Tuesday, July 28, 2020

बरवै_छंद मात्रिक- Hindi poetry


🌹जय माँ शारदा🌹
सभी गुणीजनों को नमन।
अब तक हमने सम मात्रिक छन्दों पर लेखन अभ्यास किया है।
आज आपके समक्ष अर्धसम मात्रिक #बरवै_छंद प्रस्तुत है।
छंद बरवै मात्रिक
लक्षण- विषमनि रविकल बरवै ,सम मुनि साज।
प्रति छंद 4 पद,
चारों पद मिला कर 38 मात्राएँ,
विषम् चरण अर्थात पहला और तीसरा पद 12 मात्रा
सम चरण अर्थात दूसरा और चौथा 7 मात्रा होता है
यथा
12-7
12-7
से एक बरवै छंद पूर्ण होता है
सम चरण सम तुकांत ।
इसे ध्रुव अथवा कुरंग छंद भी कहा जाता है।
पदांत में जगण /121उत्तम माना जाता है एवम् तगण/221 को रोचक माना जाता है । अनिवार्यता नही है।
मापनी स्वेच्छा अनुसार ली जा सकती है ।
उदाहरण
वाम अंग शिव शोभित ,शिवा उदार।
सरद सुवारिद में जनु ,तड़ित विहार।
(शास्त्रोक्त)
स्वरचित
गीत मेरे कर रहे,आज पुकार।
आर्त को अब तो सुनो ,तनिक निहार।।
प्रेम के दाता बने, नन्द कुमार।
प्रीत की इस रीत में,कौन विचार।।
~अरविन्द चास्टा अविराज
कपासन चित्तौड़गढ़
राज.
****************
एक प्रयास

मापनी-212 211 12,21 121

1.कार्य सारे बन रहे,भाग्य विधान।
लेख सारे तय सदा, मानुष जान।

2.लेखनी यूँ कर रही,भाव बखान।
भानु मानो कह रहा,शुभ्र विहान।

3.प्रेम की कीमत कहूँ ,है अनमोल।
भाव भाषा समझ ले,सत्य टटोल।

4.आस का दीप जलता,हो तम नाश।
दूर हों संकट सभी,है अभिलाष।

स्वरचित
डॉ पूजा मिश्र #आशना
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 बरवै छंद
12,7 चरणान्त 121

भौतिक सुखों की चाह, दुखमय राह।
कम-अधिक नित झेलना,पीर प्रवाह।
मोहिनी छल की धरे, रूप अथाह।
आत्म सुख संग इसका, कठिन निबाह।।

कर आलिंगन करती, शून्य विचार।
चाहती स्वामित्व का,नित्य प्रसार।
मित्र बन कर बाँटती, खूब उधार।
और बनाए रखती, निज अधिकार।।

चाहते हो मुक्ति यदि, हो प्रभु जाप।
है सुमिरन का अद्भुत, दिव्य प्रताप।
सूख जाती शोक सरि, न हो विलाप।
मार्ग सदगति का यही, लें अब आप।।

मणि अग्रवाल "मणिका"
देहरादून (उत्तराखंड)
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 बरवै छन्द
प्रति छन्द चार चरण
प्रथम, तृतीय, 12 मात्रा
द्वितीय, चतुर्थ, 7 मात्रा
पदान्त, 121 उत्तम
221 रोचक
शीर्षक:- अम्बिके

सर्वदानवघातिनी, कर संहार,
हे काली कपालिनी, कह संसार।
अरि नाश कर देविके,बैठे घात,
प्रचंड पाप खण्ड कर,काली रात।
*** *** *** *** ***
मिटे कलुषित कामना, बढ़ता शोर,
फलित हो शुचि साधना,शुभि हो भोर।
दुख हरो कल्याणिके,झुकते माथ,
आशीष दे मंगला, धरिये हाथ।
*** *** *** *** ***
माँ दनुजता बढ़ रही, बढ़ते पाप,
हे, रुद्राणी मोहनी, हर संताप।
उद्धार कर शिवे प्रिया,कपटी काल,
जगदम्बिके भवानी,पहनो माल।
*** *** *** *** ***
चंड मुंड विनाशनी,काटो शीश,
शुभे पिनाकधारिणी, दे आशीष,।
परमेश्वरी विमले,कर दे त्राण,
हे, शुचित फल दायिनी,मेरे प्राण।
*** *** *** *** ***
मनुजता को प्राण दो, कर दो काज,
वरदायिनी कमलिके, वर दो आज।
अम्बिके शुचि प्रीत दे,जग की मात,
मनमोहनी तम भरी, बीते रात।।

रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दनी
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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 #बरवै -छंद
मापनी - 212 211 12, 21 121


हो सदा राह अब ये , रोज विचार ।
जोड़ते यूँ सब रहे , हृदय तार ।।
दूर हो आस न यहाँ , हो अब मान ।
प्यार फैले जगत में , योग विधान ।।


यूँ जले दीपक यहाँ , प्रेम पसार ।
प्यार से जीवन चले , स्नेह अधार ।।
सोच ये पावन रहे ,मानव आस ।
जोश से जीवन बढ़े , हो सब पास ।।

रजिन्दर कौर ( रेशू )
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बरवै छंद,चार चरण,19 मात्रिक,प्रथम और तृतीय चरण में 12 मात्रा
,दूसरे और चौथे चरण में 7 मात्रा,पदांत-121 या 221 उत्तम होता है।

मर्यादित रघुनायक,हैं श्रीराम।
आदर्शों में जिनका,ऊँचा नाम।।
भक्ति जहाँ पर बहती,है अविराम।
अवधपुरी वह सच में,पावन धाम।।

मधुरिम लगता हरदम,यह संसार।
मिट जाते जो उर से,सभी विकार।।
होता केवल जग में,नित त्योहार।
आपस में जो होता,मृदु व्यवहार।।

कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा, कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
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**साहित्य-अनुरागी**
***बरवै-छंद***

पछुआ ओ पुरवाई,चली बयार।
चातक,मोर,पपीहा,करें पुकार।
अचला-आँगन गाये,मृदु-मल्हार।
मधुरिम सा यह सावन,मेह बहार।

श्यामल-सघन गगन में,तड़ित-विहार।
सतरंगी आभा में,धनुक निहार।
नीरद-नाद,निरंकुश,प्रखर प्रहार।
अंतरिक्ष की बाहें, बनी कहार।

बरबस बिखरी बूँदे,मृदा-कुंदन।
सौंधी सी खुशबू में,मलय-चंदन।
खोल दिये बादल ने,घने-गूँथन।
अनराधार बरसते, बिना बंधन।

हिय में हूक उठे है,प्रिये!आओ।
रोम-रोम के पंछी, विरह गाओ।
बदरी ले जा संदेश् ,सजन लाओ।
सुधियों की सिहरन को,बुझा जाऔ।

पेडो़ की डाली पर,झुला डाले,
स्वप्न-स्पर्श के मोती,हृदय पाले।
बरखा की बूँदो को,चलो छू ले।
पियु के संग सखी री!झुला-झूँले।

झरझर मेहा बरसे, हरित आँगन।
अलसाई कलियों में,फलित कानन।
तरुवर शाख लिपटती,नेह पावन।
विधि शृंगार सजे है,पुलिन-सावन।
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#दाहोद(गुजरात)
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बरवै छंद
अंत १२१ अनिवार्य
२१२ २११ १२ २१ १२१

आज ये सावन खिला,संग बसंत।
रोक ना पाय मन को,रंग अनंत।
लो सभी ओर महके,मंद सुगंध।
ये सभी है प्रकृति का,चंद प्रबंध।।१।।

जो भरे प्रेम धुन से,नित्य उमंग।
साथ लाए मधुर सा,साज तरंग।
सृष्टि से है बिखरता,स्वर निनाद।
हर्ष से मोदित करे,एक प्रमाद।।२।।

पुष्प सारे मद भरें,प्रीत अपार।
आज गाए धुन नयी,काव्य सितार।
नित्य छाए मन सुधा,भाव फुहार।
ये धरा देख भरती,आज दुलार।।३।।



सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
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बरवै छन्द
यह 19 मात्रिक छन्द है , प्रथम व तृतीय चरण में 12 मात्रा, दूसरे व चौथे चरण में 7 मात्रा ,पदान्त 121 या 221 उत्तम होता है ।
यहाँ पदान्त 121 रखा है।

सावन मेघा बरसे ,
बजे मृदंग।
छाई है हरियाली ,
उठे उमंग।

सजनी धानी चूनर ,
ओढ़ लजाय ।
कोयल कूके काली ,
मन हुलसाय।

झूला झूले ये मन ,
करे पुकार।
कजरी गाऊँ जब मैं ,
बजे सितार ।

सावन पावन आया ,
बढ़ी कतार ।
पहुँचे सब काँवरिया ,
बम-बम द्वार।

सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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Sunday, July 26, 2020

कुकुभ छन्द ,30 मात्रिक - Hindi Poetry


Explained By Simple Kavyadhara ji Prayagraj (U.P.)

🌹🙏आप सभी साहित्य अनुरागियों को स्नेहिल नमन,🙏 🌹
🌹मित्रों हम सभी एक साथ कदम से कदम मिलाकर साहित्य सृजन करते हुए आगे की ओर बढ़ रहे हैं , और एक से एक छ्न्दों पर अभ्यासरत हैं ,🌹
🌹अनुरागी बन्धुजनों पुनः छ्न्द शृंखला के अन्तर्गत मैं "सिम्पल काव्यधारा " आप सभी के लेखन हेतु कुकुभ छ्न्द लेकर उपस्थित हुई हूँ।🌹
..........
🌹आइये हम सब अपनी अपनी लेखनी से भावों को उकेर कर काव्यसागर में डूबते हुए सुन्दर सृजन करते हैं ।
........🌹

🍁🍁🍁🍁
कुकुभ छन्द
विधान......यह महातैथिक जाती का 30 मात्रिक छन्द है । 16,14 पर यति , पदांत 2 2 अनिवार्य ,
दो-दो अथवा चारों चरण समतुकान्त ।
.........
रचना

बंसी बाजे कृष्णा की तो ,राधा दौड़ी आती है ।
सुध-बुध खोकर नाचे राधा , गीतों में रम जाती है ।।

माखन चोरी करने वाला , गोकुल का गिरधारी है ।
जप लो उसको मिलकर प्यारे ,वो सबका हितकारी है ।।

जग की रचना करने वाले , अद्भुत वर्णन है तेरा ।
तध-मन अर्पित करती हूँ मैं , कण-कण प्रभु का है डेरा ।।

संध्या वन्दन करते हैं जो , उनके संकट हर लेते ।
दुखहर्ता सब उनको कहते , सबको सुन्दर वर देते ।।

सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज

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कुकुभ छंद
महातैथिक जाती का ३० मात्रिक छंद
१६/१४ पर यति, पदांत २ २ अनिवार्य

माँ की आँखों के काजल सी,प्यारी होती हर बेटी।
घर की बगियाँ के कोंपल सी,न्यारी होती हर बेटी।
माँ के गर्भ नाल से जब ये,बेटी बनकर जुड़ती है।
अपनी माँ का भाग्य बदलने,हर पीडा से लड़ती है।।१।।

देख अबोला बड़ा अनोखा,ऐसा रिश्ता बनता है।
ममता भरी छाँव में रहकर,प्रबल सा गर्भ पलता है।
एक आस एक उम्मीद ले,पंख फैला रही बेटी।
सुरक्षा कवच बने कोख में,नव श्वास भर रही बेटी।।२।।

नौ महीने माँ की कोख में,संस्कार से सजे बेटी।
देख गर्भ की गरमाहट में,हीरा बन निखरे बेटी।
ये मात-पिता के जीवन को,ख़ुशियों से भरती बेटी।
नाज़ुक,कोमल,मोम सी परी,कष्ट,पीर हरती बेटी।।३।।


सुवर्णा परतानी
हैदराबाद

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कुकुभ छंद

22 22 22 22,22 22 22 2

भावों की अविरल धारा ये,नित ही बहती रहती है
मन के उद्गारों को तूली,चुप रह कहती रहती है।।
रखती है ये सारे मेरे,कथनों वचनों का लेखा
खींचे रहती मन पर मेरे,संचित स्वप्नों की रेखा।।

सुंदर शब्दों से गढ़ती है,रिश्तों की अनुपम भाषा
बरसाती है बादल बनके,ऊर्जान्वित कुछ अभिलाषा
अंतर्मन में धारे रखती,आँसू ओ मुस्कानों को
फैला देती कागज़ पर फिर,मेरे सब अरमानों को।

स्वरचित
डॉ पूजा मिश्र #आशना

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कुकुभ छन्द
30 मात्रिक 16, 14 पर यति, अंत 22 से
दो दो या चारो चरण समतुकांत।
शीर्षक:-बाल कृष्ण छवि

मणिक धरा मनमोहन धावत,मुख माखन लेप लगाए ,पाछे पाछे नन्द भागते,मन यशुदा लखि हरषाये ।
पग पैजनियाँ राग सुनावत,कटि करधन गीत सुनाए,
मोरपंख शुचि शीश सुहावत,भरि भरि किलकारी धाये।
*** *** *** *** ***
हाथ शोभते कंचन कंगन,कंठ वैजयंती माला।
शशिहार दम दमके दामिनी,शुभि मधुकर नयन विशाला।
कानन कुंडल रवि सम दमके, द्युति चंदन तिलक लगाए,
नैन भरे काजल मेघा सम,सखि अधर कमल खिल आये।
*** *** *** *** ***
घन कुंतल केश शिलीमुख सम,नव नीरद कोमल काया।
कुंदन कनक मुरलिया कर धरि, गोपाला ह्रदय समाया।
*** *** *** *** ***
मुठिका भरि भरि मृदा खा रहे, हरि यशुदा आँख दिखाती,
मोदक मिश्री नही माखन दधि,दिखा लकुटि रोष जताती।
मधुर मधुर मुस्काये मोहन,मुख को हरि खोल दिखाते,
तीनो लोक विराजे मुख में,प्रभु लीला समझ न पाते।
*** *** *** *** ***
आँगन नाचत मुदित मयूरा,मनमोहन ताली बजाए,
कुहके कोयल काली डाली, मधुराग सुरीले गाये।
उठत गिरत पग धरत भागते,शुभि ठुमुक चलत अवतारी,
नीरज चरण कमल रज पाउँ,छवि कोटि कोटि बलिहारी।
*** *** *** *** ***
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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 कुकुभ छंद
30 मात्रिक 16,14 पर यति
दो दो या चारों चरण समतुकांत
22 22 22 22 , 22 22 22 2

मन में जागे सुंदर सपने , देखे रैना जगते जो ।
नैना मेरे ऐसे ताकें , हृदय बातें खोले जो ।।
फूलों सा महके सारा जग ,जीवन ये हो खुशबू सा ।
फैलाता खुशियाँ जग अंदर , मन खिलता ये फूलों सा ।।

तोड़ो ऐसे जीवन नाता , मन ये भर ले जग सारा ।
छोड़ो तुम ये जग जब सारा ,नैनों से बह ये धारा ।।
सब के लिय फूलों सा महकों ,चहके पंक्षी ये सुंदर ।
मन के भावों को सुन लो तुम ,जग ये जागे है अंदर ।।

रजिन्दर कौर ( रेशू )

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कुकुभ छन्द

विधान......यह महातैथिक जाती का 30 मात्रिक छन्द है । 

16,14 पर यति , पदांत 2 2 अनिवार्य ,
दो-दो अथवा चारों चरण समतुकान्त ।
.........

प्रेम पिपासी विरहा रासी,संयम मन रखना होगा।
प्रीत अगर है मीरा सी तो,विष प्याला चखना होगा।।

नैन कटोरे काजल कोरे,नव स्वपनों से भरते हैं।
तड़प हृदय में लागे मृदु सी,दृग सावन से झरते हैं।।

मेरी मन मृग तृष्णा गिरधर,आओ आन मिटाओ जी।
छवि उभरी है अंतर्मन में,दिव्य-दर्श दे जाओ जी।

मोहन मेरे मन-मितवा हैं,प्राण वहीं पर बसता है।
कान्हा नीलम नैनन में बस, रूप सलौना बसता है।
नीलम शर्मा

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कुकुभ छंद
30 मात्रा, 16,14 पर यति l कुल चार चरण, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत l
इसके चरणान्त में वर्णिक भार 222 या गागागा अनिवार्य होने पर ताटंक , 22 या गागा होने पर कुकुभ और कोई ऐसा प्रतिबन्ध न होने पर यह लावणी छंद कहलाता है l
122 122 22 2, 22 122 122


मुखड़ा
घटाओं सुनो ऐसे बरसो, सूखी धरा भीग जाए,
मिटाओ तपन मन की सारी, ठंडक हृदय आज पाए।

अंतरा
विरह की अगन कैसे जाए, दोनों अगर प्रेम भूले,
सुहाना हुआ जाए मौसम, पड़ने लगे देख झूले।
तुम्हें ढूंढता हूँ मैं कब से, तेरी प्रिये याद आए,
मिटाओ तपन मन की सारी, ठंडक हृदय आज पाए।

अंतरा
खिले फूल उपवन प्यारे, भँवरा वहाँ गुनगुनाये,
हवा ये सुगंधित है बहती, कोयल मधुर गीत गाये।
नहीं पास मेरे जो तुम हो, कैसे मुझे ये सुहाए,
मिटाओ तपन मन की सारी, ठंडक हृदय आज पाए।

अंतरा
तुम्हारे बिना जी ना पाऊँ, आओ तुम्हें मैं बुलाऊँ,
भुलाकर पुरानी वो बातें, फिर से घरौंदा सजाऊँ।
मिलन हो पुनः तेरा मेरा, मन तब कहीं चैन पाए,
मिटाओ तपन मन की सारी, ठंडक हृदय आज पाए।

जितेंदर पाल सिंह

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