Tuesday, September 24, 2019

गंग छन्द Gang Chhnda Hindi poetry

गंग छन्द


Explained By - Mr. Abhay kumar Anand ji


गंग छन्द
आंक जाति या वर्ण संज्ञा का यह ९ मात्रिक छन्द है, 
अंत में दो गुरु(२२) अनिवार्य। चार चरण दो-दो चरण समतुकांत।
 इसके ५५ भेद हो सकते हैं। 

Example-  


गंग छंद

शिव जटाओं से , शैल राहों से
माँ निकल आई , भू पटल छाई ।।

पाप हरती है , शुद्ध करती है ।
सब कहें माता , पुण्य की दाता ।।

हैं बहाते भी , देख कचरा छि:।
नालियां खोले , गंग में घोले ।।

क्षुब्ध माता भी , अरु बिधाता भी ।
जन सुधर जाओ ,होश में आओ ।।

हे अमर गंगे , पाप को पी ले ।
हम अधम पापी , देख हैं काफी ।।

नीर चंगा सा , नील गंगा का।
है नमन गंगे , हे सजल गंगे ।।

शब्दार्थ :
सजल - जल से युक्त

अभय कुमार आनंद
बिष्णुपुर बांका बिहार व लखनऊ उत्तरप्रदेश 
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छंद - गंग

९ मात्रिक,अंत दो गुरु (२ २)


सब आयु बीती, हॄद कोर रीती

घर द्वार सूना , दुख भार दूना।
पांव के छाले, ह्रदय के जाले
कैसे दिखाएं, दृग नीर आएं ।
वो एक पाती, रही बन थाती
अजानी वार्ता, एकांत श्रोता
शब्द की माया, तंज की काया
पकड़ से छूटे, ज्यूँ गरल फूटे
सुभाग हमारे, जीवन सकारे
है प्रीत छाया, सम्मान पाया।

ललिता गहलोत
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गंग छन्द

चरणान्त: दो गुरु(22)




तू है सुमाता, गंगा सुजाता।

तू पाप धोती, है कष्ट ढोती।


मैला बहाते, मैया बताते।
आत्मा भ्रमायें, काया नहायें।

सौगंध खाते, गंदा बनाते।
कैसा दिखावा! देखो छलावा।

कूड़ा विषैला, भरपूर फैला।
देखो उद्योगों, लो रोक लोगों।

धन भी लगाया, सब लूट खाया।
जब कर्म ऐसे, हो स्वच्छ कैसे?

जितेंदर पाल सिंह
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मात्रा भार;-९ मात्रिक

अंत दो गुरु(२२)

विषय;- अनजानी लड़की

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थी निबोली सी,हां सलोनी भी,
खो गई धारा ,वो कली पारा ।
आजमाना था,पास जाना था,
बात समझानाथा कसम खाना ।
तम घनेरे थे,मन न फेरे थे,
मार वो खाई,रात फिर आई।
रात पूरी थी,वो अधूरी थी,
जिंदगी खाली,विष भरी प्याली।
प्रीत जो होतीजीत वो जाती,
मौत ही पाई,फिर नदी भाई।

विनीता सिंह "विनी"✍️
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गंग छ्न्द ,,

गंग छ्न्द 9 मात्रिक छ्न्द है ,चार चरण , दो दो चरण समतुकान्त , अंत में दो गुरू 22 अनिवार्य ,




तुम मीत मेरे ,हम गीत तेरे ।
चमको सितारे ,माथे हमारे ।

चंचल हवायें ,जब गीत गायें ।
मन में रहोगे ,धुन में बहोगे ।

हम गीत गाए ,तुमको बुलाए ।
सुन लो पिया जी ,डोले जिया जी ।

काहे पुकारी ,सजनी हमारी।
काहे सताये ,मुझको बताये ।

उनको सुना के ,मन में छुपा के ।
हम गीत गाये,मन को लुभाये ।

सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज

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 गंग छंद

अंत २ गुरु

विषय -गंगा


गंगा हमारी, शिव ने उतारी
मन से पुकारो, जीवन सुधारों ।

सब पाप हरती, मन साफ करती
आत्मा जगाए, जीवन उठाए ।

धरती उगाए, वृक्ष लगाए
ज्ञानी बनाए, सब को सजाए ।

कूड़ा न डालो, कचरा निकालो
गंगा बचाओ, भारत चलाओ ।

सब बात सहती, ये मौन रहती
माँ है हमारी, चुप बेसहारी ।

रजिन्दर कोर (रेशू)
अमृतसर

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गंग छंद

🌹मौन को कैसे, दर्द को ऐसे।

साथ रख जाना, आर्त स्वर माना ।।
🌹
नाव जब डोले, भेद सब खोले।
ज्ञान की बातें, तम भरी रातें।।
🌹
पार्थ मत सोचो, स्वार्थ मत खोजो।
मीन को देखो, ज्ञान से सीखो।।
🌹
साथ लाये क्या, छोड़ जाओ क्या।
विश्व छलावा, मात्र दिखावा।।
🌹
शोध है साधा, ज्ञान है आधा।
पार हो पारा, गंग की धारा।।
🌹
अरविन्द चास्टा

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गंग छंद....९ मात्रिक छंद ,अंत में दो गुरु अनिवार्य, चार चरण समतुकांत।




राखो सफाई,होगी भलाई,

सब रोग राई,पल में भगाई।


जीवन हमारा,ना हो नकारा,
पानी उबालो,खाना चबालो।

कबतक सहोगे,बीमार होगे,
बीडा उठाओ,कूड़ा हटाओ।

हो स्वस्थ काया,सब रोग ढाया,
हो प्रेरणा ये,हो धारणा ये।

संदेश ले लो ,आदेश दे दो,
धरती बचा लो,सुंदर बना लो।

सुवर्णा परतानी ,हैदराबाद

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गंग छन्द




गंग छंद

अतुलित धरा है,सुरभित हवा है,
मदमय सुरा सा,कमल सम खिला सा।
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प्रियतम प्रिया हो,मधुमन हिया हो,
धड़कन समाओ,मधुरस भिगाओ।
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सरगम सुरीली,चपल मन छबीली,
सुमन महकाओ,प्रणय पथ आओ।
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रिमझिम सुहाना,सुरमय रिझाना,
मलयज सुप्रीता,सुखमय पुनीता।।
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कुछ गुनगुनाओ,सुरमय सुनाओ,
सुखद पुरवाई,मुदित मन भाई।।
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रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल
बिलासपुर

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गंग छन्द 

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तुम पास आओ,मत दूर जाओ,
हम हैं तुम्हारे,तुम हो हमारे।।

मन की उदासी,तुम प्रीत प्यासी,
मुझको संभालो,अपना बना लो।।

दिन- रात सोचूं ,चहुँ ओर ढूंढूं ,
सुन लो जहाँ हो,कह दो कहाँ हो।।

सुख चैन खोया,अखियाँ भिगोया,
अब मान जाओ,मत यूँ सताओ।।

भय को मिटा दो,जग को बता दो,
दुख से लड़ेंगे,मिल के रहेंगे।।

अशोक कुमार "अश्क चिरैयाकोटी"

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गंग छंद ,मात्रिक भार-९ , चरणांत २२

पूस की रातें ,बेतुकी बातें।
मित्र की मस्ती, प्रेम की बस्ती।।

कहती कहानी,दादी व नानी।
आम के झूले,भुला न भूले।।

माटी घरौंदें,ओस की बूँदें।
पेड़ की छाया,गाँव की माया।।

बचपन सुहाना,किस्सा पुराना।
फिर याद आये,मुझको सताये।।

नदिया पुकारे,पनघट निहारे।
फिर गीत गाओ,अब लौट आओ।।

आयुष कश्यप
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गंग छन्द



किसलय कली थी ,मधुमय पली थी।

भ्रमर दल आये। ,कुसुम पर छाये।


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रिमझिम फुहारें। प्रियवर पुकारें।
नयन सुख प्यारा। विकल मन हारा।
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प्रियतम प्रिया मैं ,रघुबर सिया मैं।
धड़कन बसी हूँ। मधुकर खुशी हूँ।

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सतत अठखेली।,दृग बन सहेली।
अधर सकुचाते।, नयन बल खाते।

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नद तट खड़ी थी।, दुखमय घड़ी थी।
नयन बह हारे। ,सुधबुध बिसारे।

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स्वरचित - गीता गुप्ता 'मन'

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गंग छंद


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यह रात रीती, हर बात बीती।
कह ना सकी जो, सहती गई वो।
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ठहरा न कोई, खुद में न खोई।
सुख खोजना है, दुख रोकना है।
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सह ना सकी जो, कह ना सकी वो।
चलना भला था, थमना नहीं था।
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चुप सी लगी थी, नम सी खड़ी थी।
कुछ तो हुआ था, दिल रो रहा था।
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दुख से किनारा, सुख का सहारा।
बनना अभी है, रुकना नहीं है।
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राज्यश्री सिंह , गुडगांव।
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गंग छन्द

मानस खिलौना। खेलत सलोना।
जीवन चलाऐ। नाच नचवाऐ।।

अवगुण निवारो । नाम उर धारो।
कंट कट जाऐं। रोग मिट जाऐं।।

भूमि पर आऐ। मनुज तन पाऐ।
प्रभु मत बिसारो। प्रेम सुँ पुकारो।।

बैर सब धोलो। प्रीत मन घोलो।
मीत बन जाओ। गीत मिल गाओ।।

कटुक मत बोलो। बोल हर तोलो।
रीत अपनाओ। जीत हिय लाओ
।।

रागिनी गर्ग , रामपुर (यूपी )

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