, हिया सपने सँजोता है।
कहीं पर कूकती कोयल,प्रिये सरगम सुनाती है,
मयूरा नाचते सुंदर,मयूरी क्यों लजाती है।
*** *** *** *** ***
बही रसधार रिमझिम की,छिड़ी हो रागिनी जैसे,
धरा नभ मिल रहे दोनो,विमल मन कामिनी जैसे।
धरा से मेघ का घूंघट, हटाती हैं हवायें भी,
घिरी मोहक छटा मधुरिम,क्षितिज की चहुँ दिशाएँ भी।
*** *** *** *** ***
सखी श्रृंगार सावन में,करे धरणी सुहावन सी,
खिले हैं फूल आँचल में, सलोनी छवि सुहागन सी।
झुका आकाश धरती पर,धड़कती दामिनी तन मन,
शुचित सावन अनूठा है, मचलती कामिनी मधुवन,

रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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विधान यौगिक जाती २८मात्रिक छंद
प्रति चरण २८मात्रा
१२२२ १२२२,१२२२ १२२२
१४,१४यति
दो- दो सम तुकांत या चारो चरण समतुकांत

गीतिका
-
सभी कहते तराना जो,अभी तुमने सुनाया है,
बताऊँ क्या छिपाऊँ क्या,अभी दिल गुनगुनाया है।।

सदा उसकी सुनाई दे ,वही मन मे समाया है ,
जरा नजदीक आओ तुम,सुनो कुछ तो बताया है ।।

बसी दुनिया अकेले तुम,नही कोई यहां सबका ,
चले आओ चले आओ,हमी ने तो बुलाया है ।।

पिया तुम ही कहो अपनी,सुनूं सब बैठकर मैं भी,
जिया में रह गई बातें,उन्हीं से मन लुभाया है।।

अमिय रस दो पिला साजन,विदा जग से नही होना,
हँसी ख़्वाबों खिला सपना , मुझे जग ने बताया है ।।

विनीता सिंह विनी

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सविनित सादर,,,,

#विषय**होली गीत**
#विधा:-विधाता छंद:-विधान - इसके प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती है,14,14 मात्रा पर यति होती है,१,८,१५,२२वीं
मात्राएँ लघु १ होती हैं lमापनी -1222 1222 1222 1222
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मदनमय आज है फागुन!पुलक-ऋतुराज की होली,,,,,,,

पराभव हो,असत् का जब,
विजित-सत,सामने आए।
विरह की वेदना,घट कर,
मिलन की आस भर पाए।
सिमट कर दाह,सब उर से,
पयो-निधि,नेह,है घोली।
मदनमय आज है फागुन!
पुलक-ऋतुराज की होली,,,,,,,,,

पलाशी-पुष्प सा परिमल,
गगन को चूमता केतन।
मदिर-मादक,सुगंधा ले
नवल-शृंगार,हो चेतन।
विविध-विध,रंग की मिसरी
मदन-रति!राग की ढोली।
मदनमय आज है फागुन!
पुलक-ऋतुराज की होली,,,,,,,,

विशद-वर हित,कवित-उत्सव
रचे प्रतिमान,आँगन में।
सुभग संचार,नवचेतन,
सरस रस-धार,फागुन में।
सखे!तव भाल पर रच दूँ
शुचितमय नेह की रोली।
मदनमय आज है फागुन!
पुलक-ऋतुराज की होली,,,,,,,,,
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 विधाता छंद🌹

चलो अब गीत कोई हम,नया गाएं सुनायें यों।
लखें हम साँच को हर पल, यही जीवन बनाएं यों।
मिटा दें दूरियाँ मन की, निभाएँ हम सभी से यों।
यही सङ्कल्प लें मिलकर, अलख जग में जगाएँ यों।
***
मिले जब मार्ग में कोई, अगर भटक सताया हो।
गिरा अवसाद में डूबा, न मन को जीत पाया हो।
उसे फिर आत्मबल देकर, जलाओ दीप आशा का।
भरो उम्मीद से तन मन, निवारो तम निराशा का।
✍️~अविराज ~

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Saturday, June 13, 2020

मनोरम छंद (वर्णिक)- Hindi poetry


Explained By - Rajinder Kaur Ji , Amritsar .

प्रिय साहित्य अनुरागियों
अगली कड़ी में हम अभ्यास करेगें ,
शर्करी -चतुर्थदशाक्षरावृत
14 वर्णिक

मनोरम छंद (वर्णिक)
क्रमशः
सगण सगण सगण सगण लघु लघु (14वर्ण)
यथा
112 112 112 112 11
दो दो अथवा चारों चरण समतुकांत।
🌺🌺🌺🌺🌺
उदाहरण
साभार : छंदप्रभाकर


ससि सीस लला श्रवलोक मनोरम ।
कमनीय कला छकि जात न को रम।
विधि की रचना सच के मन भावन ।
जग में प्रगटो यह रत्न सुहावन ।
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
मेरी रचना
मनोरम छंद
भजलो तुम नाम यहाँ नित चंचल ,
मन में अब हो न विचार अमंगल ।
कर लो यह जीवन पावन सुंदर ,
अब हो हर जीव यहाँ मन सादर ।
जग ने समझे दुख यौगिक अंदर ,
मन से करलो धरणी सब आदर ।
तन आलस त्याग बनों तुम मानव ,
जग में अब हो न कभी तुम दानव ।
कर जोड़ करे सब नाथ यहाँ जप ,
मन के सब काज करे नित हो तप ।
बरसे बरखा बदली मन से जप ,
मन दैव सदैव करे सब ये तप ।
रजिन्दर कोर ( रेशू )
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मनोरम छंद
१४ वर्णिक छंद

११२ ११२ ११२ ११२ ११

जब भाव बने अति पावन अंदर।
तब ये जग में बिखरे धुन सुंदर।
हर रोज़ सदा कर मानव वंदन।
जब नाम जपों तुम ये रघु नंदन।।१।।

यह कष्ट तथा मद का भव नाशक।
प्रभु की महिमा बनती मन पोषक।
खिलता घुलता तन अंदर बाहर।
बन पारस ये हरि नाम मनोहर।।२।।

अनमोल कहे जब मानुष जीवन
शुभ अंजुल में भर सागर पावन।
इस छाँव तले कर ले तन चंदन।
चल जोड़ अभी प्रभु से नव बंधन।।३।।


सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
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मनोरम छंद
14 वर्णिक छंद

112 112 112 112 11
मन में रहती मधुमास मनोरथ।
प्रिय आवन की अभिलाष मनोरथ।।
हरि को भजती विरहाकुल व्याकुल।
निरखे पथ नैन निहारत आकुल।।

सुख-चैन चुराकर मोहन मोहत ।
जियरा भँवरा छवि श्याम सुहावत।।
यमुना तट साजन बाट दिखावत।
अँखियाँ तरसी पर श्याम न आवत।।

बहती नदिया हिम आलय से नित।
करती रहती जन मानस का हित।।
फल फूल सभी उपजें इससे वन।
परिवेश सजे हुलसे मन आँगन।।
नीलम शर्मा
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मनोरम छंद,14 वार्णिक
112 112 112 112 11

जग के निज खेवनहार सदा प्रभु।
सबके बस तारणहार सदा प्रभु।।
मन मे प्रभु का बस नाम रहे अब।
कर भक्ति सदा यह दास कहे अब।।

कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
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मनोरम छन्द (वर्णिक)

14 वर्ण , शर्करी - चतुर्थदशाक्षरावृत
सगण × 4 , पदांत 11,
सगण सगण सगण सगण लघु लघु

112 112 112 112 1 1
पग घूँघर सुन्दर बाज रहा अब ,
चलते मधुसूदन कृष्ण वहाँ जब।

यमुना तट गेंद उछाल रहे सब ,
महिमा प्रभु की नित देख रहे तब।

प्रभु नाम सदा सुमिरूँ अति पावन ,
प्रतिमा हरि की लगती मन भावन।

जन -जीवन की विपदा हरते सब,
भव बंधन काट दया करते तब ।

सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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 मनोरम छन्द(वार्णिक)
शर्करी -चतुर्थदशाक्षरावृत
14 वर्णिक
सगण ×4 लघु लघु (14वर्ण)

112 ,112, 112, 112- 11
दो दो अथवा चारों चरण समतुकांत।

हरि शीश सजे शुचि पंख सुहावन,
कर में मुरली मन मोहक भावन।
छुप माखन खाय लगाय रहे मुख,
यशुदा छवि देखत पाय रही सुख।
*** *** *** *** ***
पट पीत धरे तिरछी कटि मोहन,
शुभि कुंतल केश लगे मनभावन।
मधु माखन फोड़ दई मटकी हरि,
मिल खाय सखा मटकी दधि भरि।
*** *** *** ***
***
सखियाँ निरखें छवि श्याम मनोहर,
अँखियाँ छलकी प्रभु पाय धरोहर।
मन मोहन नैन बसे नटनागर,
शुचि प्रीत अनन्त प्रभू सुख सागर।
*** *** *** *** ***
शुभि श्यामल गात मनोरम सुंदर,
द्युति कंठ सुशोभित माल मनोहर।
हरि लोचन चंचल भृंग सुहावत,
मुरली मद तान मनोहर बाजत।
*** *** *** *** ***
मथुरा रस रास करै मन मोहन,
नित ग्वाल सखा मिल नाचत ग्वालन।
वृषभानु सुता लगती धरणी सम,
नयना मधु भोग करें हरि में रम।
*** *** *** *** ***
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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Saturday, June 6, 2020

चन्द्रिका छंद- Hindi poetry



Explined By Neelam Sharma ji ( New Delhi)
नमन साहित्य अनुरागियों 🙏
🙏माँ वीणापाणी को सादर नमन 🙏
साहित्य अनुरागी के सभी अनुरागियों को सादर नमन🙏वंदन।
आओ लगाएँ साहित्य_देवी के मस्तक पर
चन्द्रिका छंद का चंदन।।
साहित्यिक छंद की अविरल बहती इस भागिरथी रूपी काव्यसरिता में अपनी तुच्छ बुद्धि से अंजनी भर अर्घ्य अर्पण करने की कोशिश की है। अभी तक हमने बहुत से विलुप्त वार्णिक छंदों का अध्ययन किया है। आज आप सभी के समक्ष वर्णिक अतिजगती,त्रयोदशाक्षरावृति छंद यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ।
🙏🙏सादर प्रेषित 🙏🙏
अतिजगती त्रयोदशाक्षरावृति
13 वर्णिक छंद
-चन्द्रिका छंद-
विधान-नगण नगण तगण तगण गुरु
(111 111 2 21 221 2)
दो दो चरण समतुकांत, 7, 6 यति।
अपलक निरखें,नैन नीले नभी।
अनुपम किशना,देखि प्यारी छबी।।
कण-कण बसते,श्याम श्री देख लो।
प्रमुदित प्रभु को,आप भी देख लो।।
मधुरिम मुरली, रागिनी साधती।
मधु मिलन हिया,राधिका नाचती।।
सरस अमिय सी,बाँसुरी बाजती।
धवल शशि लुभा,चन्द्रिका राचती।।
मधुरिम कथनी, पाति प्यारी लिखे।
प्रतिपल सजनी,श्री मुरारी दिखे।।
मरघट मनवा , मोह माया चुनी।
बरबस हियड़ा, नेह माला गुनी।।
नीलम शर्मा
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चंद्रिका छन्द अतिजगती जाति
त्रयोदशाक्षरावृति
13 वार्णिक
111 111 2, 21 221 2
नगण, नगण, तगण, तगण- गुरु,
7, 6 यति

मन मधुवन में, राधिका झूमती,
रसमय नयना, श्याम के चूमती,
प्रिय मिलन बसी, आस रे साँवरे,
विकल नयन हैं, कृष्ण के बावरे।
*** *** *** *** ***
विरहन तपती, प्रीत में पावनी,
विटप सम खड़ी, छाँव ले भावनी।
सुर अधर धरे,बाँसुरी श्याम की,
अनुपम छवि है, कृष्ण के धाम की।
*** *** *** *** ***
वन उपवन में, झूमती मोरनी,
विपिन थिरकते, गोप भी ग्वालिनी,
सघन घन घिरे, मेघ काली छटा,
चपल मन पिया,मोह लेती घटा।
*** *** *** *** ***

कनक मुकुट में, मोर पाखी सजी,
नरकट हरि की, मोहनी सी बजी।
कुहुक कुहकती, कोकिला कूकती,
मुदित मद भरी, रागिनी घोलती।
*** *** *** *** ***
प्रमुदित मन से, नाचती मोहनी,
सजन सँवरती, साँवरी सोहनी।
सुरभि मलय सी, मंद वायू चले,
सुमन पथ भरे,रंग लाखों खिले।
*** *** *** *** ***
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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चंद्रिका छंद,13 वार्णिक
नगण नगण तगण तगण दीर्घ
111 111 221 221 2

सुखद-सरस हों,मित्र संसार में।
अमिय हृदय की,पावनी धार में।
जगत अमर है,प्रेम के सार में।
अटल विजय है, दर्प के हार में।।

कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
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चन्द्रिका छन्द (वर्णिक)
अतिजगती , त्रयोदशाक्षरावृति
13 वर्ण , 7,6 पर यति ,
नगण नगण तगण तगण गुरु
111 111 2 , 21 221 2

मन मुदित पिया , संग नैना लड़े,
नव रतन बने , कर्णिका में जड़े ।

तन-मन-धन से ,पिया की पावनी,
मधु मिलन प्रिये , प्रीत की छावनी।

छवि निरखत है , श्याम की मोहनी,
अधर पर सजी , बाँसुरी सोहनी।

सुमन खिल रही , वाटिका साजती,
गिरधर हिय में ,राधिका राजती।

सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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चंद्रिका छंद अतिजगती जाति
त्रयोदशाक्षरावृति
13 वार्णिक
111 111 2, 21 221 2
नगण , नगण , तगण , तगण - गुरु ,
7 , 6 यति

पवन चमन में , प्रेम फैला रही ,
जगत सुमन ये , मोह उड़ा रही ।
नरम नयन ये , रोज ताँके जिया ,
किरन जलन ये , प्यार माँगे पिया ।

सफल विफल है , मान दोनों सभी ,
सरल तरल ये , नैन जागे कभी ।
कदर कथन यूँ , भाव जागे जिया ,
कपट खपट ये , दाव खेले जिया ।

रजिन्दर कोर ( रेशू)
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चंद्रिका छंद, १३ वर्णिक छंद,
अतिजगती,त्रयोदशा क्षरावृत्ति जाती का छंद,
नगण नगण तगण तगण गुरु ,७/६ पर यति।
१११ १११ २२१ २२१ २

तन,मन,धन से,देख जोडा तुझे।
सजन वचन से,देख थोडा मुझे।
सजल नयन में, आस प्यारी जगी।
नवल अगन की, रीत न्यारी लगी।।१।।

पुनीत डगर पें, साथ तेरे चलूँ।
ग़ज़ल बन कभी ,संग मैं भी ढलूँ।
सजन मिलन को,रात आहें भरे।
कठिन समय की,बात काहें करे?।।२।।

सरस मधुर ये,प्रेम धारा बहे।
कमल अधर ये,गीत प्यारा कहे।
हृदय जतन हो,भाव ऐसे भरो।
सुखद मिलन से,पीर मेरी हरो।।३।।


सुवर्णा परतानी
हैदराबाद ✍️