Explained By - Rajinder Kaur Ji , Amritsar .
प्रिय साहित्य अनुरागियों
अगली कड़ी में हम अभ्यास करेगें ,
शर्करी -चतुर्थदशाक्षरावृत
14 वर्णिक
मनोरम छंद (वर्णिक)
क्रमशः
सगण सगण सगण सगण लघु लघु (14वर्ण)
यथा
112 112 112 112 11
दो दो अथवा चारों चरण समतुकांत।
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उदाहरण
साभार : छंदप्रभाकर
ससि सीस लला श्रवलोक मनोरम ।
कमनीय कला छकि जात न को रम।
विधि की रचना सच के मन भावन ।
जग में प्रगटो यह रत्न सुहावन ।
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मेरी रचना
मनोरम छंद
भजलो तुम नाम यहाँ नित चंचल ,
मन में अब हो न विचार अमंगल ।
कर लो यह जीवन पावन सुंदर ,
अब हो हर जीव यहाँ मन सादर ।
जग ने समझे दुख यौगिक अंदर ,
मन से करलो धरणी सब आदर ।
तन आलस त्याग बनों तुम मानव ,
जग में अब हो न कभी तुम दानव ।
कर जोड़ करे सब नाथ यहाँ जप ,
मन के सब काज करे नित हो तप ।
बरसे बरखा बदली मन से जप ,
मन दैव सदैव करे सब ये तप ।
रजिन्दर कोर ( रेशू )
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मनोरम छंद
१४ वर्णिक छंद
११२ ११२ ११२ ११२ ११
जब भाव बने अति पावन अंदर।
तब ये जग में बिखरे धुन सुंदर।
हर रोज़ सदा कर मानव वंदन।
जब नाम जपों तुम ये रघु नंदन।।१।।
यह कष्ट तथा मद का भव नाशक।
प्रभु की महिमा बनती मन पोषक।
खिलता घुलता तन अंदर बाहर।
बन पारस ये हरि नाम मनोहर।।२।।
अनमोल कहे जब मानुष जीवन
शुभ अंजुल में भर सागर पावन।
इस छाँव तले कर ले तन चंदन।
चल जोड़ अभी प्रभु से नव बंधन।।३।।
सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
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मनोरम छंद
14 वर्णिक छंद
112 112 112 112 11
मन में रहती मधुमास मनोरथ।
प्रिय आवन की अभिलाष मनोरथ।।
हरि को भजती विरहाकुल व्याकुल।
निरखे पथ नैन निहारत आकुल।।
सुख-चैन चुराकर मोहन मोहत ।
जियरा भँवरा छवि श्याम सुहावत।।
यमुना तट साजन बाट दिखावत।
अँखियाँ तरसी पर श्याम न आवत।।
बहती नदिया हिम आलय से नित।
करती रहती जन मानस का हित।।
फल फूल सभी उपजें इससे वन।
परिवेश सजे हुलसे मन आँगन।।
नीलम शर्मा
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मनोरम छंद,14 वार्णिक
112 112 112 112 11
जग के निज खेवनहार सदा प्रभु।
सबके बस तारणहार सदा प्रभु।।
मन मे प्रभु का बस नाम रहे अब।
कर भक्ति सदा यह दास कहे अब।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
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मनोरम छन्द (वर्णिक)
14 वर्ण , शर्करी - चतुर्थदशाक्षरावृत
सगण × 4 , पदांत 11,
सगण सगण सगण सगण लघु लघु
112 112 112 112 1 1
पग घूँघर सुन्दर बाज रहा अब ,
चलते मधुसूदन कृष्ण वहाँ जब।
यमुना तट गेंद उछाल रहे सब ,
महिमा प्रभु की नित देख रहे तब।
प्रभु नाम सदा सुमिरूँ अति पावन ,
प्रतिमा हरि की लगती मन भावन।
जन -जीवन की विपदा हरते सब,
भव बंधन काट दया करते तब ।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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मनोरम छन्द(वार्णिक)
शर्करी -चतुर्थदशाक्षरावृत
14 वर्णिक
सगण ×4 लघु लघु (14वर्ण)
112 ,112, 112, 112- 11
दो दो अथवा चारों चरण समतुकांत।
हरि शीश सजे शुचि पंख सुहावन,
कर में मुरली मन मोहक भावन।
छुप माखन खाय लगाय रहे मुख,
यशुदा छवि देखत पाय रही सुख।
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पट पीत धरे तिरछी कटि मोहन,
शुभि कुंतल केश लगे मनभावन।
मधु माखन फोड़ दई मटकी हरि,
मिल खाय सखा मटकी दधि भरि।
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सखियाँ निरखें छवि श्याम मनोहर,
अँखियाँ छलकी प्रभु पाय धरोहर।
मन मोहन नैन बसे नटनागर,
शुचि प्रीत अनन्त प्रभू सुख सागर।
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शुभि श्यामल गात मनोरम सुंदर,
द्युति कंठ सुशोभित माल मनोहर।
हरि लोचन चंचल भृंग सुहावत,
मुरली मद तान मनोहर बाजत।
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मथुरा रस रास करै मन मोहन,
नित ग्वाल सखा मिल नाचत ग्वालन।
वृषभानु सुता लगती धरणी सम,
नयना मधु भोग करें हरि में रम।
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रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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