Saturday, August 29, 2020

पञ्चचामर छंद - Hindi Poetry


Explained By Shri Krishna Shrivastava Ji , Hata - Kushinager ( U.P.)
भगवान गणेश और माँ शारदे की कृपा से विभिन्न छंदों का अभ्यास साहित्य अनुरागियों द्वारा सतत रूप से गतिमान है जो कि अत्यंत गौरवशाली है।छंद अभ्यास के इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए हम सब अत्यंत उत्कृष्ट और महत्वपूर्ण वार्णिक छंद "पञ्चचामर छंद" पर अभ्यास करेंगे।विख्यात शिव ताण्डव इसी वार्णिक छंद पर आधारित है।इस 16 वार्णिक छंद का संक्षिप्त विधान निम्न है-
पञ्चचामर छंद
लक्षण - जरौ जरौ जगाविदं वदन्ति पञ्चचामरं ।।
क्रमश:
जगण रगण जगण रगण जगण गुरु।

यथा
१२१ २१२ १२१ २१२ १२१ २
पदांत शुद्ध गुरु वर्ण अनिवार्य है।
वाचिक भार मान्य नहीं है।
दो दो अथवा चारों चरण समतुकांत।सृजन करते समय अलंकार और विन्यास पर विशेष ध्यान होना चाहिए।


उदाहरण
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयंप्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती।।
अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है-बढ़े चलो बढ़े चलो।।

जयशंकर प्रसाद
मेरी रचना
१-अभीष्ट लक्ष्य ले बढ़ो सदा जवान शान से।
प्रचण्ड वेग से बढो कटार खींच म्यान से।।
दहाड़ शेर सी रहे अदम्यता अपार हो।
अखण्ड शक्ति से सदैव युद्ध में प्रहार हो।।

२-नया यहाँ प्रभात हो नई सदा उड़ान हो ।
प्रणम्य नेह-प्रेम का सदा यहाँ विधान हो।।
समस्त दंभ दूर हो कभी नहीं गुमान हो।
प्रबुद्ध-शुद्ध हों सभी विचार भी महान हो।।

३-विशुद्ध देशभक्ति का सदा यही प्रमाण है।
सुरम्य,पावनी यही अमर्त्य भाव प्राण है।।
प्रवाह प्रेम कामना नमामि मातृ भारती।
सदैव हस्तबद्ध हो करें विनीत आरती।।

४-विराट रूप हिन्द का रहें सभी बखानते।
प्रसून गन्ध से रहें सदा इसे सँवारते।।
अभूतपूर्व शौर्य की कहानियाँ मिले यहीं।
अनन्त कीर्तिमान कृष्ण हिन्द सा कहीं नहीं।।

स्वरचित
कृष्णा श्रीवास्तव
हाटा,कुशीनगर,उत्तर प्रदेश

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पञ्चचामर छंद

121 212 12,1 212 121 2

महान काव्य को रचूँ,यही अगाध कामना।
पवित्र गंग ज्ञान की, नदी अथाह लाँघना।।
सदैव मैं करूँ यहाँ ,तपी समान साधना।
उपास्य देव छंद हो, सदा करूँ उपासना।।

अभय कुमार "आनंद"
विष्णुपुर, बांका, बिहार व
लखनऊ,उत्तर प्रदेश

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पञ्चचामर छंद

नमामि भक्त वत्सलम् नमामि कृष्ण अच्युतं।
नमामि राधिका प्रियम् नमामि देवकी सुतं।
अपूर्व दीप्ति उत्तमम् सदैव शोभितम् मुखं।
निहार रूप दिव्यतम् त्रिलोक अर्जितम् सुखं।।

गुलाब ओष्ठ स्वत्ववाम् सु-तान बाँसुरी प्रियं।
मयूर पंख पावनम् किरीट धार्यतम् स्वयं।
सुशोभितम् सुसज्जितम् विशाल नैन कज्जलं।
सु-हस्त कंकणम् सु-रत्न हार कंठ कोमलं।।

अवर्णनीय, अद्भुतम् , अ-द्वैत श्याम वल्लभं।
यदा उवाच्यते, प्रतीत शब्द-शब्द सौरभं।
पदारविन्द वन्दना प्रदातु मम् त्वमीश्वरं।
त्वमेव एक शाश्वतम् त्वमेव एक सुन्दरं।।

मणि अग्रवाल "मणिका"
देहरादून (उत्तराखंड)

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पञ्चचामर छंद:

121 212 121 212 121 2

अपूर्व शौर्य की कथा लिखे वही जवान है।
स्वदेश के लिए सदैव जो मिटे जवान है।
ज्वलंत ज्योत ओज की हरेक चित्त में जले।
कहें सदा सदा मुझे वसुंधरा यही मिले।

सदैव देश भक्तियुक्त रक्त में उबाल हो
सशक्त सैन्य शक्ति-प्राप्त भारती निहाल हो।
व शेर सी दहाड़ से कड़ा जवाब वीर दें।
निगाह दुश्मनी भरी कटार मार चीर दें।

स्वरचित
डॉ. पूजा मिश्र 'आशना'

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.#पञ्चचामर_छंद (वर्णिक छंद)
मापनी: 121 212 121 212 121-2
विषय:-नेह भरे मेह

प्रभात झूमते धरा,अनन्त मेह भृंग से।
विराट तूलिका लिखे,अटूट नेह तुंग से।।
चली बयार प्रेम की,पिया ! हिया सँवार दो।
उदास नैन बोलते,असीम आज प्यार दो।।
*** *** *** *** ***
समीर चूमती घटा,नदी बहे तरंग सी।
कहे हिया सुनो पिया, भरे जिया उमंग सी।।
विभोर मोर नाचते, घटा घिरी लुभावनी।
खिली कली गली गली सुवास प्रीत पावनी।।
*** *** *** *** ***
सुना रही हवा सखी, सुप्रीत गीत रागिनी।
द्युलोक कौंधती घटा,पुनीत श्वेत दामिनी।।
सरोज बूंद शोभते,सुधा भरे घटा शुभे।
किरीट शीश सोहते, लता धरे खिले विभे।।
*** *** *** *** ***
स्वरागिनी धरे प्रिया,प्रसीद कूक कूकती।
सुहास राग ताल में,गिरे बून्द झूमती।।
बिखेर व्योम में घटा,अनन्त रंग पावनी।
हरी हरी हुई धरा,हरेक रंग सावनी।।
*** *** *** *** ***
प्रमोद नैन पूछते,पिया कहाँ हिया कहाँ ।
पुनीत प्राण प्रेम में, जले हिया सदा यहाँ।।
घनी लुभावनी घटा, पुकारती पिया पिया।
विलोकि रूप मोहनी,सुभीत प्रेम में हिया।।

रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दनी
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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#पञ्चचामर_छंद(वार्णिक-छंद)
#विधान:-१२१ २१२ १२१ २१२ १२१ २
#शीर्षक:-**प्रभात-स्तवन**

सदा निशा भले ढली,उगी प्रभा,दिगंत में।
छुपा जरा अखंड में,खिला वहीं अनंत में।
सुधा लिए विहान की,विभावरी समा गई।
प्रभात के प्रभास में,सुशील-भोर,आ गई।

दिवा सु-नव्य वान में,प्रतीत दिव्य अप्सरा।
नवीन मेघना खिली,सजी-धजी,निरक्षरा।
विहंग-व्योम ने रची,विहंगिमा,वितान की।
विराग-रागिनी बजी,मल्हार-राग,व्यान की।

प्रमाद छोड़ भौतिकी,सजीव हो उठे मना।
विचार-वैदिका जगी,विहार वेद से सना।
सु-वाच्य नीति-मंत्र से,दिशा-दिशा पुकारती।
धरा-दिगंत,मेदिनी,प्रभात को निहारती।

प्रभा खिली प्रभात की,प्रवाह प्रेम का गहे।
सुगीतिका लभे सही,निनाद गेय का बहे।
चलो उठो,सुलेखनी,सु-काव्य को उतार दो।
नमामि मात शारदे ! सु-बुद्धि तो उधार दो।
🌻🙏🌻🙏🌻🙏🌻
#रागिनी_नरेंद्र_शास्त्री

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पञ्चचामर छंद

121 212 121 212 121 2

करो सदा यहाँ महान कर्म जीव सोधना ।
रहे सदैव मान प्रेम प्यार आस जोड़ना ।।
यहाँ कभी दुखी रहे न जीव यूँ धरा रहे ।
सभी सुखी समान हो न प्यार यूँ बना रहे ।।

रजिन्दर कौर ( रेशू )

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पञ्चचामरं छन्द (वर्णिक)
पदान्त गुरू अनिवार्य

जगण रगण जगण रगण जगण गुरू
121 212 121 212 121 2

महान आप हो शिवे प्रशस्त मार्ग कीजिए।
करूँ प्रणाम आपको सदैव साथ दीजिए।।
प्रकृति आज ये कहे कि सृष्टि को सँभालिए।
सदैव धर्म साथ हो सशक्ति नाथ दीजिए।।

त्रिशूल हाथ में लिए भुजंग साथ सोहते ।
त्रिनेत्र आपके प्रभो ! मुखार बिन्दु मोहते।।
सुमार्ग राह ही चलूँ शिवे!मुझे सँवार दे।
नम: शिवाय मैं जपूँ महेश आज तार दे।।

सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज

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#पञ्चचामर छंद
जरा बता मुझे अभी,
कहाँ गया उफान है।
कहाँ गई रवानियाँ,
कहाँ छुपा जवान है।।
विचार खो गये कहाँ,
स्वभाव संग मान है।
उठो जगो सँवार लो,
खुला यहाँ विहान है।।
* मुक्तक
न प्रीत है न रीत है,
दशा यही समाज की।
लगे सभी मिलेझुले,
न ध्यान राज काज की।
कई लुटेपिटे मिले,
करे कपाल खाज है।
न दोष काल का सभी,
कहानियाँ स्वराज की।

अरविन्द चास्टा "अविराज"
कपासन चित्तौड़गढ़ (राज)
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