Explained By Dr. pooja Mishra Ji "Aashna"
नमन माँ शारदे🙏
नमन आप सभी गुणीजन को🙏
आज ले कर आई हूँ आप सभी के समक्ष एक नया छंद
#विधाता_छंद
जिसका विधान कुछ इस प्रकार है-
यौगिक जाती 28 मात्रिक छंद
प्रति चरण 28 मात्रा
14-14 पर यति
पहली आठवी और पन्द्रहवी मात्रा लघु अनिवार्य है
दो दो अथवा चारों चरण समतुकांत।
इस छंद के आधार पर उर्दू बहर
मफाईलुन ×4
1222 1222, 1222,1222
उदाहरण-
विधाता छंद-14,14
लहौ विद्या लहौ रत्नै,लखौ रचना विधाता की।
सदा सद्भक्ति को धारे, शरण हो मुक्ति दाता की।।
वही सिरजै वही पाले,वही संहार करता है।
उसी को तुम भजौ प्यारे,वही सब दुःख हरता है।।
एक छोटी सी कोशिश मेरी भी:
1222 1222 1222 1222
नया जीवन बसाना है, पिया के संग जाना है,
अधूरे स्वप्न को शायद,हिया में ही छुपाना है।
नहीं पूछी नहीं जानी, किसी ने पीर ये गहरी,
कहा है तो यही बेटी,पराई ही सदा ठहरी।
समझ आती नहीं है क्यूँ,प्रथा ये दूर जाने की,
बनाई रीत है कैसी, पिता-माता छुड़ाने की?
कहो कैसे भुला दूँ मैं, भला ये नेह के बन्धन,
नहीं मैं भूल पाऊँगी ,कभी ये द्वार औ आँगन।
नयन भीगे,पड़े रीते,विदा की है घड़ी भारी,
लगे है टूटती साँसें,शिथिल है तंत्रिका सारी।
चली हूँ छोड़ के पीछे ,सभी रिश्ते सभी नाते,
रहे बेटी पराई क्यों,विधाता ये बता जाते।
डॉ. पूजा मिश्र #आशना
प्रदत्त छंद पर,
आप सभी के शानदार सृजन आमंत्रित हैं।।
पूजा मिश्र #आशना
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विधाता छंद
बचा लो सभ्यता प्यारी
बचा लो डूबती ही जा, रही है सभ्यता प्यारी।
खुले परिवेश की लिप्सा, बढ़ाती ये महामारी।
यहाँ प्रतिदिन दिखाई दें,करें उपहास जो इसका।
कभी बहके हुए कुछ नर,कभी भटकी हुयी नारी।।
बदलना वक्त की आदत, चलो ये मान लेते हैं।
तभी इतिहास रचते हैं, अलग जब ठान लेते हैं।
मगर जो स्वर्ण अक्षर में, लिखा जाए किताबों में।
पतित इंसान क्या जग को, भला वो ज्ञान देते हैं?
धरा पावन पुनीता ये,जगत ने गीत हैं गाए।
यहीं वो जगपुरुष जन्मे,त्रिपथगा को मना लाए।
हजारों शौर्य गाथाएं, सजी हैं भाल पर इसके।
दिखाने को यहाँ लीला, स्वयं पालक चले आए।
बड़े मनभावने लगते, सभी परिधान भारत के।
विदेशी भी यहाँ आकर,करें गुणगान भारत के।
कहो फिर क्यों लुभाती है, पराई सभ्यता तुमको?
समूचा विश्व जब देता, सदा उपमान भारत के।
मणि अग्रवाल 'मणिका'
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विधाता छन्द
यौगिक जाति का छन्द , 28 मात्रिक , 14 ,14 पर यति ,
1,8,15 मात्रा लघु अनिवार्य है ।दो-दो या चारो चरण समतुकान्त।
1222 1222 1222 1222
गिरे मेरी नजर से जो , उठा कोई नहीं करता ।
बुराई सब करें लेकिन , भला कोई नहीं करता।
करोगे मान अपनों का ,सदा आशीष पाओगे।
मिलेगा सुख वहाँ तुमको , जहाँ तुम सर झुकाओगे।
अकेले चल रहे हैं हम , कँटीली राह पर साथी ।
मिला कुछ भी नहीं लेकिन , जली दिन-रात बन बाती।
नहीं रखना किसी से द्वेष ,सबसे प्रेम तुम करना।
बनो सबका सहारा तुम , सभी के कष्ट तुम हरना ।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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विधाता छंद
मापनी- 1222 1222 1222 1222
लगावली- लगागागा लगागागा लगागागा लगागागा
1222 1222 1222 1222
दरस प्यासी विरह दासी,चले आओ चले आओ।
हिया में श्वास है बाकी,चले आओ चले आओ।।
खिला मधुमास विरहिन को न ऐसे श्याम तरसाओ।
निगोड़ी प्यास आँखों की सुनो आकर बुझा जाओ।।
न जाओ मध्य में प्रियतम चले आओ चले आओ।
दरस प्यासी विरह दासी,चले आओ चले आओ।।
अधर धर प्रेम की मुरली सकल जग प्रेममय कर दो।
सुनो प्रियतम सितारों से मेरी तुम मांग अब भर दो।।
अगर है प्रीत मुझसे तो,चले आओ चले आओ।
दरस प्यासी विरह दासी,चले आओ चले आओ।।
बहारें ये सुहानी हैं, सु-यौवन की कहानी है।
खिली देखो पिया कब से सुमन बगिया सुहानी हैं।।
पिरो कर प्रीति की माला चले आओ चले आओ।
दरस प्यासी विरह दासी,चले आओ चले आओ।।
तुम्हारी मोहिनी मूरत बसी नीलम निगाहों में।
बढ़ाऊँ प्रेम की पींघें तुम्हारी श्याम बाहों में।।
सजन यूं रूठ मत जाओ चले आओ चले आओ।
दरस प्यासी विरह दासी,चले आओ चले आओ।।
नीलम शर्मा
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विधाता छंद पर आधारित गीत
मापनी-1222, 1222, 1222, 1222
गीत
मुखड़ा
थका-हारा दुखों से मैं, व्यथा के गीत गाता हूँ।
व्यथा की इस प्रथा को मैं,सहजता से निभाता हूँ।।
अंतरा-01
कभी संयोग लिखता था,कभी सपने सजाता था।
मधुर शुचि भाव ही केवल, सदा उर में जगाता था।।
असीमित वेदना मन में, मुझे ठगते भला अपने।
बिछाकर स्वार्थ की चादर,भरोसे को छला सबने।।
अपरिमित पीर को भी मैं, सदा साथी बनाता हूँ।
व्यथा की इस प्रथा को मैं, सहजता से निभाता हूँ।।
अंतरा-02
उजाला अब नहीं कोई,तिमिर विस्तीर्ण जीवन में।
दुखों की ही सघनता है, नही उल्लास भी मन में।।
सहन होता नहीं मुझको,हृदय में क्षोभ है इतना।
गरल पीता रहा मन भी,धरे वह धीर भी कितना।।
विशद पीड़ा हृदय की मैं, कठिनता से मिटाता हूँ।
व्यथा की इस प्रथा को मैं, सहजता से निभाता हूँ।।
अंतरा-03
दिखे अपना नहीं कोई,पराये सब यहाँ लगते।
स्रवित हो चाशनी हिय में, कि रिश्ते हैं जहाँ पगते।।
ऋचाएँ वेद की कहतीं,यही तो ग्रन्थ कहते हैं।
मनुजता है जहाँ जीवित,वहीं भगवान रहते हैं।।
दिया अब आस का उर में, जलाता हूँ ,बुझाता हूँ।
व्यथा की इस प्रथा को मैं, सहजता से निभाता हूँ।।
थका-हारा दुखों से मैं, व्यथा के गीत गाता हूँ।
व्यथा की इस प्रथा को मैं, सहजता से निभाता हूँ।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
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विधाता छंद पर आधारित मुक्तक
मापनी-1222 1222 1222 1222
सभी नदियाँ रहे निर्मल,बहे पावन प्रबल धारा।
इसी उद्देश्य से अब तो,बनें जीवन सबल सारा।
जलाशय स्वच्छ हों सारे,सुखद अनुभूति हो सबको-
सतत चलते रहें हम सब,इरादा ले अटल यारा।
जला दो द्वेष तुम अपने,अहम का भी हवन कर दो।
सभी संकीर्ण भावों को,हृदय से तुम दहन कर दो।
सदाशयता से अब होगी ,मनुज पहचान बस तेरी-
बुरे कर्मो से कर तौबा,अभी उनका शमन कर दो।
कदर माँ-बाप की करके,सदा सम्मान मिलता है।
मधुर ममता अमिय पीकर,नया उनवान मिलता है।
रहे माँ-बाप का साया,कभी कुछ गम नही होता-
यहाँ माँ-बाप में ही तो,हमें भगवान मिलता है।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर,उत्तर प्रदेश
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विधाता छंद
२८ मात्रिक छंद ,
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
तुम्हारी याद जब आती,
हमें सोने नही देती।
किसी के साथ वो हमको,
कभी खोने नही देती।।
कहूँ मैं हाल अब कैसे?
बुझी अब आस ये सारी।
भरें जो आँख में आँसू ,
कहे वो बात ये सारी।।
हमें तो याद आते है,
बड़े कोमल खरे रिश्ते।
कभी रोतें कभी हँसते,
भरे वो प्यार की किश्तें।।
बड़ी निर्मल बड़ी पावन,
हमारे प्रीत की धारा।
भला क्यूँ भूल कर उसको,
बसाया घर नया न्यारा।।
कहा था सात जन्मों तक,
रहेगा साथ ये अपना।
गए यूँ फिर नही आए,
ढहा ये प्रीत का सपना।।
लगाके अब गले साथी,
मिटा दो दूरियाँ सारी।
सुनो ना ये सदा मेरी,
बुला के अब “सुवी” हारी।।
सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
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जिसका विधान कुछ इस प्रकार है-
यौगिक जाती 28 मात्रिक छंद
प्रति चरण 28 मात्रा
1222 1222, 1222 1222
14-14 पर यति
पहली आठवी और पन्द्रहवी मात्रा लघु अनिवार्य है
दो दो अथवा चारों चरण समतुकांत
विधाता छंद-14,14
घिरे काले घने मेघा,मधुर सावन बरसता है,
कहीं है प्रीत का बंधन, कहीं कोई तरसता है।
सुधा रस में मगन डूबे, मिलन की कामना मन मे,
भिगोती है रसा रसना,लगाती आग तन मन मे।
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मचातीं शोर नदियाँ भी,शिखर नभ चूम लेते हैं,
धरा ओढ़े वसन नीलम,मदन मन झूम लेते हैं।
दमकती दामिनी नभ में, अमिय रस शुचि टपकता है,
झुके नैना लरजते हैं, मुदित मन जब महकता है।
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सुहानी सी लगें बूंदे,पिया सावन भिगोता है,
किसी की बाँह में सजना, हिया सपने सँजोता है।
कहीं पर कूकती कोयल,प्रिये सरगम सुनाती है,
मयूरा नाचते सुंदर,मयूरी क्यों लजाती है।
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बही रसधार रिमझिम की,छिड़ी हो रागिनी जैसे,
धरा नभ मिल रहे दोनो,विमल मन कामिनी जैसे।
धरा से मेघ का घूंघट, हटाती हैं हवायें भी,
घिरी मोहक छटा मधुरिम,क्षितिज की चहुँ दिशाएँ भी।
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सखी श्रृंगार सावन में,करे धरणी सुहावन सी,
खिले हैं फूल आँचल में, सलोनी छवि सुहागन सी।
झुका आकाश धरती पर,धड़कती दामिनी तन मन,
शुचित सावन अनूठा है, मचलती कामिनी मधुवन,
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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विधान यौगिक जाती २८मात्रिक छंद
प्रति चरण २८मात्रा
१२२२ १२२२,१२२२ १२२२
१४,१४यति
दो- दो सम तुकांत या चारो चरण समतुकांत
गीतिका
-
सभी कहते तराना जो,अभी तुमने सुनाया है,
बताऊँ क्या छिपाऊँ क्या,अभी दिल गुनगुनाया है।।
सदा उसकी सुनाई दे ,वही मन मे समाया है ,
जरा नजदीक आओ तुम,सुनो कुछ तो बताया है ।।
बसी दुनिया अकेले तुम,नही कोई यहां सबका ,
चले आओ चले आओ,हमी ने तो बुलाया है ।।
पिया तुम ही कहो अपनी,सुनूं सब बैठकर मैं भी,
जिया में रह गई बातें,उन्हीं से मन लुभाया है।।
अमिय रस दो पिला साजन,विदा जग से नही होना,
हँसी ख़्वाबों खिला सपना , मुझे जग ने बताया है ।।
विनीता सिंह विनी
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सविनित सादर,,,,
#विषय**होली गीत**
#विधा:-विधाता छंद:-विधान - इसके प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती है,14,14 मात्रा पर यति होती है,१,८,१५,२२वीं
मात्राएँ लघु १ होती हैं lमापनी -1222 1222 1222 1222
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मदनमय आज है फागुन!पुलक-ऋतुराज की होली,,,,,,,
पराभव हो,असत् का जब,
विजित-सत,सामने आए।
विरह की वेदना,घट कर,
मिलन की आस भर पाए।
सिमट कर दाह,सब उर से,
पयो-निधि,नेह,है घोली।
मदनमय आज है फागुन!
पुलक-ऋतुराज की होली,,,,,,,,,
पलाशी-पुष्प सा परिमल,
गगन को चूमता केतन।
मदिर-मादक,सुगंधा ले
नवल-शृंगार,हो चेतन।
विविध-विध,रंग की मिसरी
मदन-रति!राग की ढोली।
मदनमय आज है फागुन!
पुलक-ऋतुराज की होली,,,,,,,,
विशद-वर हित,कवित-उत्सव
रचे प्रतिमान,आँगन में।
सुभग संचार,नवचेतन,
सरस रस-धार,फागुन में।
सखे!तव भाल पर रच दूँ
शुचितमय नेह की रोली।
मदनमय आज है फागुन!
पुलक-ऋतुराज की होली,,,,,,,,,
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विधाता छंद🌹
चलो अब गीत कोई हम,नया गाएं सुनायें यों।
लखें हम साँच को हर पल, यही जीवन बनाएं यों।
मिटा दें दूरियाँ मन की, निभाएँ हम सभी से यों।
यही सङ्कल्प लें मिलकर, अलख जग में जगाएँ यों।
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मिले जब मार्ग में कोई, अगर भटक सताया हो।
गिरा अवसाद में डूबा, न मन को जीत पाया हो।
उसे फिर आत्मबल देकर, जलाओ दीप आशा का।
भरो उम्मीद से तन मन, निवारो तम निराशा का।
✍️~अविराज ~
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