Explained By Simple Kavyadhara ji Prayagraj (U.P.)
🌹🙏आप सभी साहित्य अनुरागियों को स्नेहिल नमन,🙏 🌹
🌹मित्रों हम सभी एक साथ कदम से कदम मिलाकर साहित्य सृजन करते हुए आगे की ओर बढ़ रहे हैं , और एक से एक छ्न्दों पर अभ्यासरत हैं ,🌹
🌹अनुरागी बन्धुजनों पुनः छ्न्द शृंखला के अन्तर्गत मैं "सिम्पल काव्यधारा " आप सभी के लेखन हेतु कुकुभ छ्न्द लेकर उपस्थित हुई हूँ।🌹
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🌹आइये हम सब अपनी अपनी लेखनी से भावों को उकेर कर काव्यसागर में डूबते हुए सुन्दर सृजन करते हैं ।
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कुकुभ छन्द
विधान......यह महातैथिक जाती का 30 मात्रिक छन्द है । 16,14 पर यति , पदांत 2 2 अनिवार्य ,
दो-दो अथवा चारों चरण समतुकान्त ।
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रचना
बंसी बाजे कृष्णा की तो ,राधा दौड़ी आती है ।
सुध-बुध खोकर नाचे राधा , गीतों में रम जाती है ।।
माखन चोरी करने वाला , गोकुल का गिरधारी है ।
जप लो उसको मिलकर प्यारे ,वो सबका हितकारी है ।।
जग की रचना करने वाले , अद्भुत वर्णन है तेरा ।
तध-मन अर्पित करती हूँ मैं , कण-कण प्रभु का है डेरा ।।
संध्या वन्दन करते हैं जो , उनके संकट हर लेते ।
दुखहर्ता सब उनको कहते , सबको सुन्दर वर देते ।।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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कुकुभ छंद
महातैथिक जाती का ३० मात्रिक छंद
१६/१४ पर यति, पदांत २ २ अनिवार्य
माँ की आँखों के काजल सी,प्यारी होती हर बेटी।
घर की बगियाँ के कोंपल सी,न्यारी होती हर बेटी।
माँ के गर्भ नाल से जब ये,बेटी बनकर जुड़ती है।
अपनी माँ का भाग्य बदलने,हर पीडा से लड़ती है।।१।।
देख अबोला बड़ा अनोखा,ऐसा रिश्ता बनता है।
ममता भरी छाँव में रहकर,प्रबल सा गर्भ पलता है।
एक आस एक उम्मीद ले,पंख फैला रही बेटी।
सुरक्षा कवच बने कोख में,नव श्वास भर रही बेटी।।२।।
नौ महीने माँ की कोख में,संस्कार से सजे बेटी।
देख गर्भ की गरमाहट में,हीरा बन निखरे बेटी।
ये मात-पिता के जीवन को,ख़ुशियों से भरती बेटी।
नाज़ुक,कोमल,मोम सी परी,कष्ट,पीर हरती बेटी।।३।।
सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
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कुकुभ छंद
22 22 22 22,22 22 22 2
भावों की अविरल धारा ये,नित ही बहती रहती है
मन के उद्गारों को तूली,चुप रह कहती रहती है।।
रखती है ये सारे मेरे,कथनों वचनों का लेखा
खींचे रहती मन पर मेरे,संचित स्वप्नों की रेखा।।
सुंदर शब्दों से गढ़ती है,रिश्तों की अनुपम भाषा
बरसाती है बादल बनके,ऊर्जान्वित कुछ अभिलाषा
अंतर्मन में धारे रखती,आँसू ओ मुस्कानों को
फैला देती कागज़ पर फिर,मेरे सब अरमानों को।
स्वरचित
डॉ पूजा मिश्र #आशना
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कुकुभ छन्द
30 मात्रिक 16, 14 पर यति, अंत 22 से
दो दो या चारो चरण समतुकांत।
शीर्षक:-बाल कृष्ण छवि
मणिक धरा मनमोहन धावत,मुख माखन लेप लगाए ,पाछे पाछे नन्द भागते,मन यशुदा लखि हरषाये ।
पग पैजनियाँ राग सुनावत,कटि करधन गीत सुनाए,
मोरपंख शुचि शीश सुहावत,भरि भरि किलकारी धाये।
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हाथ शोभते कंचन कंगन,कंठ वैजयंती माला।
शशिहार दम दमके दामिनी,शुभि मधुकर नयन विशाला।
कानन कुंडल रवि सम दमके, द्युति चंदन तिलक लगाए,
नैन भरे काजल मेघा सम,सखि अधर कमल खिल आये।
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घन कुंतल केश शिलीमुख सम,नव नीरद कोमल काया।
कुंदन कनक मुरलिया कर धरि, गोपाला ह्रदय समाया।
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मुठिका भरि भरि मृदा खा रहे, हरि यशुदा आँख दिखाती,
मोदक मिश्री नही माखन दधि,दिखा लकुटि रोष जताती।
मधुर मधुर मुस्काये मोहन,मुख को हरि खोल दिखाते,
तीनो लोक विराजे मुख में,प्रभु लीला समझ न पाते।
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आँगन नाचत मुदित मयूरा,मनमोहन ताली बजाए,
कुहके कोयल काली डाली, मधुराग सुरीले गाये।
उठत गिरत पग धरत भागते,शुभि ठुमुक चलत अवतारी,
नीरज चरण कमल रज पाउँ,छवि कोटि कोटि बलिहारी।
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रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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कुकुभ छंद
30 मात्रिक 16,14 पर यति
दो दो या चारों चरण समतुकांत
22 22 22 22 , 22 22 22 2
मन में जागे सुंदर सपने , देखे रैना जगते जो ।
नैना मेरे ऐसे ताकें , हृदय बातें खोले जो ।।
फूलों सा महके सारा जग ,जीवन ये हो खुशबू सा ।
फैलाता खुशियाँ जग अंदर , मन खिलता ये फूलों सा ।।
तोड़ो ऐसे जीवन नाता , मन ये भर ले जग सारा ।
छोड़ो तुम ये जग जब सारा ,नैनों से बह ये धारा ।।
सब के लिय फूलों सा महकों ,चहके पंक्षी ये सुंदर ।
मन के भावों को सुन लो तुम ,जग ये जागे है अंदर ।।
रजिन्दर कौर ( रेशू )
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कुकुभ छन्द
विधान......यह महातैथिक जाती का 30 मात्रिक छन्द है ।
16,14 पर यति , पदांत 2 2 अनिवार्य ,
दो-दो अथवा चारों चरण समतुकान्त ।
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प्रेम पिपासी विरहा रासी,संयम मन रखना होगा।
प्रीत अगर है मीरा सी तो,विष प्याला चखना होगा।।
नैन कटोरे काजल कोरे,नव स्वपनों से भरते हैं।
तड़प हृदय में लागे मृदु सी,दृग सावन से झरते हैं।।
मेरी मन मृग तृष्णा गिरधर,आओ आन मिटाओ जी।
छवि उभरी है अंतर्मन में,दिव्य-दर्श दे जाओ जी।
मोहन मेरे मन-मितवा हैं,प्राण वहीं पर बसता है।
कान्हा नीलम नैनन में बस, रूप सलौना बसता है।
नीलम शर्मा
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कुकुभ छंद
30 मात्रा, 16,14 पर यति l कुल चार चरण, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत l
इसके चरणान्त में वर्णिक भार 222 या गागागा अनिवार्य होने पर ताटंक , 22 या गागा होने पर कुकुभ और कोई ऐसा प्रतिबन्ध न होने पर यह लावणी छंद कहलाता है l
122 122 22 2, 22 122 122
मुखड़ा
घटाओं सुनो ऐसे बरसो, सूखी धरा भीग जाए,
मिटाओ तपन मन की सारी, ठंडक हृदय आज पाए।
अंतरा
विरह की अगन कैसे जाए, दोनों अगर प्रेम भूले,
सुहाना हुआ जाए मौसम, पड़ने लगे देख झूले।
तुम्हें ढूंढता हूँ मैं कब से, तेरी प्रिये याद आए,
मिटाओ तपन मन की सारी, ठंडक हृदय आज पाए।
अंतरा
खिले फूल उपवन प्यारे, भँवरा वहाँ गुनगुनाये,
हवा ये सुगंधित है बहती, कोयल मधुर गीत गाये।
नहीं पास मेरे जो तुम हो, कैसे मुझे ये सुहाए,
मिटाओ तपन मन की सारी, ठंडक हृदय आज पाए।
अंतरा
तुम्हारे बिना जी ना पाऊँ, आओ तुम्हें मैं बुलाऊँ,
भुलाकर पुरानी वो बातें, फिर से घरौंदा सजाऊँ।
मिलन हो पुनः तेरा मेरा, मन तब कहीं चैन पाए,
मिटाओ तपन मन की सारी, ठंडक हृदय आज पाए।
जितेंदर पाल सिंह
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