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Explained By Smt Geeta Gupta ji
साहित्य अनुरागी समूह के सभी रचनाकारों को हृदय तल से प्रणाम करते हुए मैं गीता गुप्ता 'मन' छंदज्ञान की इस श्रृंखला में नवीन कड़ी को जोड़ते हुए स्वयम को गौरवान्वित महसूस कर रही हूँ।
मात्रिक छन्दों की रस श्रृंखला में आज हम 'अवतार छंद'के विषय में जानेंगे
रौद्राक जाती
23 मात्रिक छंद
अवतार छंद
13 ,10मात्रा पर यति।
दो दो अथवा चारों चरण समतुकांत
चरणान्त में 212 रगण का प्रयोग कर्ण प्रिय होता है । मगर अनिवार्यता नही है।
उदाहरण -:
अवतार राम की कथा,सब दोष गंजनी।
नहिं ता समान आन है, त्रय ताप भंजनी।
प्रभु नाम प्रेम से जपे,हे राम हे हरे।
गणिकाहूँ अजामील से,पापी घने तरे।
---छन्द प्रभाकर
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नारियाँ ( छंद आधारित गीत)
स्वाभिमान से जी रही ,आधुनिक नारियाँ।
पुरुषों से कमतर नहीं, है अधिक नारियाँ।
धरती पर बनकर मिली,वरदान नारियाँ।
दे बन माँ भार्या सुता, अवदान नारियाँ।
वेद सदा गाते रहे,वनिता महानता।
पूजनीय है मातु की उर की विशालता।
ईश्वर का प्रतिरूप जो,वन्दनीया सदा।
नारी देविस्वरूपिणी, शारदे वरप्रदा।
सौम्य शील विदूषी प्रखर,अभिमान नारियाँ।
मन कोमल है पुष्प सा, सुकुमारि कुमुदिनी
अरि की सुन ललकार जो,युद्धचण्डी बनी।
निज कष्टों को भूल कर,पोषिता जो बनी।
अबला से सबला बनी,प्रेरणा पावनी।
शौर्य भरे लालित्य की,उपमान नारियाँ।
जननी बनकर विश्व पर,उपकार है किया
पालक बनकर सृष्टि को,साकार है किया।
अमिय स्रोत नारी ह्रदय,प्रेम रंगो भरी
दया,क्षमा उर में बसे, स्वर्णिम विभावरी
है इस जग में प्रेम की,प्रतिमान नारियाँ।
--गीता गुप्ता 'मन'
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अवतार छंद (रौद्राक जाती)
23 मात्रिक छंद
13 ,10मात्रा पर यति।
दो दो अथवा चारों चरण समतुकांत
चरणान्त में 212 रगण का प्रयोग, मगर अनिवार्यता नहीं है।
221 12 2 12, 212 212
गीत
मुखड़ा
श्रृंगार करें बौर का, आम की डालियाँ,
सोना लगती हैं पकी, जब कनक बालियाँ।
अंतरा
फागुन फिर से आ गया, झूमते झूमते,
अब आन मिलो तुम सजन, घूमते घूमते।
पढ़ने मनवा है लगा, प्रेम की पातियाँ,
श्रृंगार करें बौर का, आम की डालियाँ।
अंतरा
होली सच की जीत का, एक त्योहार है,
तुमसे सजना सुन मुझे, सच कहूँ प्यार है।
खेलूँ तुमसे रंग मैं, मार पिचकारियाँ,
श्रृंगार करें बौर का, आम की डालियाँ।
अंतरा
मुझको अपने रंग में, रंग दे साजना,
होली मिलना लग गले, रंग फिर डालना।
मत मोड़ कलाई पिया, टूटती चूड़ियाँ,
श्रृंगार करें बौर का, आम की डालियाँ।
अंतरा
होली जलती झूठ की, जीत सच की भयी,
सब भूल गए शत्रुता, मित्रता भा गयी।
गाती फिरती गीत हैं, प्यार के टोलियाँ,
श्रृंगार करें बौर का, आम की डालियाँ।
जितेंदर पाल सिंह
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अवतार छंद(मुक्तक)
23 मात्रिक छंद 13 पर यति पदांत रगण
सम चरण तुकांत
(2122 1122 212 212)
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आज हर ओर सफल हैं , देश की नारियाँ।
नापती जल थल नभ को, देश की नारियाँ।
त्याग बलिदान सिखाती, प्राण देती सदा।
वन्दना की स्वर लहरी गर्व हैं नारियाँ।
🌹
प्रीत की रीत यही है, प्रार्थना मान है।
वीर गाथा कहती है, वर क्षमा दान है।
कष्ट में जब जग पाये, रूप विकराल है।
नेह की है प्रतिमा ये, श्रेष्ठ सम्मान है।
🌹
माँ बने तो मर मिटती, प्यार के नाम पर।
बहन हो कर सहती है, बिछड़ना ब्याह पर,
बेटियाँ बन कर चहके, आँगनों की सुधा।
ब्याहता स्नेह लुटाती, सकल परिवार पर।
🌹
आज है दिवस बड़ा ये, विश्व भर नारियाँ।
रोज गढ़ती नित नूतन, प्रात है नारियाँ।
नमन "अविराज" है करे, शक्ति रूपा सदा।
सब घरों की खुशियोँ का, स्थंभ हैं नारियाँ।
✍अरविन्द चास्टा "अविराज" ,कपासन चित्तौड़गढ़ राज।
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अवतार छ्न्द
रौद्राक जाति का छ्न्द,
23 मात्रिक ,13 ,10 मात्रा पर यति
कान्हा मुझे ये कैसा , रंग लगाया है,
मन में मेरे प्रेम का , रस बरसाया है ।
जाने जगत तुझसे हिय , प्रीत लगाया है,
देख के तुझको मेरा ,मन हरषाया है।
....
श्री राम कहूं या श्याम , ओ मुरली वाले,
सांवरे बैजन्ती की , है माला डाले।
गोकुलधाम खेल रहे , हैं गोपी ग्वाले,
भींगे चूनर राधिका , सब हैं मतवाले।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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अवतार छंद [रौद्राक जाती का ]
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13,10मात्रिक
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विषय--नारी
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सुंदर सपना देखती, देश की नारियां
बिन सपनें कहाँ रहती, देश की नारियां।।
प्रित नेह स्नेह निभाती,देश की नारियां।
प्रेम पताका लहराय, देश की नारियां।।
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चढ़े पर्वतों पर देखो ,देश की नारियां।
उड़े आसमाँ निडर हो,देश की नारियां
इसी धरा की निराली,देश की नारियां।
तन मन धन मृदुल भाषी, देश की नारियां।
कहने को बेचारी न देश की नारियां।।
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नेह की प्रतिमान सुता, हमारी अभिमान ,
सृष्टि की रचयिता शक्ति,ख़ुदी ही सम्मान।
प्यार के बोल से पिघल ,देती हमको मान ।
माँ का ही हमें करना, सर्वदा तुला दान।।
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ममता की मूरत बसी,आँख मे समाए ।
चारो दिशाएं महकी,शिव को नचाए।
घर की बेटियां देखों, सबको समझाए।
बेटी पढ़ाओ भविष्य,उज्जवल बताए।।
Vini Singh
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अवतार छंद(रौद्राक जाति का छंद)
२३ मात्रिक,१३-१० पर यति,अंत २१२ (रगण) पर अनिवार्य नहीं।
तुम्हारे प्यार से मुझे,मिली संजीवनी।
अमिट सुख से भरी अमिय,सुखद यह जीवनी।
बना लो तुम पिया मुझे,अभी अर्द्धांगिनी।
महकती जाएगी हर,प्रणय की यामिनी।।
प्रेम-पथ पर पिया सदा,रहूँ पथगामिनी।
मैं पिया बनकर तेरी,यहाँ अनुगामिनी।।
सुखद लगता यही अमर,पिया अति पावनी।
तेरी बातें लगें सब, हृदय मनभावनी।।
चंचल नदिया की धार,चमकती दामिनी।।
रति,रम्भा अरु उर्वशी, या कहो कामिनी।।
निर्मल प्रेम जस प्रियवर,स्रवित मैं मालिनी।
सप्त जन्मों तक साजन, तेरी सुहासिनी।।
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर
हाटा,कुशीनगर
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अवतार छंद
23 मात्रिक
13,10 पर यति अंत रगण (२१२)
गंगा देख पटी पड़ी, हर तरफ गंदगी,
देखो आज मानव से ,दूर शर्मिंदगी।
अरण्य भी वीरान है, जो था हरा-भरा,
राक्षसी गुण रचा बसा,कल्पित वसुंधरा।।
साँस देख सांसें गिने, है हवा अधमरी,
हर तरफ धुआं- धुआं,मौत मुख पर खड़ी।
जीवन जीना कठिन है,जन सोचता कहाँ,
प्राण श्रोत मार करके,दुख भोगता यहाँ।।
फसलों में भी हलाहल,घोलता आदमी,
भविष्य भूत द्वार खड़ा,दूर कर ले कमी।
विकास के छत तले क्यों,ध्वंस को पालता,
सुकर्म पथ ही है सुनो,हृद की विशालता।।
अभय कुमार आनंद
विष्णुपुर ,बाँका, बिहार व
लखनऊ , उत्तरप्रदेश
23 मात्रिक
13,10 पर यति अंत रगण (२१२)
गंगा देख पटी पड़ी, हर तरफ गंदगी,
देखो आज मानव से ,दूर शर्मिंदगी।
अरण्य भी वीरान है, जो था हरा-भरा,
राक्षसी गुण रचा बसा,कल्पित वसुंधरा।।
साँस देख सांसें गिने, है हवा अधमरी,
हर तरफ धुआं- धुआं,मौत मुख पर खड़ी।
जीवन जीना कठिन है,जन सोचता कहाँ,
प्राण श्रोत मार करके,दुख भोगता यहाँ।।
फसलों में भी हलाहल,घोलता आदमी,
भविष्य भूत द्वार खड़ा,दूर कर ले कमी।
विकास के छत तले क्यों,ध्वंस को पालता,
सुकर्म पथ ही है सुनो,हृद की विशालता।।
अभय कुमार आनंद
विष्णुपुर ,बाँका, बिहार व
लखनऊ , उत्तरप्रदेश
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अवतार छन्द,(रौद्राक जाति)
23 मात्रिक छन्द
13, 10 पर यति,अंत 212 रगण(स्वेच्छिक)
विषय:-कृष्ण जन्म
भाद्रपक्ष तिथि अष्टमी,
सुनक्षत्र रोहणी,
शंख चक्र गदा धरे हरि,
ललित छवि शोभिनी,
हाथ जोड़ विनती करें,
वसुदेव देवकी,
रक्षा करो नारायण,
हमारे प्रेम की।
*** *** *** ***
मथुरा चमकी रात में,
घन घटा दामिनी,
जनम लियो कारागार,
बेला सुहावनी,
द्वारपाल सोये सकल,
खुल गई बेड़ियाँ,
रोदन करें प्रभू सहज,
मिट गई भ्रांतियां।
*** *** *** *** **
खोए हमने सकल सुत,
प्रथम से सातवां,
रक्षा करिये हे प्रभो,
शरण मे आठवां,
आया हूँ अवतार ले,
काल बन कंस का,
छोड़ आओ आप मुझे,
घर जहाँ नंद का।
*** *** *** *** **
शिशु बन करते रुदन हरि,
रो पड़ी देवकी,
नैनों से गंगा बही,
अश्रु बन नेह की,
घनघोर काले मेघा,
धरा पर झूमते,
देवकी वसुदेव सजल,
हरि चरण चूमते।
*** *** *** ***
उफनती यमुना लहरे,
हरि परे टोकरी,
निकसे धरि वसुदेव हरि,
काल सी कोठरी,
प्रभु का बने छत्र अनुपम,
नीर में वासुकी,
दीपिका जली आस की,
मन मुदित देवकी।
*** *** *** ***
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
23 मात्रिक छन्द
13, 10 पर यति,अंत 212 रगण(स्वेच्छिक)
विषय:-कृष्ण जन्म
भाद्रपक्ष तिथि अष्टमी,
सुनक्षत्र रोहणी,
शंख चक्र गदा धरे हरि,
ललित छवि शोभिनी,
हाथ जोड़ विनती करें,
वसुदेव देवकी,
रक्षा करो नारायण,
हमारे प्रेम की।
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मथुरा चमकी रात में,
घन घटा दामिनी,
जनम लियो कारागार,
बेला सुहावनी,
द्वारपाल सोये सकल,
खुल गई बेड़ियाँ,
रोदन करें प्रभू सहज,
मिट गई भ्रांतियां।
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खोए हमने सकल सुत,
प्रथम से सातवां,
रक्षा करिये हे प्रभो,
शरण मे आठवां,
आया हूँ अवतार ले,
काल बन कंस का,
छोड़ आओ आप मुझे,
घर जहाँ नंद का।
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शिशु बन करते रुदन हरि,
रो पड़ी देवकी,
नैनों से गंगा बही,
अश्रु बन नेह की,
घनघोर काले मेघा,
धरा पर झूमते,
देवकी वसुदेव सजल,
हरि चरण चूमते।
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उफनती यमुना लहरे,
हरि परे टोकरी,
निकसे धरि वसुदेव हरि,
काल सी कोठरी,
प्रभु का बने छत्र अनुपम,
नीर में वासुकी,
दीपिका जली आस की,
मन मुदित देवकी।
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रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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अवतार छंद
रौद्राक जाती का छंद, २३ मात्रिक छंद,
१३-१० पर यति
२२१ १२२ १२ २१२ २१२
वृंदावन के रंग में,रंग जाओ कभी।
मस्ती भर लो अंग में,भूलकर दुख सभी।
कान्हा जब साथी बने,खेलने में मज़ा।
ग्वाला बनके रंग ले,ढोल,ताशा सजा।।
मारे लठ ग्वाला कभी,तो कभी डाँटती।
छेड़े जब ये ग्वाल तो,जीतना जानती।
है दृश्य अलौकिक बड़ा,तृप्त होता हिया।
लागे प्रभु में ध्यान तो,भाव जागे जिया।।
केशर तन पे है मली,हाथ मुरली सजे।
बोलो जय कान्हा यहाँ,साथ राधे बजे।
ये मंगल ,पावन छटा,पुण्य से तौलता।
सारे ब्रजवासी यहाँ,कृष्ण से बोलता।।
सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
रौद्राक जाती का छंद, २३ मात्रिक छंद,
१३-१० पर यति
२२१ १२२ १२ २१२ २१२
वृंदावन के रंग में,रंग जाओ कभी।
मस्ती भर लो अंग में,भूलकर दुख सभी।
कान्हा जब साथी बने,खेलने में मज़ा।
ग्वाला बनके रंग ले,ढोल,ताशा सजा।।
मारे लठ ग्वाला कभी,तो कभी डाँटती।
छेड़े जब ये ग्वाल तो,जीतना जानती।
है दृश्य अलौकिक बड़ा,तृप्त होता हिया।
लागे प्रभु में ध्यान तो,भाव जागे जिया।।
केशर तन पे है मली,हाथ मुरली सजे।
बोलो जय कान्हा यहाँ,साथ राधे बजे।
ये मंगल ,पावन छटा,पुण्य से तौलता।
सारे ब्रजवासी यहाँ,कृष्ण से बोलता।।
सुवर्णा परतानी
हैदराबाद
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