🌹जय माँ शारदा🌹
सभी गुणीजनों को नमन।
अब तक हमने सम मात्रिक छन्दों पर लेखन अभ्यास किया है।
आज आपके समक्ष अर्धसम मात्रिक #बरवै_छंद प्रस्तुत है।
छंद बरवै मात्रिक
लक्षण- विषमनि रविकल बरवै ,सम मुनि साज।
प्रति छंद 4 पद,
चारों पद मिला कर 38 मात्राएँ,
विषम् चरण अर्थात पहला और तीसरा पद 12 मात्रा
सम चरण अर्थात दूसरा और चौथा 7 मात्रा होता है
यथा
12-7
12-7
से एक बरवै छंद पूर्ण होता है
सम चरण सम तुकांत ।
इसे ध्रुव अथवा कुरंग छंद भी कहा जाता है।
पदांत में जगण /121उत्तम माना जाता है एवम् तगण/221 को रोचक माना जाता है । अनिवार्यता नही है।
मापनी स्वेच्छा अनुसार ली जा सकती है ।
उदाहरण
वाम अंग शिव शोभित ,शिवा उदार।
सरद सुवारिद में जनु ,तड़ित विहार।
(शास्त्रोक्त)
स्वरचित
गीत मेरे कर रहे,आज पुकार।
आर्त को अब तो सुनो ,तनिक निहार।।
प्रेम के दाता बने, नन्द कुमार।
प्रीत की इस रीत में,कौन विचार।।
~अरविन्द चास्टा अविराज
कपासन चित्तौड़गढ़
राज.
****************
एक प्रयास
मापनी-212 211 12,21 121
1.कार्य सारे बन रहे,भाग्य विधान।
लेख सारे तय सदा, मानुष जान।
2.लेखनी यूँ कर रही,भाव बखान।
भानु मानो कह रहा,शुभ्र विहान।
3.प्रेम की कीमत कहूँ ,है अनमोल।
भाव भाषा समझ ले,सत्य टटोल।
4.आस का दीप जलता,हो तम नाश।
दूर हों संकट सभी,है अभिलाष।
स्वरचित
डॉ पूजा मिश्र #आशना
-------------------------------------------
बरवै छंद
12,7 चरणान्त 121
भौतिक सुखों की चाह, दुखमय राह।
कम-अधिक नित झेलना,पीर प्रवाह।
मोहिनी छल की धरे, रूप अथाह।
आत्म सुख संग इसका, कठिन निबाह।।
कर आलिंगन करती, शून्य विचार।
चाहती स्वामित्व का,नित्य प्रसार।
मित्र बन कर बाँटती, खूब उधार।
और बनाए रखती, निज अधिकार।।
चाहते हो मुक्ति यदि, हो प्रभु जाप।
है सुमिरन का अद्भुत, दिव्य प्रताप।
सूख जाती शोक सरि, न हो विलाप।
मार्ग सदगति का यही, लें अब आप।।
मणि अग्रवाल "मणिका"
देहरादून (उत्तराखंड)
---------------------------------------------
बरवै छन्द
प्रति छन्द चार चरण
प्रथम, तृतीय, 12 मात्रा
द्वितीय, चतुर्थ, 7 मात्रा
पदान्त, 121 उत्तम
221 रोचक
शीर्षक:- अम्बिके
सर्वदानवघातिनी, कर संहार,
हे काली कपालिनी, कह संसार।
अरि नाश कर देविके,बैठे घात,
प्रचंड पाप खण्ड कर,काली रात।
*** *** *** *** ***
मिटे कलुषित कामना, बढ़ता शोर,
फलित हो शुचि साधना,शुभि हो भोर।
दुख हरो कल्याणिके,झुकते माथ,
आशीष दे मंगला, धरिये हाथ।
*** *** *** *** ***
माँ दनुजता बढ़ रही, बढ़ते पाप,
हे, रुद्राणी मोहनी, हर संताप।
उद्धार कर शिवे प्रिया,कपटी काल,
जगदम्बिके भवानी,पहनो माल।
*** *** *** *** ***
चंड मुंड विनाशनी,काटो शीश,
शुभे पिनाकधारिणी, दे आशीष,।
परमेश्वरी विमले,कर दे त्राण,
हे, शुचित फल दायिनी,मेरे प्राण।
*** *** *** *** ***
मनुजता को प्राण दो, कर दो काज,
वरदायिनी कमलिके, वर दो आज।
अम्बिके शुचि प्रीत दे,जग की मात,
मनमोहनी तम भरी, बीते रात।।
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दनी
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
-----------------------------------------
#बरवै -छंद
मापनी - 212 211 12, 21 121
हो सदा राह अब ये , रोज विचार ।
जोड़ते यूँ सब रहे , हृदय तार ।।
दूर हो आस न यहाँ , हो अब मान ।
प्यार फैले जगत में , योग विधान ।।
यूँ जले दीपक यहाँ , प्रेम पसार ।
प्यार से जीवन चले , स्नेह अधार ।।
सोच ये पावन रहे ,मानव आस ।
जोश से जीवन बढ़े , हो सब पास ।।
रजिन्दर कौर ( रेशू )
-----------------------------------------------
बरवै छंद,चार चरण,19 मात्रिक,प्रथम और तृतीय चरण में 12 मात्रा
,दूसरे और चौथे चरण में 7 मात्रा,पदांत-121 या 221 उत्तम होता है।
मर्यादित रघुनायक,हैं श्रीराम।
आदर्शों में जिनका,ऊँचा नाम।।
भक्ति जहाँ पर बहती,है अविराम।
अवधपुरी वह सच में,पावन धाम।।
मधुरिम लगता हरदम,यह संसार।
मिट जाते जो उर से,सभी विकार।।
होता केवल जग में,नित त्योहार।
आपस में जो होता,मृदु व्यवहार।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा, कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
-------------------------------------------
**साहित्य-अनुरागी**
***बरवै-छंद***
पछुआ ओ पुरवाई,चली बयार।
चातक,मोर,पपीहा,करें पुकार।
अचला-आँगन गाये,मृदु-मल्हार।
मधुरिम सा यह सावन,मेह बहार।
श्यामल-सघन गगन में,तड़ित-विहार।
सतरंगी आभा में,धनुक निहार।
नीरद-नाद,निरंकुश,प्रखर प्रहार।
अंतरिक्ष की बाहें, बनी कहार।
बरबस बिखरी बूँदे,मृदा-कुंदन।
सौंधी सी खुशबू में,मलय-चंदन।
खोल दिये बादल ने,घने-गूँथन।
अनराधार बरसते, बिना बंधन।
हिय में हूक उठे है,प्रिये!आओ।
रोम-रोम के पंछी, विरह गाओ।
बदरी ले जा संदेश् ,सजन लाओ।
सुधियों की सिहरन को,बुझा जाऔ।
पेडो़ की डाली पर,झुला डाले,
स्वप्न-स्पर्श के मोती,हृदय पाले।
बरखा की बूँदो को,चलो छू ले।
पियु के संग सखी री!झुला-झूँले।
झरझर मेहा बरसे, हरित आँगन।
अलसाई कलियों में,फलित कानन।
तरुवर शाख लिपटती,नेह पावन।
विधि शृंगार सजे है,पुलिन-सावन।
~~~~~~~~~~~~~
-------------------------------------------
बरवै छंद
अंत १२१ अनिवार्य
२१२ २११ १२ २१ १२१
आज ये सावन खिला,संग बसंत।
रोक ना पाय मन को,रंग अनंत।
लो सभी ओर महके,मंद सुगंध।
ये सभी है प्रकृति का,चंद प्रबंध।।१।।
जो भरे प्रेम धुन से,नित्य उमंग।
साथ लाए मधुर सा,साज तरंग।
सृष्टि से है बिखरता,स्वर निनाद।
हर्ष से मोदित करे,एक प्रमाद।।२।।
पुष्प सारे मद भरें,प्रीत अपार।
आज गाए धुन नयी,काव्य सितार।
नित्य छाए मन सुधा,भाव फुहार।
ये धरा देख भरती,आज दुलार।।३।।
सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
----------------------------------------------
बरवै छन्द
यह 19 मात्रिक छन्द है , प्रथम व तृतीय चरण में 12 मात्रा, दूसरे व चौथे चरण में 7 मात्रा ,पदान्त 121 या 221 उत्तम होता है ।
यहाँ पदान्त 121 रखा है।
सावन मेघा बरसे ,
बजे मृदंग।
छाई है हरियाली ,
उठे उमंग।
सजनी धानी चूनर ,
ओढ़ लजाय ।
कोयल कूके काली ,
मन हुलसाय।
झूला झूले ये मन ,
करे पुकार।
कजरी गाऊँ जब मैं ,
बजे सितार ।
सावन पावन आया ,
बढ़ी कतार ।
पहुँचे सब काँवरिया ,
बम-बम द्वार।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
---------------------