Sunday, June 6, 2021

"हिंदी भाषा की वैज्ञानिकता"

आज इस ब्लॉग के माध्यम से भाषा विज्ञान पर एक अद्भुत और शाश्वत लेख प्रस्तुत है । जिससे ध्यान पूर्वक अध्ययन करने पर आपको पूर्ण रूपेण विश्वास होगा कि हमारी हिंदी भाषा जिसकी जननी सँस्कृत भाषा है ,कितनी वैज्ञानिक है। इस पोस्ट के आधार पर हर एक शब्द का सार्थक अर्थ शब्द सिद्धि कर देखा जा सकता है। 
इस ज्ञान कोष के लिये लेखक आदरणीय श्री शंभूलाल जी शर्मा (बूंदी, राजस्थान)का आभार व्यक्त करता हूं ,कि  उन्होंने इस ब्लॉग के माध्यम से इसे प्रकाशित करने हेतु अनुमति प्रदान की ।
#अरविंद चाष्टा 
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लेखक परिचय 
भाषाविद आदरणीय पं श्री शंभूलाल जी शर्मा कश्यप ।
बूंदी - राजस्थान।
आप श्री के विशाल ज्ञान कोष से कुछ अंश

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आर्यावर्त की नारदीय विद्या - - भाग 1
पौराणिक साहित्य में ब्रह्मा के अवतारी पुत्र नारद को ब्रह्मांड मैं सर्वत्र गतिमान कहा है । हम इस पोस्ट में महर्षि नारद के शोध सिद्धांत और उनके गुरुकुल की सर्वत्र व्यापकता के विषय में चर्चा करेंगे। साथ ही यह भी बताएंगे कि नारद को देव ऋषि क्यों कहा गया है ।
नारद शब्द में प्रयुक्त प्रत्येक वर्ण के प्रतिकार्थ और उनके संयोजन से बनने वाले भाव इस प्रकार है ।
ना र् आ की मात्रा से न वर्ण अदृश्य रूप में प्रबल सक्रिय पुरुषतत्व का वाचक है।
र = र वर्ण तेज का वाचक है।
द = द वर्ण दृश्यता / अनुभव होने का वाचक है ।
अतः तेज आधारित पुरुषतत्व का अदृश्य रूप मे प्रबल सक्रिय रूप जो अपने होने की अनुभूति देता है, नारद है नारद शब्द का भावार्थ है कि तेज और नाद अनन्य है । यथा ; नाद (ध्वनि ) के मध्य र तेज ) है । आज का यूरोपियन विज्ञान इसी तथ्य को ही "sound converts into power and power converts into sound" कहता है ।
शिक्षा का प्रमुख आधार वाणी यानी नाद है। प्रकृति ने मनुष्य को अपने मुख से भिन्न-भिन्न नाद निकाल कर उन के संयुक्त रूप को वाणी की तरह उपयोग करने की सुविधा दी है। महर्षि नारद ने इस विषय पर बहुत गहराई से शोध कार्य किया । उन्होंने मानव मुख से निकलने वाली 60 प्रकार की सामान्य नाद की पहचान करके उनको 16 स्वरों में और 44 व्यंजन रोगों में विभाजित किया । इन कुल 60 वर्णों के समुच्य को वर्णमाला नाम दिया । इन 16 स्वरों की नाद सर्वकालिक और सर्वत्र व्याप्त है । स्वरों की प्राकृत नाद के संयोग से ही व्यंजन वर्ण पूर्ण होते हैं ।
महर्षि नारद ने व्यंजन वर्णों का क्रम वैदिक सृष्टि सृजनक्रम की प्राकृत क्रिया के 5 चरणों के क्रमानुसार निर्धारित किया ।
1-क वर्ग ब्रह्मांड की उत्पति के प्राकृत आधार तैयार होने की 5 क्रिया के वाचक (क ख ग घ ङ )वर्णों का समुच्य है।
2- च वर्ग ब्रह्मांड क्षेत्र के क्षेत्रज्ञ विष्णु तत्व में तेज की उत्पति एवं तेज के प्रकट स्वरूप हिरण्यमयपुरुष की ब्रह्मांड के केंद्र में स्थित होने और उससे आकाशीय पिंडों की जनन एवं संप्रेषण की क्रिया सहित इस क्रियाओं से उत्पन्न प्राकृत नाद सहित 5 क्रिया के वाचक ( च छ ज झ ञ )वर्णों का समुच्य है ।
3- ट वर्ग ब्रह्मांड क्षेत्र में तेजस-सोम पुरुषत्रिषाणुओं के महामिलन की क्रिया से उत्पन्न परमाणुओं के गठन की प्राकृत क्रिया और उससे उत्पन्न नाद सहित 5 क्रिया के वाचक ( ट ठ ड ढ ण )वर्णों का समुच्य है ।
4- त वर्ग ब्रह्मांड क्षेत्र में स्थित सौरमंडल की विशिष्ट प्राकृत 5 विधाओं और उसकी 5 विशेषताओं को परिभाषित करती नाद के वाचक ( त थ द ध न )वर्णों का समुच्य है ।
5- प वर्ग सौरमंडल क्षेत्र में स्थित पृथ्वी एवं पृथ्वी मंडल की विशिष्ट प्राकृत 5 विधाओं और उसकी 5 विशेषताओं को परिभाषित करती नाद के वाचक ( प फ ब भ म ) वर्णों का समुच्य है ।
शेष य से ज्ञ तक के 11 व्यंजन ब्रह्मांड के रूप ,गुण प्रकृति और क्रियाशीलता के विविध रूपों को परिभाषित करते व्यंजनों का समुच्य है ।
वैदिक वर्णमाला के16 स्वर : --
देवऋषि नारद ने नाद विज्ञान के विषय में शोध करते हुए पाया कि मानव मुख से जो भी नाद निकलती है और कंठ से निकलने वाली स्वर संज्ञक नाद के संयोजन से ही संतुलित नाद बनती है । इस विश्लेषण में उन्होंने नाद का एक प्रकार वह माना जो केवल कंठ से निकलता है और उन नाद की अविरलता लंबे समय तक बनी रह सकती है। नारद ऋषि ने कंठ से निकलने वाली आवाज के 16 रूपो को परख कर प्रत्येक नाद का प्रतिकार्थ नियत करके इसे 16 प्रकार की नाद के समूह का नाम स्वर रखा । स्वर संज्ञक इन 16 नादों के देव नागरिक लिपीय रूप और प्रतिकार्थ इस प्रकार है।
१-अ = अनंत अनादि और अव्यय भाव का वाचक ।
विशेष : - ऋतं (शून्य) और ऋतं क्षेत्र में तदाकार भरा पुरुष तत्व का एकीकृत इकाईबद्ध रूप जिसे एकार्णवीकृते विष्णुपद कहा गया है ।दोनों ही अनंत अनादि और अव्यय है
२-आ = अ वर्ण के दीर्घ भाव का वाचक ।
३-इ = सजीव सक्रियता की कारक शक्ति का वाचक ।
विशेष = पुरुष तत्व की श्री (रसायन प्रकृति)और लक्ष्मी (आकर्षण बल यानी भौतिक प्रकृति ) प्रकृतियों के संयुक्त स्वरूप महत् प्रकृति ही पुरुष तत्व की सक्रिय और सजीव अवस्था का की कारक प्रकृति है । इ वर्ण इसी महत् प्रकृति का वाचक है ।
४- ई = इ वर्ण के दीर्घ भाव का वाचक ।
५- उ = उपस्थितिऔर उन्नत सक्रियता का वाचक ।
विशेष : - समस्त शून्य क्षेत्र में केवल एक ही तत्व (पुरुष तत्व ) उपस्थित है और उन्नत सक्रियता से सृष्टि का कारक और पालक है ।
६-ऊ = उ वर्ण के दीर्घ भाव का वाचक ।७-ऋ = अनंत अनादि ऋतं (शून्य क्षेत्र ) का वाचक ।
७-ऋ =ऋ शुन्य क्षेत्र का वाचक है
८- ऋ ( दीर्घ ) = ऋ वर्ण के दीर्घ भाव का वाचक ।
९- लृ = काल (समय) का रूप समझने के भाव का वाचक ।
१०- लृ ( दीर्घ) = लृ वर्ण के दीर्घ भाव का वाचक ।
११- ए = यह इ+ अ स्वरों के संयुक्त भाव का वाचक है ।
१२-ऐ= यह वर्ण ई + अ स्वरों का संयुक्त स्वरूप है और भाव ए वर्ण के दीर्घ भाव का वाचक ।
१३-ओ -यह वर्ण उ + आ स्वरों के संयुक्त भाव का है।
१४- औ= यह वर्ण ऊ + आ स्वरों का संयुक्त स्वरूप है । और भाव ओ वर्ण के दीर्घ भाव का वाचक ।
१५- अं = अनंत ऋतं (शून्य ) एवं अनंत सत्यम में विद्यमान महत् (श्री एवं लक्ष्मी प्रकृतियों का संयुक्त सक्रिय रूप ) प्रकृति के स्वरूप का वाचक है।
विशेष : - अं वर्ण परिभाषित करता है कि ऋतं - सत्यम् की सम इकाई (ऐकार्णवीकृते विष्णुपद) ही हमारे ब्रह्मांड जैसी अनेक इकाइयों का कारक आधार है ।
१६- अः = अनंत ऋतं (शून्य ) एवं अनंत सत्यम में विद्यमान ब्रह्मांड इकाई में ऐकार्णवीकृते विष्णुपद के समान ही होने का अनंत भाव है ।
अगली पोस्ट में वैदिक वर्णमाला के क च ट त प व्यंजन वर्ग के वर्णसमूहो के प्रतिकार्थ प्रस्तुत करूँगा ।
-पंडित शंभू लाल शर्मा "कश्यप
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आर्यावर्त की नारदीय विद्या भाग -2
इस पोस्ट में वैदिक वर्णमाला के क और च वर्ग के 5-5 वर्णों के प्रतिकार्थ के माध्यम से सृष्टि सृजन क्रम के अव्यक्त आधारभूत कारको और क्रियाओं को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ।
हमारी ब्रह्मांड इकाई के उत्पन्न हो कर अपने स्वचालित रूप में निरंतर बने रहने का आधार वेद वैज्ञानिक ऋषियों ने ऐकार्णवीकृते विष्णुपद (ऋतं यानी -अनंत ,अनादि एवं अव्यय शून्यक्षेत्र मे तदाकार भरे हुए सत्यं यानी पुरुष तत्व का अनंत ,अनादि एवं अव्यय इकाई बद्ध रूप का ऐकार्णवीकृते विष्णुपद नाम मार्कण्डेयपुराण के अंश श्रीमद् दुर्गा सप्तसती नामक ग्रंथ में प्रयुक्त हुआ है ।) बताया है। ऐकार्णवीकृते विष्णुपद के पुरुषतत्व के प्राकृत घटक एकल पद (सिंगल सेल ) त्रिजाकार त्रिषाणु होते है जो अपनी श्री (रसायन) प्रकृति और लक्ष्मी (पारस्परिक आकर्षण बल ) प्रकृति के संयुक्त सक्रिय स्वरूप के प्रभाव से एक दूसरे में बड़ी कठोरता के साथ जुड़ते हुए निरंतर जमते रहते हैं । दसों दिशाओं से त्रिषाणुओं के अविरल जमाव की प्रक्रिया के चलते हुए अंत में उस जमाव क्षेत्र के मध्य में एक आयताकार शून्य इकाई शेष रह जाता है जिसे पुरुषतत्व के त्रिषाणु किसी भी प्रकार नहीं भर पाते हैं । (बर्फ की सिल्ली के जमाव के मध्य में जिस प्रकार आयताकार शून्य क्षेत्र शेष रह जाता है। ) वैदिक सृष्टि विज्ञान में उस प्रथम प्रकट आयताकार शून्य इकाई को भगवान विष्णु की नाभि में से स्वतः प्रकट कमल नाल कहा गया है । इस कमल नाल के शून्य को ही सृष्टि का प्रथम कारक ब्रह्मा नाम दिया गया है । (इस तथ्य को समझाने के लिए वेद वैज्ञानिक ऋषियों ने शिक्षण सामग्री के रूप में श्री यंत्र का चित्र बनाया है )
मित्रों ! ऐकार्णवीकृते विष्णुपद और उसमें प्रकट कमल नाल को ध्यान में रखकर क वर्ग के वर्णों के प्रतीकार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं आप भी इसी दृश्य हो अपने ध्यान में रखकर इस प्रस्तुति के रहस्य को समझने की कृपा करें ।
1- क = क वर्ण ब्रह्मा भाव का वाचक है । ( उक्त कमल नाल का प्राकृत रुप से प्रकट शून्यइकाई )
विशेष : - उक्त आयताकार ब्रह्मा संज्ञक शून्य इकाई के प्रकट होने से पहले ही इसके दोनों छौर पर ऐकार्णवीकृते विष्णुपद मे ही इस कमल नाल के समीप ही परस्पर विपरीत दिशा में मधु और कैटभ नामक दो शून्य इकाईयाँ पहले से ही विद्यमान थे जो इस नव प्रकट ब्रह्मा को अपने में मिलाने के लिए ठीक उसी प्रकार निरंतर यत्न कर रहे थे जैसे जल के अंदर बने हुए बुलबुले एक दूसरे को अपने में मिलाने के लिए यत्न करते हैं । मधु कैटभ के संयुक्त दबाव से एक समय ऐसा आया जब ऐकार्णवीकृते विष्णुपद के पुरुष तत्व के असंख्य त्रिषाणु ब्रह्मा संज्ञक शून्य इकाई के दोनों छौर से उसमें एक साथ प्रविष्ट होकर वे सभी अपनी ही चक्र गति के अधीन हो गए । (इस तथ्य को भी श्री दुर्गा सप्तशती ग्रंथ के प्रथम चरित्र की कथा में चक्रधारी भगवान विष्णु के रूप मे समझना चाहिए । )
2-ख = ख वर्ण ब्रह्मा संज्ञक इकाई के उस रूप का वाचक है जो पुरुष तत्व के त्रिषाणुओं के सकाश (प्रभाव ) से आकाश रूप बन गया । अर्थात ब्रह्मा संज्ञक शून्य इकाई में सक्रिय पुरुष तत्व की उपस्थिति से बने शून्य इकाई के स्वरूप का वाचक ख वर्ण है ।
3- ग = ग वर्ण पुरुषतत्व की गति प्रकृति का वाचक है।
4- घ = घ वर्ण पुरुषतत्व के चकगतिशील त्रिषाणुओं की पारस्परिक घर्षण क्रिया का वाचक है ।
5- ङ = ङ वर्ण चकगतिशील पुरुषतत्व के त्रिषाणुओ के गति जनित घर्षण से उत्पन्न प्राकृत नाद का वाचक है ।
विशेष : - क वर्ग के क ख ग घ ङ वर्णो के प्रतिकार्थ को निरंतर चिंतन करके समझने वाला तत्वदर्शी महात्मा हमारे ब्रह्मांड के मूल प्राकृत स्वरूप को समझ लेता है । वही व्यक्ति ब्रह्मांड को हस्त आमलक वत समझ पाता है।
मित्रों ! ऐकार्णवीकृते विष्णुपद के मध्य में प्रकट कमल नाल को ध्यान में रखकर क वर्ग के वर्णों के प्रतीकार्थ को ध्यान में रखते हुये ही आप इस प्रस्तुति के रहस्य को समझने की कृपा करें ।
1- च = च वर्ण घषर्ण से उत्पन्न तेज की चमक क्रिया का वाचक है ।
2- छ= छ वर्ण ब्रह्मांड के केन्द में तेज के प्रकट तेजोमय अग्निशिखा लिंग रूप में स्थापित होने का वाचक है।
विशेष : - जल भंवर और वायुचक्रवात के केंद्र मे गति की तीव्रता सर्वाधिक होती है । ठीक उसी प्रकार हमारे ब्रह्मांड में पुरुषतत्व की तीव्र चक्र गति के कारण पुरुषतत्व के त्रिषाणुओ का चकराकार महत् ब्रह्म योनी स्वरूप बना और उसके केंद्र में तेजोमय अग्निशिखा रूप भगवान रुद्र प्रकट हुये। भगवान रुद्र ( लिंग रूप में) के स्थिर प्रकट स्वरूप का वाचक छ वर्ण है ।
3- ज = ज वर्ण जनन क्रिया का वाचक है।
विशेष : - विष्णु तेज का प्रकट स्वरूप भगवान रुद्र के तेजोमय ज्योति शिखा यानी लिंग रूप ब्रह्मांड के केंद्र में स्थिर होते ही ब्रह्मांड स्वयं यज्ञ स्वरूप हो गया जिसमें 1-यज्ञ कुंड अखिल ब्रह्मांड का शून्य क्षेत्र है। 2-यज्ञ अग्नि स्वयं लिंग रूप भगवान रुद्र है। 3-यज्ञ हवि ब्रह्मांड का चक्रगतिशील विष्णु संज्ञक पुरुषतत्व है। 4- यज्ञ फल के रूप में इस सृष्टि यज्ञ की क्रिया से उत्पन्न असंख्य आकाशीय पिण्ड है। ज वर्ण इसी एकल इकाई से चल रही जनन क्रिया का वाचक है।
4- झ = झ वर्ण झंझावत संप्रेषण क्रिया का वाचक है ।
विशेष : - जैसे जलती अग्निशिखा से प्रकट चिंगारियां आकाश में उस अग्नि शिखा के तेज के संप्रेषण बल से फैंकने की क्रिया के अधीन हो जाती है । ठीक उसी प्रकार लिंग रूप रुद्र (भगवान हिरण्यमयपुरुष ) के तेज संप्रेषण बल से उस से ही उत्पन्न आकाशीय पिंड पूरे ब्रह्मांड क्षेत्र में निरंतर संप्रेषित हो रहे हैं । झ वर्ण इसी प्राकृत संप्रेषण क्रिया का वाचक है '
5- ञ = चकगतिशील पुरुषतत्व के त्रिषाणुओ की अविरल धाराओ को पार कर उसके बीच से तीव्रगति से निकलते आकाशीय पिण्डो के घर्षण से उत्पन्न प्राकृत नाद का वाचक ञ वर्ण है ।
विशेष : - क वर्ग एवं के क ख ग घ ङ एवं चवर्ग के च छ ज झ ञ वर्णो के प्रतिकार्थ को निरंतर चिंतन करके समझने वाला तत्वदर्शी महात्मा हमारे ब्रह्मांड के सर्वकारक विष्णु तेज यानी भगवान रूद्र के सभी रूपों को समझ लेता है ।
मित्रों अगली सभी पोस्ट में ट वर्ग त वर्ग और प वर्ग के 5 -5 वर्णो के प्रतिकार्थ के अनुसार सृष्टि सृजनक्रम के महत्वपूर्ण चरण को समझाने का प्रयास करूंगा ।
-पंडित शंभू लाल शर्मा "कश्यप
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आर्यावर्त की नारदीय विद्या भाग -3
मित्रों ! क एवं च वर्ग के वर्णों के प्रतिकार्थ समझने से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मांड का क्षेत्रज्ञ पुरुषतत्व अपनी ही प्रकृति और गुणों की सक्रियता के प्रभाव से चक्रगति के अधीन होकर अपने ही calls के पारस्परिक घर्षण के कारण उत्पन्न तेज से युक्त हो गया और उस ब्रह्मांड इकाई के केंद्र में परम तेजोमय अग्निशिखा रूप भगवान हिरण्यमय पुरुष के स्थापित होने के साथ ही यह ब्रह्मांड प्राकृत स्वचालित सृष्टि यज्ञ रूप बन गया ।
इस सृष्टि यज्ञ में पुरुष तत्व निरंतर आहुती चल रही है और इसके कारण पुरुषतत्व स्वयं ही असंख्य आकाशीय पिण्ड और उनके चक्र गतिशील होने से उन सभी के प्रभा क्षेत्रों का वायुमंडलीय तत्व बन गया ।इस पोस्ट में हम तेज के प्रभाव से पुरुषतत्व के प्राकृत घटक त्रिषाणुओ के पारस्परिक योग से परमाणु गठन के वैदिक सिद्धांत की चर्चा करेंगे ।
ब्रह्मांड में हिरण्यमयपुरुष के तेज से उत्पन्न असंख्य ज्वलनशील आकाशीय पिण्ड है और उनके जलन क्षेत्र से निकलते तेजस पुरुषत्रिषाणु ब्रह्मांड के खुले क्षेत्र में आते ही अपने साथ पुरूषतत्व का एक-एक सोम त्रिषाणु चिपका लेता है। इसी प्रक्रिया से अखिल ब्रह्मांड के हर क्षेत्र में परमाणु गठन की क्रिया चल रही है ।
( परमाणु में तेजस पुरुषत्रिषाणु इलेक्ट्रॉन है और सोम पुरुषत्रिषाणु प्रोटोन है । इन के गठन के बाद भी तेजस पुरुषत्रिषाणु के तेज के कारण उनकी आन्तरिक पारस्परिक गति बनी रहती ।इस गति के लिए उपलब्ध शून्य इकाई क्षेत्र न्यूट्रोन है। )
वैदिक वर्णमाला के ट वर्ग के सभी वर्ण परमाणु गठन की इसी प्राकृत क्रिया के वाचक है । देखें -
1- ट र् ट वर्ण उक्त प्राकृत क्रिया के अनुसार तेजस और सोम (शीतल ) पुरुष त्रिषाणुओ के परस्पर टकराने की क्रिया का वाचक वर्ण है।
2- ठ = ठ वर्ण तेजस और सोम (शीतल) पुरुषत्रिषाणुओ के परस्पर टकराने के साथ ही में ठस कर एकाकार होने की प्राकृत क्रिया का वाचक है।
3-ड = ड वर्ण तेजस और सोम (शीतल) पुरुषत्रिषाणुओ के परस्पर टकरा कर उनके आपस में ठस कर एकाकार होने की क्रिया की प्राकृतनाद का वाचक है।
4- ढ= ढ़ वर्ण परमाणु विखण्ड की प्राकृत क्रिया की नाद का वाचक है ।
5- ण = ण वर्ण ट वर्ग की उक्त प्राकृत क्रियाओं की कृति यानी परमाणु इकाई का वाचक है।
हमारी ब्रह्मांड सृष्टि यज्ञ स्वरूप है । इसीलिए वेद में ब्रह्मांड को यज्ञपुरुष भी कहा गया है । ब्रह्मांड की असंख्य आकाशगंगाओ मे से मंदाकिनी नामक हमारी आकाशगंगा में ही हमारे नक्षत्र मंडल जैसी अनेक निहारिकाएं है । हमारा नक्षत्र मंडल 27नक्षत्रों का एक इकाई बद्ध रूप है। इस क्षेत्र के क्षेत्रज्ञ वायुमंडलीय तत्व को प्रजापति कहा गया है। कथन पुष्टि ( "प्रजापतिश्च रतिगर्भे अंतर जयमानो बहुधा विजायते ।" से करना चाहिए ।
हमारे नक्षत्र मंडल में कृतिका नामक एक नक्षत्र है । कृतिका नक्षत्र ही स्वर्ग है और हमारा सौरमंडल इसी कृतिका नक्षत्र का अंग है । ब्रह्मांड में हमारा सौर मंडल स्वचालित स्वतंत्र भाषित एक सृष्टि इकाई यज्ञपुरुष की तरह ही काम करता है । सौर क्षेत्र का यज्ञपुरुष स्वरूप इस प्रकार समझना चाहिए ।
1- सौर क्षेत्र यज्ञ कुंड है । 2-सौर मंडल के केंद्र में स्थित परम तेजोमय भगवान हिरण्यगर्भ सूर्य यज्ञाग्नि है। 3-सौरक्षेत्र का क्षेत्रज्ञ नारायण संज्ञक पुरुषतत्व इसकी यज्ञ हवि है। और 4--सौरमंडल मेंपृथ्वी की जैविक संपदा के बीज आत्म स्वरूप तेजस परमाणुओं की उत्पत्ति , पृथ्वी को जैविक उत्पत्ति कारक उर्वरक स्थिति बनाए रखना,पृथ्वी के जीवो की पोषण व्यवस्था करना और सौर मंडल का स्वचालित स्वरूप इस प्राकृत यज्ञ का यज्ञ फल है ।
वैदिक वर्णमाला के त वर्ग के सभी वर्ण सौरमंडल के रूप, गुण और प्रकृति को परिभाषित करती अवस्था और क्रियाओं के वाचक है । देखें -
1- त र् त वर्ण सूर्य के तेज और उसके आधार पर नारायण तत्व की गतिशील तीक्ष्णता का वाचक वर्ण है।
2- थ = थ वर्ण सौरमंडल की स्वतंत्र और स्वचालित स्थिर भासित अवस्था का वाचक है।
3- द= द वर्ण सौरमंडल में प्रकाश जनित दृश्यता भाव का वाचक है।
4- ध = ध वर्ण सौरमंडल की स्वतंत्र और अनंत धारण शक्ति का वाचक है ।
5- न= न वर्ण सौरमंडल क्षेत्र के क्षेत्रज्ञ नारायण संज्ञक पुरुषत्व की उस अवस्था का वाचक है जो अदृश्य रूप में भी अविरल सक्रियता के गुण से युक्त है । अर्थात न वर्ण अदृश्य रूप में सक्रिय पुरुषतत्व का वाचक है ।
त वर्ग के वर्णों के प्रतिकार्थ जानने के बाद अब पृथ्वी मंडल के रूप गुण को परिभाषित करते प वर्ग के 5 वर्णों के प्रतीकार्थ इस प्रकार समझना चाहिये ।
1- प र् प वर्ण पुरुषतत्व का वाचक है। अतः प वर्ण का स्पष्ट संकेत है कि पृथ्वी और पृथ्वी मंडल पूर्ण रूप से पुरुषतत्व की ही दृश्यमान इकाई है।
2- फ = फ वर्ण फलित क्रिया का वाचक है। अर्थात पृथ्वी मंडल में फलित क्रिया (अपने ही समान नवीन इकाई उत्पन्न करना) समस्त जीव जगत में सर्वत्र सक्रिय है ।
3- ब = ब वर्ण द्वय / दो का वाचक है। अर्थात पृथ्वी मंडल में फलित क्रिया एक ही नस्ल की दो जैविक इकाइयों की सह क्रिया से सम्पन्न होती है।
4- भ = भ वर्ण भव ( उत्पति ) का वाचक है ।
विशेष : - वैदिक वर्णमाला में नारद ऋषि ने ब्रह्मांड में चल रही उत्पन्न होने की क्रियाओं के वाचक "ज " और "भ " दो व्यंजन वर्ण दिए हैं ।
(1)- ज वर्ण एकल इकाई से नवीन इकाईयो की उत्पति क्रिया का वाचक है ।
(2 )- भ वर्ण दो जैविक इकाइयों की सह क्रिया से तीसरी नवीन इकाई उत्पन्न होने की क्रिया का वाचक है। जैसा कि पृथ्वी मंडल में हर जैविक नस्ल के नारा एवं नारी की युगल सहवास क्रिया से निरंतर चल रही है ।
5- म = म वर्ण महत् ब्रह्म प्रकृति का वाचक है । प वर्ग के सदस्य के रूप में म वर्ण परिभाषित करता है कि हमारी पृथ्वी और पृथ्वी मंडल विष्णु संज्ञक पुरुषतत्व की महत् ब्रह्म प्रकृति का ही दृश्यमान सक्रिय स्वरूप है ।
पृथ्वी के समस्त क्रियाएं देख /समझकर हम पुरुषतत्व की अदृश्य प्रकृति के स्वरूप को जान सकते हैं ।
मित्रों ! वैदिक वर्णमाला के प वर्ग के इन वर्णो के पारिभाषिक और प्रतीक अर्थों को समझकर ही हम पृथ्वी के जीव जगत का ब्रह्मांड से नित्य संबंध समझ सकते हैं । यहां इन दो बातों को समझना चाहिए ।
1-ब्रह्मांड की प्राकृत रूप से स्वचालित तत्व रूप अवस्था को विज्ञान सम्मत विधि से समझना तत्व दर्शन है । और,
2- तत्व रूप ब्रह्मांडीय स्वचालित इकाई से अपनी उत्पत्ति और स्थिति तथा उससे अपने पोषक स्वरूप को समझते हुए , प्रत्यक्ष भगवान (ब्रह्मांड ) से अपना नित्य संबंध हृदयंगम करके इस संपूर्ण सत्य में ही अपनी चित्तवृति को पूर्ण रूप से नियोजित कर देना अध्यात्म ज्ञान है।
अगली पोस्ट में वैदिक वर्णमाला के य र ल व चार वर्णों के निहित भावों को समझाने का प्रयास करूंगा ।
-पंडित शंभू लाल शर्मा "कश्यप
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आर्यावर्त की नारदीय विद्या - पोस्ट -4
वैदिक वर्णमाला की 16 स्वरों एवं क च ट त एवं प वर्ग के कुल 25 व्यंजन वर्णों के प्रतिकार्थ समझने के बाद हम इस पोस्ट में वैदिक वर्णमाला के य र ल व चार वर्णों के प्रतिकार्थ के माध्यम से ब्रह्मांड ब्रह्मांड इकाई एवं उसके अंतर्गत बनी हुई स्वचालित सौर मंडल , पृथ्वी मंडल तथा सभी जैविक इकाईयों में सर्वव्यापक तात्विक विशेषताओं को समझाने की कोशिश करते है
1- य र् य वर्ण पुरुषतत्व की जैविक व अजैविक इकाई के उस इकाई बद्ध स्वरूप का वाचक है जिसे इकाई बद्ध रूप में इंगित करके समझा और समझाया जा सके ।
2- र = र वर्ण तेज ( ऊष्मा,ऊर्जा,प्रकाश और जलन शीलता आदि सभी गुणों से युक्त अग्नि और विद्युत के सभी रूप ) का वाचक है। तेज तीव्र चक्रगतिशील पुरूषतत्व के सेल्स के परस्पर घर्षण से उत्पन्न पुरुष तत्व का ही ब्रह्मांड में सर्वत्र सक्रिय गुण है ।
3- ल= ल वर्ण पुरुष तत्व की इकाई को लक्षित करके समझने समझाने की क्रिया का वाचक है। लक्षित करके समझने की क्रिया समय आधारित होती है इसीलिए लृ स्वर कालवाचक समझा जाता है ।
4- व = व वर्ण शून्य क्षेत्र और उसमें क्षेत्रज्ञ पुरुषत्व की इकाईयों के सर्वत्र सक्रिय प्रकृति का वाचक है ।
विशेष : - य र ल व वरुण के वाचक रूप गुण और अवस्थाएं ब्रह्मांड से लेकर पृथ्वी के जीव जगत तक सर्वत्र एक रस होती है
. क वर्ग के क वर्ण से प वर्ग के म वर्ण एवं यरलव तक के 29व्यंजन वर्णों के निहित भाव को समझते के बाद वैदिक वर्णमाला के श ष स ह क्ष त्र ज्ञ 7 वर्णों के प्रतिकार्थ के माध्यम से ब्रह्मांड ब्रह्मांड इकाई एवं उसके अंतर्गत बनी हुई स्वचालित सौर मंडल , पृथ्वी मंडल तथा सभी जैविक इकाईयों में सर्वव्यापक तात्विक विशेषताओं को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ।
1- श र् श वर्ण तेज एवं आकर्षण बल की शंकरण क्रिया का वाचक है। तेज शंकरण की क्रिया से ही ब्रह्मांड में पुरुष तत्व की इकाइयों के स्वचालित स्वरूप बनते है।
2- ष= ष वर्ण आकाश का वाचक है ।आकाश का अर्थ है शून्य का वह रूप जो पुरुषतत्व के सकाश (प्रभाव ) से युक्त है।
3- स= स वर्ण पुरुषतत्व की इकाई को वह सर्वनाम से समझ में आती हो । यानी वक्त - श्रोता से भिन्न तीसरी पुरुषतत्व की इकाई जिसे वह के लिए वैदिक भाषा और संस्कृत भाषा में स शब्द ही प्रयुक्त होता है ।अतः स वर्ण वह सर्वनाम का वाचक है।
4- ह = ह वर्ण पुरुष तत्व की जैविक व अजैविक इकाई जिसके होने का भाव वह इकाई स्वयं अनुभव करती हो या जिसके होने को दृष्टा अनुभव करते हो । स्वयं के या अन्य इकाई के होने के भाव का वाचक है।
5- क्ष - क्ष वर्ण क्षरण क्रिया का वाचक है । ब्रह्मांड अविरल क्षरण क्रिया से युक्त है। जैसे कोई भी जैविक इकाई वीर्य कण के रूप में माता के गर्भ में जाकर पंचमहाभूतका पोषक आवरण ग्रहण करते हुए विस्तार को प्राप्त करती है उसी प्रकार एक अवस्था आने दो उस जैविक इकाई में विस्तार होते-होते वहइकाई क्षरित होने लगती है।
विशेष : - हमारा ब्रह्मांड अपने उत्पत्ति काल से निरंतर विस्तार को प्राप्त होता जा रहा है और एक समय ऐसा आएगा कि वह विस्तार अनंत अनादि ऐकार्णविकृते विष्णु पद में विलीन हो जाएगा। यह विस्तार ही उसकी क्षरण क्रिया है । अतः अनंत क्षरण क्रिया के अधीन होने से हमारा ब्रह्मांड अक्षर पुरुष तत्वीय इकाई है।
6- त्र - त्र वर्ण ब्रह्मांड की एवं समस्त जैविक इकाइयों की तीन विशेषताएं का वाचक है । ये विशेषताएं केवल ब्रह्मांड क्षेत्र के पुरुषतत्व और उन से बनी जैविक अजैविक इकाइयों में ही रहती है ।इन तीन विशेषताओं का नाम गति तेज और नाद है ।
विशेष : -हमारा ब्रह्मांड त्रिलोकी कहा जाता है ।इसका कारण यह है कि ऐकार्णविकृते विष्णुपद के पुरुष तत्व मैं प्राकृत रूप से 3 विशेषताएं होती है, जिन्हें वेद विज्ञान में भगवान के तीन ऐश्वर्य कहते है। यह तीन ऐश्वर्य श्री -रसायन प्रकृति,लक्ष्मी -आकर्षण बल प्रकृति और सत्वगुण है। ब्रह्माण्ड क्षेत्र में इन तीन यानी श्री लक्ष्मी एवं सत्व गुण के साथ गति तेज और नाद सहित 6 गुणो से युक्त षडेश्वर्य युक्त विराटपुरुष है ।
7- ज्ञ - ज्ञ वर्ण ज्ञान का वाचक है ।वैदिक वर्णमाला मैं कुल 60 प्राकृत नादों एवं उनके प्रतिको की माला में नारद ऋषि ने ज्ञ वर्ण को माला के सुमेरू की तरह प्रस्तुत किया है । इसी वर्ण का संकेत है कि वैदिक वर्णमाला के इन नाद प्रतीकों को समझना ही वास्तविक ज्ञान है ।
मित्रों मित्रों मैं वैदिक वर्णमाला के स्वरूप को समझने के लिए गत 10 - 15 वर्ष प्रयत्नशील रहा हूँ ।मैं जितना सा समझ पाया, सेवा अर्पित कर दिया । मेरा स्पष्ट मत है कि वैदिक वर्णमाला के भाव को समझ कर प्रत्येक शब्द को समझने से वेदार्थ स्वत ही समझ में आने लग जाते हैं । इस विषय में भगवत कृपा हुई तो भगवत नाम सूचक कुछ वैदिकशब्दों के इस विधि से अर्थ खोलकर प्रस्तुत करूंगा । -जय श्री कृष्ण ।

-पंडित शंभू लाल शर्मा "कश्यप । 

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आर्यावर्त की नारदीय विद्या - पोस्ट -5

वैदिक वर्णमाला की 16 स्वरों, क च ट त एवं प 5 वर्गो के कुल 25 व्यंजन वर्णों तथा य र ल व श ष स ह क्ष त्र ज्ञ 11 वर्णो कुल 52 वर्णो के प्रतिकार्थ समझने के बाद हम इस पोस्ट में वैदिक वर्णमाला के 8 उन वर्णो की चर्चा करते है । इन वर्णों मे ड़ ,ळ, श्र एवं र के दोनों रूप ( अर्द्ध एवं अर्द्ध अन्य व्यंजन के साथ पूर्ण र (/ ) रूप ) संस्कृत एवं कई भारतीय भाषाओं में प्रचलित है । लेकिन ॺ ( ज़ ),र्ठं (घुं ) , एवं w ( घूं ) वर्णो का उपयोग अब बन्द हो गया है । यजुर्वेदीय रूद्री मे इनका रूप देखना / समझना चाहिए। इसके
1-ड़ = ड एवं र की संयुक्त नाद जो तेज के संयोग से परमाणु गठन की नाद है ।
2-ळ = यह वर्णन लक्षित करके समझने के दीर्घ भाव का वाचक है।
3-श्र = यह वर्ण तेज संकरण उत्पन्न रसात्मकता का वाचक ही
4 एवं 5- र के दोनों रूप ( अर्थ एवं अर्ध व्यंजन के साथ प्रयुक्त र के रूप)= र के दोनों ही रूप तेज के वाचक है
6-ॺ ( ज़ ) =यह वर्ण य वर्ण की दीर्घता का वाचक है ।
7--र्ठं (घुम्) = यह वर्ण ब्रह्मांड व्यापी पुरुष तत्व की प्राकृत नाद का वाचक है।
8-w ( घूं ) =यह वर्ण ब्रह्मांड व्यापी पुरुषतत्व की प्राकृत नाद की दीर्घता का वाचक है।
इस प्रकार 16 स्वरों + 44 =60 व्यंजनों की मानव मुख से निकलने वाली नाद ही पृथ्वी के मानव मात्र की भाषायी नाद है।
मैं ऋषि परंपरा के अग्रणी देवऋषि नारद को शत शत नमन करके अपनी इस वार्ता को विराम देता हूं ।
अगली पोस्ट में नारद ऋषि के बारे में पौराणिक कथाओं के अनुसार विष्णु भक्त नारद, .ब्रह्मा का मानस पुत्र नारद और सर्वगामी नारद के अलग-अलग प्रतिकार्थ मति अनुसार स्पष्ट करने की चेष्टा करूँगा । विद्वान से निवेदन है कि प्रस्तुति के दोष पर सार्थक कमेन्ट मार्गदर्शन के साथ अवश्य करें। मैं ऐसे कमेंट की निरंतर प्रतीक्षा करता हूं । मुझे आप अपना शरणागत शिष्य समझ कर कृपा बनाए रखें ।
-पंडित शंभू लाल शर्मा " कश्यप "