"जगती द्वादशाक्षरावृत "
12 वर्णिक छंद।
"स्त्रग्विणी_छंद"
रगण×4
यथा
212 212 212 212
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स्रग्विणी छंद
१२ वर्णिक छंद
२१२ २१२ २१२ २१२
जाग नारी तुझे जागना है अभी।
ख़त्म होगी सभी मुश्किलें तभी।
आँख कोई उठा के तुझे देख ले।
वो बुरी सोच से हाथ जो सेक ले।।१।।
तोड दो मोड दो जो तुझे तौलता।
बात ही बात में लात से बोलता।
भोग की चीज़ तू ये सदा वो कहे।
वासना से भरा रूप तू क्यूँ सहे?।।२।।
राह में शूल ये डाल के है चला।
शील वो नोच के मर्द काटें गला।
मौन बैठो न यूँ आग ज्वाला बनो।
आज काली लगो आज दुर्गा बनो।।३।।
सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
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स्रग्विणी छंद
१२ वर्णिक छंद
२१२ २१२ २१२ २१२
रगण रगण रगण रगण
प्रीत के गीत प्राणेश गाने लगे।
मुग्ध हो वे मुझे भी लुभाने लगे।।
झूम झूला पिया जी झुलाने लगे।
रात मेरी खुशी से सजाने लगे।।
नेह के कंत मैं गीत गाती रहूँ।
प्रीत की रीत मैं भी निभाती रहूँ।।
प्रेम संगीत ही मैं सुनाती रहूँ।
मार्ग में पुष्प ही मैं बिछाती रहूँ।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
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स्त्रग्विणी छंद
☘️
वो कहे जा रहे राज की बात है।
दर्द का साज भी दे रहा साथ है।
रोक लेना उसे है कहाँ हाथ में।
काश! माने हमारी भरी रात में।
☘️
भेद देखे नही जीत या हार में।
चोट खाये वही जानता प्यार में।
जान ले दुःख जो और के यों सभी।
प्रीत का ये घड़ा रीतता ना कभी।
☘️
थाम लेना उसे कष्ट में जो मिले।
फूल भी है वही धूप में जो खिले।
झाँक लो आज ही भीतरी द्वार में।
प्यार ही प्यार है प्रेम संसार में।
2122 1221 2212
✍️
अरविन्द चास्टा
कपासन चित्तौड़गढ़ राज।
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स्त्रग्विणी_छंद
रगण×4
यथा
212 212 212 212
देह मैं, प्राण हो, आप ही साँवरे,
नैन को, दर्श दो, हो रहे बाँवरे।
त्याग दोगे मुझे, आप यों मोहना,
वारती क्यों हिया, आपको सोहना!!
दूरियाँ, जेठ की, धूप के ताप सी,
मूक आत्मा जपे, आपको जाप सी।
आ सको जो नहीं, जीव को मुक्ति दो,
श्याम स्वीकार लो,आप यों भक्ति को।।
धीरता, आप सी, राधिका में नहीं,
श्वांस है, बंध में, आप में, ही कहीं।
पाश को तोड़ पी,छोड़ भी दीजिए
जीर्ण को पूर्ण में, जोड़ भी लीजिए।।
कष्ट क्या, आप मेरा, नहीं जानते?
क्या मुझे, प्राणप्यारी नहीं मानते?
यों बताओ,न सच्ची रही प्रीति क्या?
दे रहे वेदना, है सही नीति क्या?
मणि अग्रवाल
देहरादून (उत्तराखंड)
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#स्त्रग्विणी_छंद
रगण×4
यथा
2 12 2 12 21 2 212
आसमां आप हैं मैं धरा हूँ पिया।
आज खोलो पिया भेद जो है हिया।।
चैन पाऊँ कहाँ श्याम देखे बिना।
रैन बीते वियोगी सुनो साजना।।
प्रेम के साँवरे गा रही गीत मैं।
प्रेयसी पीर भी पा रही प्रीत में।।
आस का दीप कान्हा जगादो मना!
आँसुओं को दृगों से हटा दो बना।
आपके नेह ने ही सँवारा मुझे।
आभ सी देह में है निखारा मुझे।।
क्षीर में नाव के हो खिवैया बनें।
आप तूफान में श्याम नैया बनें।।
नीलम शर्मा
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स्त्रग्विणी_छंद
रगण×4
यथा
212 212 212 212
शीर्षक- बाँसुरी
बाँसुरी माँगती राधिका श्याम से,
सौत सी हो गई बाँसुरी नाम से,
लेटती होठ में श्याम की प्रेयसी,
श्याम को भा रही बाँसुरी रूपसी,
*** *** *** *** ***
राधिका बाँसुरी श्याम से ले गई,
नैन से प्रीत के बोल भी दे गई,
जी नही पाऊँगा राधिका के बिना,
श्याम पूरा नही बाँसुरी के बिना।
*** *** *** *** ***
प्रेम की रागिनी बाँसुरी गा रही,
बावरी राधिके तू सता क्यों रही,
यूँ चिढाना बुरा है सताना बुरा,
बाँसुरी प्रीत है यूँ छिपाना बुरा।
*** *** *** *** ***
प्रीत की मीत राधा रहोगी सदा,
नेह की डोर से ही जुड़ी हो यदा,
बाँसुरी से नही बैर कोई प्रिया,
राधिका प्राण हो श्याम की हो हिया।
*** *** *** *** ***
रूठना छोड़ दो पास आओ जरा,
श्याम तेरा प्रिये व्योम सा तू धरा,
बावरे नैन में खो गई राधिका,
नेह की बाँसुरी की बनी साधिका।
*** *** *** *** ***
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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स्त्रग्विणी छन्द
रगण ×4
रगण रगण रगण रगण
212 212 212 212
मोह से हूँ घिरा मैं करूँ प्रार्थना,
नाथ तेरी दया मैं करूँ अर्चना।
प्रेम ही भक्ति है प्रेम ही साधना,
मैं सदा ही करूँ नाथ आराधना।
पाप से मैं बचूँ सत्य ही मैं कहूँ,
प्रेम का दीप मैं यूँ जलाती रहूँ।
तू मुझे शक्ति दे तू मुझे राह दे,
डूबने हूँ लगी तू मुझे थाह दे।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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स्त्रग्विणी छंद
२१२ * ४
प्रेम का दीप कोई जलाता चले
नीड़ को आँधियों से बचाता चले
शब्द फूटें नहीं मौन संवाद हो
ज्ञान वैराग्य का भक्ति का नाद हो
मग्न हो के सुने शब्द सारे सभी
शांति का गीत ऐसा सुनाता चले
प्रेम का दीप कोई जलाता चले
विश्व कल्याण को त्याग सर्वस्व दे
और आगे बढ़े जीत का अश्व ले
वो स्वयं जो यहाँ आज स्वच्छंद हो
कैद से पंछियों को उड़ाता चले
प्रेम का दीप कोई जलाता चले
ले सहारा नहीं जो कभी ढाल का
राह भी मोड़ के वो चले काल का
बुद्धि से शौर्य से और विश्वास से
राह पाषाण में भी बनाता चले
प्रेम का दीप कोई जलाता चले
आयुष कश्यप
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स्त्रग्विणी_छंद
रगण×4
यथा
212 212 212 212
देह मैं, प्राण हो, आप ही साँवरे,
नैन को, दर्श दो, हो रहे बाँवरे।
त्याग दोगे मुझे, आप यों मोहना,
वारती क्यों हिया, आपको सोहना!!
दूरियाँ, जेठ की, धूप के ताप सी,
मूक आत्मा जपे, आपको जाप सी।
आ सको जो नहीं, जीव को मुक्ति दो,
श्याम स्वीकार लो,आप यों भक्ति को।।
धीरता, आप सी, राधिका में नहीं,
श्वांस है, बंध में, आप में, ही कहीं।
पाश को तोड़ पी,छोड़ भी दीजिए
जीर्ण को पूर्ण में, जोड़ भी लीजिए।।
कष्ट क्या, आप मेरा, नहीं जानते?
क्या मुझे, प्राणप्यारी नहीं मानते?
यों बताओ,न सच्ची रही प्रीति क्या?
दे रहे वेदना, है सही नीति क्या?
मणि अग्रवाल
देहरादून (उत्तराखंड)
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#स्त्रग्विणी_छंद
रगण×4
यथा
2 12 2 12 21 2 212
आसमां आप हैं मैं धरा हूँ पिया।
आज खोलो पिया भेद जो है हिया।।
चैन पाऊँ कहाँ श्याम देखे बिना।
रैन बीते वियोगी सुनो साजना।।
प्रेम के साँवरे गा रही गीत मैं।
प्रेयसी पीर भी पा रही प्रीत में।।
आस का दीप कान्हा जगादो मना!
आँसुओं को दृगों से हटा दो बना।
आपके नेह ने ही सँवारा मुझे।
आभ सी देह में है निखारा मुझे।।
क्षीर में नाव के हो खिवैया बनें।
आप तूफान में श्याम नैया बनें।।
नीलम शर्मा
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स्त्रग्विणी_छंद
रगण×4
यथा
212 212 212 212
शीर्षक- बाँसुरी
बाँसुरी माँगती राधिका श्याम से,
सौत सी हो गई बाँसुरी नाम से,
लेटती होठ में श्याम की प्रेयसी,
श्याम को भा रही बाँसुरी रूपसी,
*** *** *** *** ***
राधिका बाँसुरी श्याम से ले गई,
नैन से प्रीत के बोल भी दे गई,
जी नही पाऊँगा राधिका के बिना,
श्याम पूरा नही बाँसुरी के बिना।
*** *** *** *** ***
प्रेम की रागिनी बाँसुरी गा रही,
बावरी राधिके तू सता क्यों रही,
यूँ चिढाना बुरा है सताना बुरा,
बाँसुरी प्रीत है यूँ छिपाना बुरा।
*** *** *** *** ***
प्रीत की मीत राधा रहोगी सदा,
नेह की डोर से ही जुड़ी हो यदा,
बाँसुरी से नही बैर कोई प्रिया,
राधिका प्राण हो श्याम की हो हिया।
*** *** *** *** ***
रूठना छोड़ दो पास आओ जरा,
श्याम तेरा प्रिये व्योम सा तू धरा,
बावरे नैन में खो गई राधिका,
नेह की बाँसुरी की बनी साधिका।
*** *** *** *** ***
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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स्त्रग्विणी छन्द
रगण ×4
रगण रगण रगण रगण
212 212 212 212
मोह से हूँ घिरा मैं करूँ प्रार्थना,
नाथ तेरी दया मैं करूँ अर्चना।
प्रेम ही भक्ति है प्रेम ही साधना,
मैं सदा ही करूँ नाथ आराधना।
पाप से मैं बचूँ सत्य ही मैं कहूँ,
प्रेम का दीप मैं यूँ जलाती रहूँ।
तू मुझे शक्ति दे तू मुझे राह दे,
डूबने हूँ लगी तू मुझे थाह दे।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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स्त्रग्विणी छंद
२१२ * ४
प्रेम का दीप कोई जलाता चले
नीड़ को आँधियों से बचाता चले
शब्द फूटें नहीं मौन संवाद हो
ज्ञान वैराग्य का भक्ति का नाद हो
मग्न हो के सुने शब्द सारे सभी
शांति का गीत ऐसा सुनाता चले
प्रेम का दीप कोई जलाता चले
विश्व कल्याण को त्याग सर्वस्व दे
और आगे बढ़े जीत का अश्व ले
वो स्वयं जो यहाँ आज स्वच्छंद हो
कैद से पंछियों को उड़ाता चले
प्रेम का दीप कोई जलाता चले
ले सहारा नहीं जो कभी ढाल का
राह भी मोड़ के वो चले काल का
बुद्धि से शौर्य से और विश्वास से
राह पाषाण में भी बनाता चले
प्रेम का दीप कोई जलाता चले
आयुष कश्यप
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स्रग्विणी छंद
212 212 212 212
साजना प्रीत को यूँ निभाना सदा
याद मेरी हिया में बसाना सदा।
मैं हुई बावरी प्यार में यूँ पिया
प्रेम की आँच में है जले ये जिया।।
ओढ़नी लाल मेरी कहे साथिया
प्यार को छू लिया,प्यार को पा लिया।
गीत गाती रहूँ प्रेम की रीत के
ढाल ली ज़िन्दगी रंग में मीत के।।
बाँध लेना मुझे प्रेम की डोर से
ज्यूँ सजे आसमाँ लाल सी भोर से।
राधिका मैं लगूं वो बिहारी लगे।
प्रेम का ही मुझे वो पुजारी लगे।।
स्वरचित
डॉ. पूजा मिश्र #आशना
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मापनी--212 212 212 212
रगण ×4
#स्त्रग्विणी___छंद
-------------------------------------
प्रेयसी मैं तुम्हारी हमेशा बनूँ।
आँगना में रहूँ मैं हमेशा खिलूँ।
रात रानी खिली चाँदनी रात में ।
भोर को ही मरी जो पड़ी राह में।
प्रेम के प्रीत में थी छली भैरवी।
आस के रोग से थी खिली सौरवी।
आग ही तो लगी जो जली मानवी।
प्यार की चाह में वो चली साधवी।
विनी
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स्त्रग्विणी छंद
212 212 212 212
प्यार से यूँ सदा बात होती रहे ,
मान से यूँ सभी राह आती रहे ।
दीप कोई जले प्रेम का तो चले ,
प्यार का साथ हो हाथ हो तो चले ।
रजिन्दर कोर ( रेशू )
-------------------------------------------------------
#स्त्रग्विणी_छंद-रगण×4
212 212 212 212
आस के दीप से, नव्य को साधती,
नव्य की नव्यता, प्राण को मोहती।
काँपते-गात को, धूप है चीरती ,
है,कहीं दीनता? दीन को बोधती ।
हे सखे! ये कहो, कौनसी भू-मिती?
क्या,सही या कमी,राज ये खोलती?
नव्य है,ये दिवा, नव्य है,ये दिती,
जो गया, सो गया,धीरता बोलती।
सोचते ही रहे,शेष-अभ्यर्थना ,
बंद नैना, प्रिये ! सत्य की वाँछना।
नैन यूँ बोलते, साक्ष्य को ढूँढ़ना,
चित्त को छेदते, राज को खोलना।
गर्त में डूबती, लिप्त संकल्पना,
गंध को सूँघती, मौन हो वासना ।
दूर ही है खडी़ ,धीर की अल्पना,
दूर से देखती,नव्य की कल्पना।
-----------------------------------
रागिनी_नरेंद्र_शास्त्री
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"जगती द्वादशाक्षरावृत"
12 वर्णिक छंद
************
स्त्रग्विणी छंद
रगण×4
212 212 212 212
गीत
अधूरी रही ..
जिंदगी में कमी बंदगी की रही
बात कैसे कहूँ जो अधूरी रही।
साथ मेरे कहाँ चालबाजी हुई
वो पुरानी कहानी न पूरी हुई।
फूल शेफालिका के बिखेरे कभी
वेदना की सही मौन पीड़ा तभी
ऐ बिछोही ,सभी पीर मैंने सही।
बात कैसे कहूँ ,जो अधूरी रही।
ये सही है कहाँ ,भूलती हूँ तुम्हें
जो रुलाये वही , गीत भाता हमें।
बादलों में लिखी ,कामना वो सभी
माँगती ही रही ,आप से जो कभी।
थाम के हाथ जो ,मैं बुलाती रही
बात कैसे कहूँ ,जो अधूरी रही।
बात तो मानते,रार को टालते
साथ मेरे सभी प्रास.को पाटते।
नेह पुष्पों सजी पालकी थी खडी
देख लो साथिनें वो सभी थी अड़ी।
साथ ले याद डोली चढ़ी जा रही ।
बात कैसे कहूँ ,जो अधूरी रही।
छंद मेरे अधूरे ,रहे आज भी
गीत गाते हुये तो चुभे साज भी।
प्यार की साध ले मैं बनी जोगिनी
रात रानी सजाती रही योगिनी।
साँस की बीन पे नाचती ही रही
बात कैसे कहूँ जो अधूरी रही।
पाखी
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स्त्रग्विणी छंद
२१२x४(वर्णिक छंद; १२ वर्ण)
दो अथवा चारों चरण समतुकांत
धुंधला - धुंधला साँझ का धुँआ,
साजना तू छिपा दूर जाके कहाँ।
आ रही है मुझे याद तेरी पिया,
और लागे कहीं भी नहीं ये जिया।
वेदना मैं कहूँ जा किसे ये बता,
लौट आ तू नहीं यों मुझे सता।
प्रेम - बंधन टूटे नहीं जान लो,
हाथ छूटे नहीं ये कभी मान लो।
द्वार पे हूँ खड़ी देखती हूँ घड़ी,
क्यूँ न आये पिया सोचती हूँ खड़ी।
रैन भी छा गयी ये जिया भी डरे,
नैन नींदे नहीं आँसुओं से भरे।
पीड़ मेरे जिया की नहीं जानते,
बात मेरी कभी भी नहीं मानते।
लौट कर आ गए देख पक्षी सभी,
मैं निहारूँ तुझे तू न आया अभी।
आ गए तो बनाओ न बातें नयी,
देखकर जान में जान ही आ गयी।
यों न जाना कभी छोड़कर तू मुझे,
बात मानो पिया हाथ जोड़ूँ तुझे।
जितेंदर पाल सिंह
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मापनी--212 212 212 212
रगण ×4
#स्त्रग्विणी___छंद
-------------------------------------
प्रेयसी मैं तुम्हारी हमेशा बनूँ।
आँगना में रहूँ मैं हमेशा खिलूँ।
रात रानी खिली चाँदनी रात में ।
भोर को ही मरी जो पड़ी राह में।
प्रेम के प्रीत में थी छली भैरवी।
आस के रोग से थी खिली सौरवी।
आग ही तो लगी जो जली मानवी।
प्यार की चाह में वो चली साधवी।
विनी
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स्त्रग्विणी छंद
212 212 212 212
प्यार से यूँ सदा बात होती रहे ,
मान से यूँ सभी राह आती रहे ।
दीप कोई जले प्रेम का तो चले ,
प्यार का साथ हो हाथ हो तो चले ।
रजिन्दर कोर ( रेशू )
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#स्त्रग्विणी_छंद-रगण×4
212 212 212 212
आस के दीप से, नव्य को साधती,
नव्य की नव्यता, प्राण को मोहती।
काँपते-गात को, धूप है चीरती ,
है,कहीं दीनता? दीन को बोधती ।
हे सखे! ये कहो, कौनसी भू-मिती?
क्या,सही या कमी,राज ये खोलती?
नव्य है,ये दिवा, नव्य है,ये दिती,
जो गया, सो गया,धीरता बोलती।
सोचते ही रहे,शेष-अभ्यर्थना ,
बंद नैना, प्रिये ! सत्य की वाँछना।
नैन यूँ बोलते, साक्ष्य को ढूँढ़ना,
चित्त को छेदते, राज को खोलना।
गर्त में डूबती, लिप्त संकल्पना,
गंध को सूँघती, मौन हो वासना ।
दूर ही है खडी़ ,धीर की अल्पना,
दूर से देखती,नव्य की कल्पना।
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रागिनी_नरेंद्र_शास्त्री
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"जगती द्वादशाक्षरावृत"
12 वर्णिक छंद
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स्त्रग्विणी छंद
रगण×4
212 212 212 212
गीत
अधूरी रही ..
जिंदगी में कमी बंदगी की रही
बात कैसे कहूँ जो अधूरी रही।
साथ मेरे कहाँ चालबाजी हुई
वो पुरानी कहानी न पूरी हुई।
फूल शेफालिका के बिखेरे कभी
वेदना की सही मौन पीड़ा तभी
ऐ बिछोही ,सभी पीर मैंने सही।
बात कैसे कहूँ ,जो अधूरी रही।
ये सही है कहाँ ,भूलती हूँ तुम्हें
जो रुलाये वही , गीत भाता हमें।
बादलों में लिखी ,कामना वो सभी
माँगती ही रही ,आप से जो कभी।
थाम के हाथ जो ,मैं बुलाती रही
बात कैसे कहूँ ,जो अधूरी रही।
बात तो मानते,रार को टालते
साथ मेरे सभी प्रास.को पाटते।
नेह पुष्पों सजी पालकी थी खडी
देख लो साथिनें वो सभी थी अड़ी।
साथ ले याद डोली चढ़ी जा रही ।
बात कैसे कहूँ ,जो अधूरी रही।
छंद मेरे अधूरे ,रहे आज भी
गीत गाते हुये तो चुभे साज भी।
प्यार की साध ले मैं बनी जोगिनी
रात रानी सजाती रही योगिनी।
साँस की बीन पे नाचती ही रही
बात कैसे कहूँ जो अधूरी रही।
पाखी
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स्त्रग्विणी छंद
२१२x४(वर्णिक छंद; १२ वर्ण)
दो अथवा चारों चरण समतुकांत
धुंधला - धुंधला साँझ का धुँआ,
साजना तू छिपा दूर जाके कहाँ।
आ रही है मुझे याद तेरी पिया,
और लागे कहीं भी नहीं ये जिया।
वेदना मैं कहूँ जा किसे ये बता,
लौट आ तू नहीं यों मुझे सता।
प्रेम - बंधन टूटे नहीं जान लो,
हाथ छूटे नहीं ये कभी मान लो।
द्वार पे हूँ खड़ी देखती हूँ घड़ी,
क्यूँ न आये पिया सोचती हूँ खड़ी।
रैन भी छा गयी ये जिया भी डरे,
नैन नींदे नहीं आँसुओं से भरे।
पीड़ मेरे जिया की नहीं जानते,
बात मेरी कभी भी नहीं मानते।
लौट कर आ गए देख पक्षी सभी,
मैं निहारूँ तुझे तू न आया अभी।
आ गए तो बनाओ न बातें नयी,
देखकर जान में जान ही आ गयी।
यों न जाना कभी छोड़कर तू मुझे,
बात मानो पिया हाथ जोड़ूँ तुझे।
जितेंदर पाल सिंह
शुक्रिया चाष्टा जी। सभी रचनायें अप्रतिम 👌💐
ReplyDeleteशुक्रिया चाष्टा जी। सभी रचनायें अप्रतिम 👌💐
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